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Friday, August 30, 2019

ऐतिहासिक भाषाविज्ञान











Thursday, August 29, 2019

Case : Barry J. Blake

Product details

  •  Paperback | 248 pages
  •  153 x 227 x 17mm | 400g
  •  
  •  
  •  Cambridge, United Kingdom
  •  English
  •  Revised
  •  2nd Revised edition
  •  38 Tables, unspecified
  •  0521014913
  •  9780521014915

Tuesday, August 27, 2019

भाषा के आधारभूत अभिलक्षण (Design Features of Language)

भाषा के आधारभूत अभिलक्षण (Design Features of Language)

अमेरिकी संरचनावाद के विख्यात भाषावैज्ञानिक Charles Francis Hockett (जो एक anthropologist भी हैं) द्वारा 1960 ई. में ‘The Origin of Speech’ में भाषा 13 आधारभूत अभिलक्षणों की बात की गई। मानव भाषा का उद्देश्य मनुष्य को विचार करने और उनका संप्रेषण करने की सुविधा प्रदान करना है। यह कार्य अन्य प्राणियों द्वारा भी अपने स्तर पर किया जाता है, किंतु उनके द्वारा प्रयुक्त माध्यम मानव भाषा से अलग क्यों हैं? इसके उत्तरस्वरूप हॉकेट द्वारा इनका प्रतिपादन किया गया और इसे उन्होंने ‘design features of language’ नाम दिया। अतः आधारभूत अभिलक्षण वे अभिलक्षण हैं, जो मानव भाषा को अन्य प्राणियों द्वारा प्रयुक्त संकेत व्यवस्थाओं से अलग करते हैं। कुछ महत्वपूर्ण अभिलक्षण इस प्रकार हैं-  

1. यादृच्छिकता (Arbitrariness) : भाषा में शब्द और अर्थ के बीच कोई सीधा या प्राकृतिक संबंध नहीं होता, बल्कि माना हुआ संबंध होता है। यह माना हुआ संबंध समाज द्वारा स्वीकृत होता है। अर्थात किसी शब्द को हम भी वही कहते हैं, जो बाकी सभी लोग कहते हैं। उदाहरण के लिए हम विचार कर सकते हैं कि
पेड़ को पेड़ या कुर्सी को कुर्सी
ही क्यों कहते हैं?
इसके पीछे प ‌+ ए + ड़ ध्वनियों में कोई ऐसी विशेषता नहीं है, कि उन्हें पेड़ कहा जाए। पेड़ को कुर्सी या कुर्सी को पेड़ भी कहा जा सकता है, किंतु वह तब सही होगा, जब सभी लोग ऐसा कहने लगें।
बड़े लोगों के प्रभाव में ऐसा कभी-कभी होता भी है, जैसे- गांधी जी ने दलितों के लिए हरिजन शब्द का प्रयोग किया। श्री नरेंद्र मोदी ने विकलांगों के लिए दिव्यांग शब्द का प्रयोग किया।
नोट- यादृच्छिकता के कारण एक ही वस्तु के लिए अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग शब्द मिलते हैं, जैसे-
हिंदी - पानी,
अंग्रेजी - वाटर,
जापानी - मिजु आदि
एक ही भाषा में एक वस्तु के लिए कई शब्द मिलते हैं, जैसे-
पेड़, वृक्ष
या
पानी, जल
2.   अंतरविनिमेयता (Interchangeability) : मानव भाषा में संप्रेषण के दौरान एक ही व्यक्ति वक्ता और श्रोता दोनों हो सकता है। अर्थात् वक्ता और श्रोता बातचीत में अपनी भूमिकाएँ बदलते रहते हैं। उदाहरण के लिए यदि और में बातचीत हो रही है, जब बोलता है तो वह वक्ता है और श्रोता, जबकि जब बोलता है तो वह वक्ता है और श्रोता।

3.   सांस्कृतिक हस्तांतरण (Cultural Transmission) : भाषा के माध्यम से मानव समाज की संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्रदान की जाती है। मानव शिशु अपने समाज से भाषा सीखता है।
इसके विपरीत जैविक हस्तांतरण (biological transmission) की बात की जाती है। हमारे शरीर का आकार, रंग, अंगों का स्वरूप, चलने की क्रिया आदि जैविक हस्तांतरण है, जबकि भाषा, रहन-सहन, वस्त्र, हेयर-स्टाइल आदि सांस्कृतिक हस्तांतरण है।
4.   विविक्तता (Discreteness) : संप्रेषण के लिए किसी भी व्यक्ति द्वारा वाक्य’ (स्तर की इकाई) का प्रयोग किया जाता है। किंतु इसे छोटी इकाइयों में तोड़ा जा सकता है। भाषा की यह विशेषता विविक्तता कहलाती है। बोलते समय वक्ता लगातार बोलता रहता है। यदि उसके वक्तव्य को मशीन द्वारा व्यक्त की जाने वाली ध्वनि तरंगों में देखा जाए तो वे क्रमशः बढ़ती हुई दिखाई पड़ेंगी। उनमें यह अंतर कर पाना मुश्किल होगा कि कौन-सा शब्द कहाँ आरंभ हुआ है और कहाँ समाप्त हुआ है। किंतु हमारे कानों द्वारा जब वे तरंगे हमारे मस्तिष्क में जाती हैं तो बड़ी सरलता से हमारा मस्तिष्क उनमें से प्रत्येक शब्द और ध्वनि को अलग-अलग पहचान लेता है। छोटी इकाइयों में खंडित कर लेने की यही विशेषता विविक्तता कहलाती है।
5.   विस्थापन (Displacement) : भाषा में समय और स्थान से दूर भी बात करने की सुविधा है। अर्थात हम आज (किसी समय विशेष में) बैठकर उससे पहले या बाद के समय की बात कर सकते हैं, जैसे
·      2014 में 1945 या 2150 की बात करना।
यही बात स्थान के संदर्भ में देखी जा सकती है-
·      भारत में रहते हुए अमेरिका की बात करना।
इसे किसी अन्य माध्यम से तुलनात्मक रूप में अधिक सरलता से समझ सकते हैं, जैसे- आँखों द्वारा देखने की क्रिया। हम अपनी आँखों से केवल जिस समय में जिस स्थान पर रहते हैं, उसी समय में उसी स्थान की चीजें देख पाते हैं।
इसके विपरीत भाषा हमें सुविधा प्रदान करती है कि हम कभी भी कहीं भी रहते हुए किसी और समय या स्थान की बातचीत कर सकते हैं, भले ही वह हमारे समक्ष हो या न हो।
6.   उत्पादकता (Productivity) : भाषा में एक नियम के माध्यम से अनेक वाक्यों का निर्माण किया जा सकता है, जैसे-
संज्ञा पदबंध (NP) + क्रिया पदबंध (VP) = वाक्य (S)
राम               + जाता है           = राम जाता है।
लड़का           + जाता है           = लड़का जाता है।
राम               + खाता है          = राम खाता है।
राम               + जाता था         = राम जाता था।
भाषा की यही विशेषता उत्पादकता कहलाती है। इसके संदर्भ में प्रजनक भाषाविज्ञान के जनक नोऑम चॉम्स्की (1957) ने कहा है-
भाषा सीमित नियमों के माध्यम से असीमित वाक्यों को प्रजनित करने वाली व्यवस्था है।
इसे हम इस प्रकार से समझ सकते हैं कि किसी भी मानव भाषा में 40 से 100 के बीच ध्वनियाँ होती हैं, किंतु उन्हें मिलाकर लाखों शब्द बनाए जाते हैं। इसी प्रकार किसी भाषा में 10 लाख शब्द मान लिए जाएँ तो उन्हें मिलाकर करोड़ों वाक्य बनाए जा सकते हैं। भाषा की यही विशेषता उत्पादकता है।

अतः मानव भाषा अन्य प्राणियों द्वारा प्रयुक्त संकेत व्यवस्थाओं से बहुत अधिक विकसित है।
इस प्रकार के अन्य अभिलक्षण निम्नलिखित हैं

1.   Vocal-Auditory Channel

2. Broadcast Transmission and Directional Reception

3.   Transitoriness

4.   Total Feedback

5.   Specialization

6.   Semanticity



7.   Duality of Patterning

Monday, August 26, 2019

URKUND (उरकुंद)


URKUND (उरकुंद)
यह शोधचोरी की पहचान के लिए बनाया एक सॉफ्टवेयर है। इसके माध्यम से किसी शोधपत्र, शोध-प्रबंध अथवा किसी भी प्रकार की रचना की सामग्री का परीक्षण किया जा सकता है। यदि उस रचना में कहीं से कोई सामग्री कॉपी-पेस्ट की गई होगी, तो उसे यह चिह्नित करके प्रस्तुत कर देता है। इसकी कार्यप्रणाली का एक उदाहरण इस प्रकार है-
Image result for urkund

हिन्दी में प्रत्यय विचार (लिंग निर्धारण के विषेश सन्दर्भ में)

स्रोत- प्रयास (भाषा प्रौद्योगिकी विभाग का पहला ब्लॉग)

डॉ. अनिल कुमार पाण्डेय
हिन्दी में प्रत्यय (Suffix) उस शब्दांश को कहते हैं; जो शब्द के अन्त में जुड़कर शब्दों के अर्थ एवं रूप को बदलने की क्षमता रखता है। प्रत्यय का कोई स्वतंत्र अर्थ नहीं होता परंतु शब्द के साथ जुड़कर कुछ न कुछ अर्थ अवश्य देता है। इसका प्रयोग स्वतंत्र रूप से नहीं किया जा सकता वरन् ये शब्दों के साथ जुड़कर ही प्रयुक्त होते हैं। शब्दों के साथ प्रत्यय के जुड़ने पर मूल शब्दों में कुछ रूपस्वनिमिक परिवर्तन भी होते हैं।
अंग्रेजी में Affixes की तीन अवस्था होती है-
1. Preffix (पूर्व प्रत्यय)
2. Infix (मध्य प्रत्यय)
3. Suffix (अंत्य प्रत्यय)
परन्तु हिन्दी में पूर्व प्रत्यय एवं अंत्य प्रत्यय की ही व्यवस्था है, मध्य प्रत्यय की नहीं। पूर्व प्रत्यय को उपसर्ग कहा गया है। प्रत्यय शब्द केवल ‘अन्त्य’ प्रत्यय के लिए ही प्रयुक्त होता है। प्रस्तुत आलेख में ‘पर’ अथवा ‘अन्त्य’ प्रत्यय के लिए ही प्रत्यय का प्रयोग किया गया है। संस्कृत में दो प्रकार के प्रत्यय होते हैं-
1. सुबन्त
2. तिङन्त
सुबन्त अर्थात् सुप् प्रत्यय सभी नामपद अर्थात् संज्ञा अथवा विशेषण के साथ जुड़ते हैं। यथा- रामः, बालकौ, बालकस्य, सुन्दरः, मनोहरं आदि।
तिङन्त अर्थात् तिङ् प्रत्यय आख्यात अर्थात् क्रिया के साथ जुड़ते हैं। यथा- गच्छति, गमिष्यन्ति, अगच्छत्, गच्छेयूः आदि।
संस्कृत में सुबन्त एवं तिङन्त विभक्ति के द्योतक है। जबकि तद्धित एवं कृदंत को प्रत्यय कहा गया है। हिन्दी में प्रत्यय के दो प्रकार माने गए हैं- तद्धित एवं कृदंत। तद्धित प्रत्यय संज्ञा एवं विशेषण के साथ जुड़ते हैं जबकि कृदंत अर्थात् कृत् प्रत्यय क्रिया के साथ।
तद्धित प्रत्यय -
- ता स्वतंत्रता, ममता, मानवता।
- पन बचपन, पागलपन, अंधेरापन।
- इमा लालिमा, कालिमा।
- त्व अमरत्व, ममत्व, कृतित्व, व्यक्तित्व।

कृदंत प्रत्यय -
-अक - पाठक, लेखक, दर्शक, भक्षक।
- आई - पढ़ाई, लड़ाई, सुनाई, चढ़ाई, कटाई, बुनाई।
- आवट - लिखावट, सजावट, बुनावट, मिलावट। हिन्दी में किसी शब्द को एक वचन से बहुवचन बनाने पर जो परिवर्तन होता है वह प्रत्यय के स्तर पर ही होता है, ऐसे प्रत्यय को भाषावैज्ञानिक दृष्टि से बद्धरूपिम; (Bound Morphome) की संज्ञा दी गई है, जैसे-
एकवचन बहुवचन प्रत्यय
1. लड़का लड़के -ए
2. कुर्सी कुर्सियाँ -याँ
3. मेज मेजें -एँ
4. समाज समाज -शून्य

उपर्युक्त उदाहरणों में -ए , -या -एँ तथा शून्य बहुवचन प्रत्यय जुड़े हैं। शून्य प्रत्यय को शून्य विभक्ति कहा जाता है। बहुवचन प्रत्यय के भी दो रूप मिलते हैं। पहला रूप वह प्रत्यय जो शब्दों के बहुवचन रूप बनने पर सीधे-सीधे रूपों में दिखे। जैसा कि उपर्युक्त उदाहरणों में दिया गया है। दूसरा रूप वह जो तिर्यक रूप में दिखे, जैसे- लड़कों, कुर्सियों, मेजों, समाजों, मनुष्यों, जानवरों आदि में ‘-ओं’ के रूप में। दोनों बहुवचन प्रत्ययों में व्याकरणिक दृष्टि से वाक्यगत जो अंतर है वह यह कि सीधे रूप के साथ कोई परसर्ग (विभक्ति चिह्न) नहीं जुड़ता। हाँ, आकारान्त शब्दों के बहुवचन रूप बनने पर उसमें ‘-ए’ प्रत्यय जुड़ता है परंतु परसर्ग (विभक्ति चिह्न) के जुड़ने पर वह बहुवचन न होकर एकवचन रूप हो जाता है।

उदाहरण के लिए-
कपड़े फट गए।
कपड़े पर दाग है। (एकवचन रूप)
लड़के खेल रहे हैं।
लड़के ने खेला है। (एकवचन रूप)
उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि बहुवचन प्रत्यय के लगने पर कोई परसर्ग नहीं लगेगा। आकारांत शब्दों में बहुवचन प्रत्यय ‘-ए’ लगने पर उसके साथ परसर्ग तो लग सकता है परंतु परसर्ग लगने पर बहुवचन न होकर एकवचन रूप हो जाता है। सभी आकारांत शब्दों में बहुवचन प्रत्यय (-ए) नहीं लगता। यह प्रत्यय केवल जातिवाचक, पुल्लिंग संज्ञाओं में ही लगता है। व्यक्तिवाचक, संबंधवाचक एवं जातिवाचक स्त्रीलिंग संज्ञाओं में नहीं लगता।

बहुवचन का तिर्यक रूप
जैसा कि ऊपर कहा गया है कि बहुवचन प्रत्यय का तिर्यक रूप ‘-ओं’ है। किसी भी शब्द में ‘-ओं’ प्रत्यय लग सकता है। -ओं प्रत्यय से बनने वाले सभी शब्द बहुवचन होते हैं परंतु इनका वाक्यगत प्रयोग बिना परसर्ग के नहीं हो सकता है। दूसरे शब्दों में तिर्यक बहुवचन प्रत्यय(-ओं) का प्रयोग परसर्ग सहित ही होता है,
जैसे-
लड़कों को बुलाओ।
लड़कों बुलाओ।
कुर्सियों पर धूल जमा है।
*कुर्सियों धूल जमा है।
अलग-अलग मेजों को लगाओ।
*अलग-अलग मेजों लगाओ। (*यह चिह्न अस्वाभाविक प्रयोग का वाचक है)
उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि बहुवचन शब्दों का तिर्यक रूप प्रत्यय -ओं का प्रयोग परसर्ग सहित ही प्रयुक्त होगा, परसर्ग के बिना नहीं।
लिंग (Gender) : स्वरूप एवं निर्धारण- किसी भी भाषा में लिंग वह है, जिसके द्वारा मूर्तवस्तु अथवा अमूर्त भावनात्मक शब्दों के बारे में यह जाना जाता है कि वह पुरुष का बोध कराता है स्त्री का अथवा दोनों का। लिंग का अध्ययन व्याकरणिक कोटियों (Grammetical Categories) के अंतर्गत किया जाता है।
अधिकांश भाषाओं में तीन लिंग होते हैं- पुल्लिंग, स्त्रीलिंग एवं नपुंसक लिंग। परंतु हिन्दी में दो ही लिंग हैं- पुल्लिंग और स्त्रीलिंग। हिन्दी भाषा में लिंग निर्धारण के संदर्भ में अभी तक कोई समुचित सिद्धान्त अथवा व्यवस्था नहीं दी गई है, जिसके आधार पर लिंग का निर्धारण आसानी से किया जा सके। हिन्दीतर भाषियों की हिन्दी सीखते समय सबसे बड़ी समस्या यही है कि किन शब्दों को पुल्लिंग माने, किन शब्दों को स्त्रीलिंग और मानने का आधार क्या है?
इस संदर्भ में प्रसिद्ध वैयाकरणों ने भी अपनी विवशता प्रकट की है। हिन्दी के मूर्धन्य वैयाकरण कामता प्रसाद गुरू के शब्दों में निम्नलिखित कथन उद्धृत है-
‘‘हिन्दी में अप्राणीवाचक शब्दों का लिंग जानना विशेष कठिन है; क्योंकि यह बात अधिकांश व्यवहार के अधीन है। अर्थ और रूप दोनों ही साधनों से इन शब्दों का लिंग जानने में कठिनाई होती है’’। -कामता प्रसाद गुरू- हिन्दी व्याकरण- पृ.151. 1920
हिन्दी में लिंग का निर्धारण कुछ हद तक प्रत्ययों के आधार पर किया जा सकता है। जब किसी शब्द में कोई प्रत्यय जुड़ता है तो मूल शब्द संज्ञा, विशेषण अथवा कृदंत होते हैं। यदि संज्ञा है तो या तो स्त्रीलिंग होगा अथवा पुल्लिंग। विशेषण शब्दों का अपना कोई लिंग नहीं होता। जिस संज्ञा शब्द की विशेषता बताते हैं उन्हीं संज्ञा के साथ विशेषण की अन्विति होती है।
वह प्रत्यय जो किसी शब्द के साथ जुड़कर उस शब्द को पुल्लिंग बनाता है, उसे पुरुषवाची तथा वह प्रत्यय जो किसी शब्द के साथ जुड़कर स्त्रीलिंग बनाता है, उसे स्त्रीवाची प्रत्यय कह सकते हैं। इस प्रकार प्रयोग अथवा प्रकार्य की दृष्टि से दो प्रकार के प्रत्यय हो सकते हैं- 1. स्त्रीवाची प्रत्यय और 2. पुरुषवाची प्रत्यय।


स्त्रीवाची प्रत्यय
जिस शब्द के साथ स्त्रीवाची प्रत्यय जुड़ते हैं वे सभी शब्द स्त्रीलिंग होते हैं। नीचे कुछ स्त्रीवाची प्रत्ययों एवं उनसे बनने वाले शब्दों के उदाहरण दिए जा रहें हैं-
‘-ता’ स्त्रीवाची प्रत्यय - इस प्रत्यय के शब्द में जुड़ने से जो शब्द बनते हैं, वे सभी भाववाचक स्त्रीलिंग संज्ञा शब्द बनते हैं-
मूलशब्द प्रत्यय योग भाववाचक संज्ञा
मानव -ता मानवता
स्वतंत्र -ता स्वतंत्रता
पतित -ता पतिता
विवाह -ता विवाहिता
महत् -ता महत्ता
दीर्घ -ता दीर्घता
लघु -ता लघुता
दुष्ट -ता दुष्टता
प्रभु -ता प्रभुता
आवश्यक -ता आवश्यकता
नवीन -ता नवीनता आदि।
नोटः- -ता प्रत्यय जिन शब्दों में लगता है, वे शब्द बहुधा विशेषण पद होते हैं। -ता प्रत्यय लगने के पश्चात् वे सभी (विशेषण अथवा संज्ञा) शब्द भाववाचक संज्ञा हो जाते हैं। प्रत्ययों का किसी शब्द में जुड़ना भी किसी नियम के अंतर्गत होता है, उसकी एक व्यवस्था होती है। एक शब्द में दो-दो विशेषण प्रत्यय अथवा एक ही शब्द में दो-दो भाववाचक प्रत्यय नहीं लग सकते। हाँ, विशेषण प्रत्यय के साथ भाववाचक प्रत्यय अथवा भाववाचक प्रत्यय के साथ विशेषण प्रत्यय जुड़ सकते हैं, जैसे- आत्म+ ईय(विशेषण) + ता(भाववाचक) - आत्मीयता। ’ मम+ ता (भाववाचक) +त्व (भाववाचक) - नहीं जुड़ सकते। संज्ञा शब्द में विशेषण प्रत्यय के साथ संज्ञा प्रत्यय जुड़ सकता है। जहाँ विशेषण शब्द में विशेषण प्रत्यय नहीं जुड़ता वहीं संज्ञा शब्द में संज्ञा प्रत्यय जुड़ सकता है।,
उपर्युक्त सभी -ता प्रत्यय से युक्त भाववाचक संज्ञा शब्द स्त्रीलिंग हैं। -ता प्रत्यय से कुछ समूह वाचक अथवा अन्य शब्द भी निर्मित होते हैं परंतु वे शब्द भी स्त्रीलिंग ही होते हैं- जन+ता = जनता, कवि+ता= कविता आदि। इनकी संख्या सीमित है।
(-इमा) स्त्रीवाची प्रत्यय-
मूल शब्द प्रत्यय योग भाववाचक शब्द
लाल -इमा लालिमा
काला -इमा कालिमा
रक्त -इमा रक्तिमा
गुरू -इमा गरिमा
लघु -इमा लघिमा आदि।
-इमा प्रत्यय से युक्त सभी शब्द भाववाचक स्त्रीलिंग होते हैं।
-आवट स्त्रीवाची प्रत्यय-
मूल शब्द प्रत्यय योग भाववाचक शब्द
लिख -आवट लिखावट
रूक -आवट रुकावट
मेल -आवट मिलावट आदि।
उपर्युक्त सभी शब्द स्त्रीलिंग हैं। -आवट प्रत्यय कृदंत प्रत्यय है। उससे बनने वाले सभी शब्द भाववाचक संज्ञा होते हैं।
-आहट स्त्रीवाची प्रत्यय-
कड़ूआ -आहट कड़ुवाहट
चिकना -आहट चिकनाहट
गरमा -आहट गरमाहट
मुस्करा -आहट मुस्कराहट आदि।
उपर्युक्त सभी भाववाचक संज्ञा शब्द स्त्रीलिंग हैं। -आहट प्रत्यय कृदंत प्रत्यय है।
-ती स्त्रीवाची प्रत्यय-
यह प्रत्यय तद्धित और कृदंत दोनों रूपों में प्रयुक्त हो सकता है। इससे बनने वाले सभी शब्द स्त्रीलिंग होते हैं। (सजीव शब्दों को छोड़कर)
पा -ती पावती
चढ़ -ती चढ़ती
गिन -ती गिनती
भर -ती भरती
मस्(त) -ती मस्ती आदि।
-इ/-ति प्रत्यय-
-इ, अथवा -ति प्रत्यय से युक्त शब्द स्त्रीलिंग होते हैं। प्राणीवाचक शब्दों को छोड़कर। (जैसे- कवि, रवि आदि)।
कृ -ति कृति
प्री -ति प्रीति
शक् -ति शक्ति
स्था -ति स्थिति आदि।
इसी प्रकार भक्ति, कांति, क्रांति, नियुक्ति, जाति, ज्योति, अग्नि, रात्रि, सृष्टि, दृष्टि, हानि, ग्लानि, राशि, शांति, गति आदि सभी इकारांत शब्द स्त्रीलिंग होते हैं।
नोटः- जब दो शब्द जुड़ते हैं तो द्वितीय घटक के आधार पर ही पूरे पद का लिंग निर्धारण होता है-
पुनः + युक्ति = पुनरुक्ति(स्त्री।)
सहन + शक्ति = सहनशक्ति(स्त्री।)
मनस् + स्थिति = मनःस्थिति(स्त्री।)
यदि द्वितीय घटक स्त्रीलिंग है तो संपूर्ण घटक स्त्रीलिंग होगा, इसके विपरीत पुल्लिंग।,
-आई स्त्रीवाची प्रत्यय
सच -आई सचाई
साफ -आई सफाई
ढीठ -आई ढीठाई आदि।
नोटः- -आई प्रत्यय कृदंत और तद्धित दोनों रूपों में प्रयुक्त होता है। -आई प्रत्यय से युक्त सभी भाववाचक शब्द स्त्रीलिंग होते हैं।
-ई स्त्रीवाची प्रत्यय
-ईकारांत सभी भाववाचक शब्द स्त्रीलिंग होते हैं-
सावधान-ई =सावधानी खेत-ई =खेती महाजन-ई= महाजनी
डाक्टर-ई = डाक्टरी गृहस्थ-ई =गृहस्थी दलाल-ई =दलाली आदि।
-औती स्त्रीवाची प्रत्यय
बूढ़ा-औती =बुढ़ौती मन-औती = मनौती
फेर-औती = फिरौती चुन-औती = चुनौती आदि।
उपर्युक्त सभी भाववाचक शब्द स्त्रीलिंग हैं।
-आनी स्त्रीवाची प्रत्यय-
यह प्रत्यय स्त्रीवाचक प्रत्यय है। किसी भी सजीव शब्द के साथ जुड़कर स्त्रीलिंग बनाता है, जैसे-
पंडित-आनी = पंडितानी, मास्टर-आनी = मस्टरानी आदि।
-इन स्त्रीवाची प्रत्यय- यह प्रत्यय भी -आनी प्रत्यय की भांति ही सजीव शब्दों में लगकर स्त्रीलिंग बनाता है, जैसे-
सुनार-इन=सुनारिन, नात/नाती-इन=नातिन, लुहार-इन=लुहारिन आदि।
पुरुषवाची प्रत्यय
पुरुषवाची प्रत्यय उन शब्दांशों को कहते हैं, जो किसी शब्द के साथ जुड़कर पुल्लिंग बनाते हैं। स्त्रीवाची प्रत्ययों की भांति पुरुषवाची प्रत्ययों की भी संख्या अधिक है।
नीचे कुछ पुरुषवाची प्रत्यय के उदहारण दिए गए हैं।
-त्व पुरुषवाची प्रत्यय - यह भाववाचक तद्धित प्रत्यय है, जिन शब्दों के साथ यह प्रत्यय जुड़ता है, वे शब्द भाववाचक पुल्लिंग हो जाते हैं।
मम-त्व = ममत्व बंधु-त्व = बंधुत्व
एक-त्व = एकत्व घन-त्व = घनत्व आदि।
नोटः- उपर्युक्त सभी भाववाचक शब्द स्त्रीलिंग हैं।
-आव प्रत्यय
यह एक कृदंत प्रत्यय है। इससे बनने वाले सभी शब्द पुल्लिंग होते हैं।
लग-आव = लगाव बच-आव = बचाव
गल-आव = गलाव पड़-आव = पड़ाव
झुक-आव = झुकाव छिड़क-आव = छिड़काव आदि।

-आवा पुरुषवाची प्रत्यय
यह प्रत्यय भी -आव प्रत्यय की भांति कृदंत प्रत्यय है। इससे बनने वाले सभी शब्द पुल्लिंग होते हैं।
बुला-आवा = बुलावा
पहिर-आवा = पहिरावा
-पन/पा पुरुषवाची प्रत्यय
ये प्रत्यय भाववाचक तद्धित प्रत्यय हैं। ये किसी भी शब्द के साथ जुड़कर भाववाचक पुल्लिंग शब्द बनाते हैं।
काला -पन = कालापन
बाल -पन = बालपन
लचीला -पन = लचीलापन
बूढ़ा -पा = बुढ़ापा
मोटा -पा = मोटापा
अपना -पन = अपनापन आदि।
-ना पुरुषवाची प्रत्यय
यह एक कृदंत प्रत्यय है। हिन्दी में ‘-ना’ से युक्त सभी क्रियार्थक संज्ञाएँ (Gerund) पुल्लिंग होती हैं। इन्हीं क्रियार्थक संज्ञाओं में से ‘-ना’ प्रत्यय हटा लेने पर जो भाववाचक संज्ञाएँ बनती हैं, वे सभी स्त्रीलिंग होती हैं। उदहारण के लिए- जाँचना, लूटना, महकना, डाँटना आदि सभी क्रियार्थक संज्ञाएँ पुल्लिंग हैं; जबकि जाँच, लूट, महक, डाँट सभी भाववाचक संज्ञाएँ स्त्रीलिंग हैं।
क्रियार्थक संज्ञा से दो प्रकार से प्रत्ययों का लोप संभव है। पहला वह जो क्रियार्थक संज्ञा से सीधे -ना प्रत्यय का लोप कर भाववाचक संज्ञा बनती हैं। दूसरी वह जो क्रियार्थक संज्ञा में से -आ प्रत्यय का लोप कर भाववाचक संज्ञा बनती हैं। क्रियार्थक संज्ञा में से -ना एवं -आ प्रत्यय के लोप से सभी भाववाचक संज्ञा बनती हैं, साथ ही उक्त सभी संज्ञा शब्द स्त्रीलिंग होते हैं।
ऊपर -ना लोप के कुछ उदहारण दिए गए हैं। -आ लोप के उदहारण इस प्रकार हैं-
धड़कना-धड़कन,जलना-जलन, चलना-चलन, लगना-लगन आदि।
इनमें धड़कन, जलन, चलन, लगन, आदि भाववाचक स्त्रीलिंग संज्ञा हैं।
नीचे कुछ क्रियार्थक संज्ञा एवं -ना प्रत्यय लोप के उदाहरण दिए जा रहें हैं। जहाँ क्रियार्थक संज्ञा पुल्लिंग हैं, वहीं -ना लोप भाववाचक संज्ञा स्त्रीलिंग हैं-
-ना युक्त क्रियार्थक संज्ञा लिंग -ना प्रत्यय लोप लिंग
जाँचना पुल्लिंग जाँच स्त्रीलिंग
लूटना - लूट -
पहुँचना - पहुँच -
चमकना - चमक -
नीचे कुछ -ना प्रत्यय युक्त क्रियार्थक संज्ञा एवं -आ प्रत्यय लोप के उदहारण दिए जा रहें हैं। जहाँ -ना प्रत्यय युक्त क्रियार्थक संज्ञा पुल्लिंग हैं, वहीं -आ प्रत्यय लोप भाववाचक संज्ञा स्त्रीलिंग।
-ना युक्त क्रि.सं. लिंग -आ लोप प्रत्यय लिंग
धड़कना पुल्लिंग धड़कन स्त्रीलिंग
जलना - जलन -
चलना - चलन - आदि।
कुछ उर्दू के स्त्रीवाची और पुरुषवाची प्रत्यय
हिंदी में कुछ उर्दू के प्रत्ययों का प्रयोग हो रहा है, जो स्त्रीवाची और पुरुषवाची प्रत्यय के रूप में प्रयुक्त हो रहे हैं। इनके आधार पर भी लिंग निर्धारण संभव है; जैसे-
उर्दू के पुरुषवाची प्रत्यय-
-दान
चायदान, पायदान, इत्रदान, पानदान, कलमदान, कदरदान, रोशनदान, ख़ानदान आदि सभी शब्द पुल्लिंग होते हैं।
-आना
नजराना, घराना, जुर्माना, याराना, मेहनताना, दस्ताना, आदि सभी पुल्लिंग शब्द हैं।
-आत
जवाहरात, कागज़ात, मकानात, ख्यालात आदि पुल्लिंग शब्द हैं।
कुछ उर्दू के स्त्रीवाची प्रत्यय-
-गी - दिवानगी, विरानगी, नाराजगी, ताजगी, पेचीदगी, शर्मिंदगी, रवानगी आदि सभी शब्द स्त्रीलिंग हैं।
-इयत-असलीयत, खासियत, मनहुसियत, मासूमियत, महरूमियत, इंसानियत, अंग्रेजियत, कब्ज़ियत आदि सभी शब्द स्त्रीलिंग हैं।
-इश - बंदिश, रंजिश, ख्वाहिश, आदि शब्द स्त्रीलिंग हैं।
-अत -नजा़कत, खि़लाफ़त, हिफ़ाज़त आदि शब्द स्त्रीलिंग हैं।
-गिरी -नेतागिरी, राजगिरी, गुंडागिरी, बाबूगिरी आदि शब्द स्त्रीलिंग हैं।
उपर्युक्त प्रत्ययों में कुछ महत्त्वपूर्ण स्त्रीवाची एवं पुरुषवाची प्रत्ययों के उदहारण दिए गए हैं। इनमें कुछ कृदंत प्रत्यय हैं, कुछ तद्धित प्रत्यय तथा कुछ कृदंत एवं तद्धित दोनों रूपों में प्रयुक्त प्रत्यय। हिंदी के लिंग निर्धारण की एक दूसरी व्यवस्था दी जा रही है, जिसके अंतर्गत अधिकांष शब्द आ जाते हैं। हिन्दी में बहुवचन प्रत्यय एँ, याँ, ए एवं शून्य होता है। इसमें एँ तथा याँ प्रत्यय स्त्रीवाची प्रत्यय हैं। ये जिस किसी शब्द के साथ जुड़ते हैं, वे सभी शब्द स्त्रीलिंग होते हैं तथा -ए एवं -शून्य प्रत्यय जिस शब्द के साथ जुड़ते हैं, वे सभी पुल्लिंग होते हैं। ‘-ए’ बहुवचन प्रत्यय केवल आकारांत पुल्लिंग, जातिवाचक शब्द के साथ ही जुड़ते हैं। यहाँ शून्य से तात्पर्य है प्रत्यय रहित। जिस शब्द के साथ कोई भी बहुवचन प्रत्यय नहीं जुड़ता वहाँ शून्य प्रत्यय होता है। शून्य प्रत्यय वाले शब्द स्त्रीलिंग एवं कुछ शब्द पुल्लिंग भी हो सकते हैं। परंतु ‘-ए’ बहुवचन प्रत्यय वाले सभी शब्द पुल्लिंग होते हैं। नीचे इनके उदहारण दिए जा रहें हैं-
एकव. शब्द बहुव. शब्द प्रत्यय लिंग
मेज़ मेज़ें -एँ स्त्रीलिंग
कुर्सी कुर्सियाँ -याँ -
लकड़ी लकड़ियाँ -याँ -
भावना भावनाएँ -एँ -
पुस्तक पुस्तकें -एँ -
जहाज जहाजें -एँ -
फोड़ा फोड़े -ए पुल्लिंग
लड़का लड़के -ए -
प्रेम प्रेम शून्य -
प्यार प्यार शून्य -
घोड़ा घोड़े -ए -
कमरा कमरे -ए - आदि।
स प्रकार हिंदी में प्रत्यय पर विचार करते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि प्रत्ययों के आधार पर हिंदी में लिंग निर्धारण संबंधी समस्याओं को दूर किया जा सकता है, जो प्रस्तुत लेख का उद्देश्य है।
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) के भाषा विद्यापीठ में व्याख्याता हैं।)

पाणिनि

स्रोत- प्रयास (भाषा प्रौद्योगिकी विभाग का पहला ब्लॉग)

लिंक-http://prayaslt.blogspot.com/2010/02/blog-post_7361.html

करुणा


प्रख्यात वैयाकरण पाणिनि का जन्म 520 ई.पू. शालातुला (Shalatula, near Attok) सिंधु नदी जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है, में माना जाता है। चूंकि यह समय विद्वानों के पूर्वानुमानों पर आधारित है, फिर भी विद्वानों ने चौथी, पांचवी, छठी एवं सातवीं शताब्दी का अनुमान लगाते हुए पाणिनि के जीवन काल के अविस्मरणीय कार्य को बिना किसी ऐतिहासिक तथ्य के प्रस्तुत करने की चेष्टा की है। बावजूद इसके उपलब्ध तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि पाणिनि संपूर्ण ज्ञान के विकास में नवप्रवर्तक के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं।
किंवदन्तियों के आधार पर पाणिनि के जीवन काल की एक घटना प्रचलित है कि वर्ष नामक एक ऋषि के दो शिष्य कात्यायन और पाणिनि थे। कात्यायन कुशाग्र और पाणिनि मूढ़ वृत्ति के व्यक्ति थे। अपनी इस प्रवृत्ति से चिंतित होकर वे गुरुकुल छोड़ कर हिमालय पर्वत पर महेश्वर शिव की तपस्या के लिए चले गए। लंबे समय के बाद उनके तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने उन्हें दर्शन दिया और प्रबुद्ध होने का आशीर्वाद दिया। इसके बाद वे कभी पीछे मुड़कर नहीं देखे और अपने अथक प्रयास से संस्कृत भाषा का गहन अध्ययन-विश्लेषण किया।
उनकी इस साधना का प्रतिफल भारतीय संस्कृति को 'अष्टाध्यायी' के रूप में प्राप्त हुआ है। इसके बाद पाणिनि को 'व्याकरण के पुरोधा' के रूप में भाषाविज्ञान जगत् में उच्च शिखर पर प्रतिष्ठित किया गया। इन्होंने स्वनविज्ञान, स्वनिमविज्ञान और रूपविज्ञान का वैज्ञानिक सिद्धांत प्रतिपादित किया। संस्कृत भाषा भारतीय संस्कृति की साहित्यिक भाषा के रूप में स्वीकृत है और पाणिनि ने इस भाषा और साहित्य को सभी भाषा की जननी का स्थान प्रदान करने में जनक का काम किया। संस्कृत का संरचनात्मक अर्थ है- पूर्ण और श्रेष्ठ। इस आधार पर संस्कृत को स्वर्गीय (divine) भाषा या ईश्वरीय भाषा की संज्ञा प्रदान की गई है। पाणिनि ने इसी भाषा में अष्टाध्यायी (अष्टक) की रचना की जो आठ अध्यायों में वर्गीकृत है। इन आठ अध्यायों को पुन: चार उपभागों में विभाजित किया गया है। इस व्याकरण की व्याख्या हेतु इन्होंने 4000 उत्पादित नियमों और परिभाषाओं को रूपायित किया है। इस व्याकरण का प्रारंभ लगभग 1700 आधारित तत्व जैसे संज्ञा, क्रिया, स्वर और व्यंजन द्वारा किया गया है। वाक्यीय संरचना, संयुक्त संज्ञा आदि को संचालित करने वाले नियमों के क्रम में आधुनिक नियमों के साम्यता के आधार पर रखा गया है। यह व्याकरण उच्चतम रूप में व्यवस्थित है, जिससे संस्कृत भाषा में पाए जाने वाले कुछ साँचों का ज्ञान होता है। यह भाषा में पाई जाने वाली समानताओं के आधार पर भाषिक अभिलक्षणों को प्रस्तुत करता है और विषय तथ्यों के रूप में रूपविश्लेषणात्मक नियमों का क्रमबद्ध समुच्चय निरूपित करता है। पाणिनि द्वारा प्रतिपादित इस विश्लेषणात्मक अभिगम में स्वनिम और रूपिम की संकल्पना निहित है, जिसकी पहचान पाश्चात्य भाषाविदमिलेनिया ने भी की थी। पाणिनि का व्याकरण विवरणात्मक है। यह इन तथ्यों की व्याख्या नहीं करता कि मनुष्य को क्या बोलना और लिखना चाहिए, बल्कि यह व्याख्या करता है कि वास्तव में मनुष्य क्या बोलते और लिखते हैं।
पाणिनि द्वारा प्रस्तुत भाषिक संरचनात्मक विधि एवं व्यवहार का निर्माण विविध प्राचीन पुराणों और वेदों को विश्लेषित करने की क्षमता रखता है, जैसे- शिवसूत्र। रूपविज्ञान के तार्किक सिद्धांतो के आधार पर वे इन सूत्रों को विश्लेषित करने में सक्षम थे।
अष्टाध्यायी को संस्कृत का आदिम व्याकरण माना जाता है, जो एक ओर निरूक्त, निघंटु जैसे प्राचीन शास्त्रों की व्याख्या करता है तो वहीं दूसरी ओर वर्णनात्मक भाषाविज्ञान, प्रजनक भाषाविज्ञान के उत्स (स्रोत) का कारण भी बनता है। इस दृष्टि से इस व्याकरण में एक ओर भर्तृहरि जैसे प्राचीन भाषाविदों का प्रभाव भी मिलता है तो दूसरी ओर सस्यूर जैसे आधुनिक भाषाविद् को प्रभावित करता है।
आधुनिक भाषाविदों में चॉम्स्की ने यह स्वीकार किया है कि प्रजनक व्याकरण के आधुनिक समझ को विकसित करने के लिए वे पाणिनि के ऋणि हैं। इनके आशावादी सिद्धांतों की प्राक्कल्पना जो विशेष और सामान्य बंधनों के बीच संबंधों को प्रस्तुत करती है, वह पाणिनि द्वारा निर्देशित बंधनों से ही नियंत्रित होती है।
पाणिनि व्याकरण गैर-संस्कृत भाषाओं के लिए भी युक्तियुक्त है। इसलिए पाणिनि को गणितीय भाषाविज्ञान और आधुनिक रूपात्मक व्याकरण का अग्रदूत कहा जाता है, जिसके सिद्धांत कंप्यूटर भाषा को विशेषीकृत करने के लिए प्रयोग किए जाते हैं। पाणिनि के नियम पूर्ण रूप से श्रेष्ठ कहे जाते हैं, क्योंकि ये न सिर्फ संस्कृत भाषा के रूप प्रक्रियात्मक विश्लेषण के लिए सहायक हैं अपितु यह कंप्यूटर वैज्ञानिकों को मशीन संचालन के लिए स्पष्ट नियमों की व्याख्या भी करते हैं। पाणिनि ने कुछ आधिनियमों, रूपांतरण नियमों एवं पुनरावृति के जटिल नियमों का प्रयोग किया है, जिससे मशीन में गणितीय शक्ति की क्षमता विकसित की जा सकती है। 1959 में जॉन बैकस द्वारा स्वत्रंत रूप में Backus Normal Form (BNF) की खोज की गई। यह आधुनिक प्रोग्रामिंग भाषा को निरूपित करने वाला व्याकरण है । परंतु यह भी ध्यातव्य है कि आज के सैद्धांतिक कंप्यूटर विज्ञान की आधारभूत संकल्पना का स्रोत भारतीय प्रतिभा के गर्भ से 2500 वर्ष पूर्व ही हो चुका था, जो पाणिनि व्याकरण के नियमों से अर्थगत समानता रखता है।
पाणिनि हिन्दू वैदिक संस्कृति के अभिन्न अंग थे। व्याकरण के लिए उनकी तकनीकी प्राकल्पना वैदिक काल की समाप्ति और शास्त्रीय संस्कृत के उद्भव तक माना जाता है। यह इस बात की ओर भी संकेत करता है कि पाणिनि वैदिक काल के अंत तक जीवित रहे। प्रमाणों के आधार पर पाणिनि द्वारा दस विद्वानों का उल्लेख मिलता है जिन्होंने संस्कृत व्याकरण के अध्ययन में पाणिनि का योगदान दिया। यह इस बात की ओर भी संकेत करता है कि इन दस विद्वानों के बाद पाणिनि जीवित रहें लेकिन इसमें कोई निश्चित तिथि का प्रमाण नहीं मिलता वे दस विद्वान कब तक जीवित थें। ऐसे में यह कहने में अतिशयोक्ति न होगी की पाणिनि और उनके द्वारा कृत व्याकरण अष्टाध्यायी संपूर्ण मानव संस्कृति, विशेषकर भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर है। भाषिक संदर्भ में प्राचीन काल से अधुनिक काल तक यह भाषावैज्ञानिक और कंप्यूटर वैज्ञानिकों के अध्ययन-विश्लेषण का विषय रहा है, जिसके परिणाम सैद्धांतिक और प्रयोगात्मक पृष्टभूमि में विकसित प्रौद्योगिकी उपकरणों में देखे जा सकते हैं, जिसकी आधारशिला पाणिनि के अष्टाधायी के रूप में मानव बुद्धि की एकमात्र समाधिशिला बनकर स्थापित है।

(लेखिका महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) के भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग में शोधरत हैं।)

महर्षि पतंजलि

स्रोत- प्रयास (भाषा प्रौद्योगिकी विभाग का पहला ब्लॉग)

अनामिका कुमारी
एम।ए.हि.(भाषा-प्रौद्योगिकी)
महर्षि पतंजलि के जन्म और उनके कार्य-व्यापार को लेकर विद्वानों में अनेक मतभेद प्रचलित हैँ। एक औरत के अंजलि में गिरने (पत्) से उनका नाम पतंजलि हुआ था। किंवदंतियों के अनुसार उनके पिता अंगीरा हिमालय के और माता गोणिका कश्मीर के निवासी थे। महर्षि पतंजलि का जन्म 250 ईसा पूर्व माना जाता है परंतु इनके जन्म को लेकर अनेक विवाद हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार इनका जन्म चौथी शताब्दी ईसा पूर्व और अन्य के अनुसार छठी शताब्दी ईसा पूर्व, प्रसिध्द कृति योग-सूत्र की प्रस्तुति चौथे से दूसरे शतक ईसा पूर्व, के बीच मानी जाती है। इस आधार पर योग्य तिथि 250 ईसा पूर्व ही माना गया।
पतंजलि के जन्म और उनके माता-पिता के बारे में अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। एक किंवदंति के अनुसार पतंजलि के पिता अंगीरा इस सृष्टि के निर्माता ब्रह्मा के दस पुत्रों में से एक थे और शिव की पत्नी उनकी माता थीं। इसप्रकार पतंजलि ब्रह्मा के पौत्र; पर साथ में वह बुद्धि, वाग्मिता तथा त्याग में सर्वश्रेष्ठ देवता बृह्स्पति के भाई भी थे।
एक अन्य किंवदंति के अनुसार पतंजलि,स्वंय भगवान विष्णु के अवतार थे ; जो आदिशेष नामक सर्प के रूप में है तथा भगवान विष्णु के आसन के रूप में प्रसिध्द है (वास्तव में आदिशेष सर्प भगवान विष्णु के अनेक अवतारों में एक है।) एक दिन जब विष्णु, भगवान शिव के नृत्य से आनंद विभोर हो रहे थे उसी समय उनके शरीर में एक प्रकार का कंपन हुआ, जिसके परिणाम स्वरूप आदिशेष के ऊपर भार बढ़ने लगा; परिणामत: उसे कुछ असुविधाओं का अनुभव हुआ। नृत्य समाप्ति के उपरांत भार कम होने पर उसने इसका कारण पूछने उसे उक्त घटना की जानकारी हुई। ज्ञात जानकारी के बाद आदिशेष ने भी अपने इष्टदेव को प्रसन्न करने के उद्देश्य से नृत्य सीखने की इच्छा व्यक्त की, यह सुनकर य भगवान विष्णु ने प्रसन्न होकर आदिशेष को वरदान दिया कि भगवान शिव के आशिर्वाद से वह एक दिन मानव-अवतार के रूप में जन्म लेकर उत्तम नर्तक के रूप में प्रसिध्द होगा। इस अवतार की प्राप्ति हेतु वह अपनी भावी माता के विषय में मनन करने लगा कि उसकी योग्य माता कौन होगी? उसी समय गोणिका नामक एक सदाचारी और सदगुणी स्त्री जो पूर्णत: योग के प्रति समर्पित थी और इसके द्वारा प्राप्त उच्च तथा योग्य गुणों के हेतु एक योग्य उत्तराधिकारी के रूप में एक पुत्र की कामना कर रही थी ताकि आने वाले समय में भी इस ज्ञान का प्रसार हो सके।परंतु इस पृथ्वी पर वह इतना योग्य पात्र पाने में वह असक्षम थी। इस हेतु उसने प्रकाश के देवता सूर्य के समक्ष साष्टांग दंडवत करते हुए अपनी ओर से अपनी अंजुली से सूर्य को जल अपर्ण करते हुए उनसे अपने योग्य पुत्र की अनुनय-विनय करने लगी और ध्यान में मग्न हो गई। यह एक साधारण पर निष्ठापूर्वक किया हुआ अपर्ण था। भगवान विष्णु को धारण करने वाले आदिशेष को अपनी माता प्राप्त हो गई थी,जिसकी उसने कामना की थी। तत्क्षण गोणिका ने जल अपर्ण करते हुए अंजुलि में रेंगते हुए एक नन्हे प्राणी को पाया; वह तब और भी आर्श्चयचकित थी, जब वह नन्हा प्राणी मनुष्य का रूप धारण किया। जो भगवान शिव से प्राप्त वरदान के कारण हुआ था। इस प्रकार गोणिका को सूर्य और शिव के आशिर्वाद से योग्य पुत्र और उत्तराधिकारी की इच्छा पूर्ण हुई। इन्होंने बीस वर्ष की उम्र में लोलुपा नामक स्त्री से ब्याह रचाया। उनके पुत्र नागपुत्र थे।
योग गुरू पतंजलि ने योग की शिक्षा अपनी गुरू और माता गोणिका से तथा उसके परम् गुरू हिरण्यग्राभा से प्राप्त किया। उन्होंने सांख्य, वेद, उपनिषद्, कश्मीर शैव, ब्रह्मण धर्म, जैन धर्म और बौध्द धर्मकी भी शिक्षा प्राप्त की। पतंजलि महासर्प अनंत के अवतार थे , अर्थात जो कभी समाप्त न हो।
पतंजलि एक महान नर्तक थे, वे भारतीय नर्तकों द्वारा उनके संरक्षक के रूप में पूजनीय हैं। संदेहास्पद स्थिति यहाँ उत्पन्न होती है कि क्या नर्तक पतंजलि वही पतंजलि हैं जिन्होंने प्रसिध्द योग -सूत्र की रचना की थी? योग -सूत्र के उपरांत उनकी प्रसिध्द रचना थी महान संस्कृत व्याकरण “अष्टाध्यायी” को आधार बनाकर उसके ऊपर टिप्पणी करना उनसे संबंधित साक्ष्यों को और अधिक विवाद के घेरे में डालती है। संस्कृत व्याकरण्ा अष्टाध्यायी को आधार बनाकर पतंजलि ने संस्कृत व्याकरण “महाभाष्य” (Great Commentary) प्रस्तुत की। आयुर्वेदिक औषधियों के ऊपर भी इनकी अनेक रचनाएँ उपलब्ध थीं परंतु इसे विद्वानों द्वारा पूर्णत: स्वीकृत और स्थापित नहीं किया गया । इसी प्रकार यह भी विवाद का विषय रहा है कि क्या संस्कृत व्याकरण महाभाष्य के रचयिता वही पतंजलि हैं जिन्होंने योग -सूत्र को स्थापित किया था, अथवा कोई अन्य पतंजलि है? यहाँ योग -सूत्र और महाभाष्य के दर्शन में एक विरोध की व्याप्ति है।
अत: ऐसा माना जाता है कि अलग-अलग पतंजलि एक प्रसिध्द पहचान को प्राप्त करने हेतु अपने नाम और कार्य को इससे जोड़ते चले गए, जो किसी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति के संघर्ष के संकलन से प्राप्त किया गया था।
योग -सूत्र का रचना- काल संभवत: 200 ईसा पूर्व था। पतंजलि अपने कार्य के कारण योग के जनक के रूप में प्रसिध्द हैं। योग -सूत्र, योग का प्रबंध है; जिसका निमार्ण सांख्य के अनुशासन और हिंदू धर्मग्रंथ भगवत् गीता पर किया गया है। योग वह विज्ञान है जो ध्यान को एकत्र (केन्द्रित) करता है। यह पुराण, वेद तथा उपनिषद् में भी व्याख्यायित है। निश्चय ही यह आज भी यह एक महान कार्य है जो हिंदू धर्मग्रंथ में जीवित है; योग व्यवस्था के आधार पर जिसे राज योग के नाम से जाना जाता है। पतंतलि का योग हिंदुओं के छ: दर्शन में एक है, पूर्व संदर्भ के रूप में जो संदर्भ प्राप्त है , उसमे प्रसिध्द योग अष्टांग योग का विवरण दिया गया है, उसके आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारण, ध्यान और समाधि।
पतंजलि का महाभाष्य (Great Commentry) ,पाणिनि के तीन प्रसिध्द संस्कृत व्याकरणों में से एक बहुचर्चित व्याकरण अष्टाध्यायी पर आधारित संस्कृत व्याकरण है, इसके सहयोग से वैयाकरण पतंजलि ने भारतीय भाषाविज्ञान को एक नया रूप प्रदान किया। उन्होंने जिस व्यवस्था की स्थापना की उसमे अधिक विस्तृत में शिक्षा (ध्वनिविज्ञान, जिसमें उच्चारण के ढंग , बलाघात भी संकलित है।) और व्याकरण (रूपविज्ञान) को समझाया गया है। वाक्यविज्ञान पर संक्षिप्त प्रकाश डाला गया है परंतु निरूक्त (व्युत्पतिविज्ञान ,Etymology) पर विस्तृत चर्चा की गयी हैऔर यह उत्पतिशास्त्र प्राकृतिक रूप से शब्दार्थ की व्याख्या करता है। विद्वानों के अनुसार उनका कार्य पाणिनि का प्रतिवाद था, जिसके सूत्रों को अर्थपूर्ण रूप से विस्तार प्रदान किया गया है। उन्होंने कात्यायन पर भी आक्रमण किया जो किंचिंत ही कठोरपूर्ण था,परंतु पतंजलि का मुख्य योगदान उनके द्वारा व्याकरण के सिध्दांतों को संशोधित करते हुए उन्हें दृढ़तापूर्वक प्रतिपादित करने में है। पतंजलि अपने योग प्रबंध में विभिन्न विचारों का प्रतिवाद करते हैं जो कि संख्य अथवा योग के मुख्यधारा में नहीं है। कुशल जीवनी लेखक, विशेषज्ञ, विद्वान कोफी बुसिया ( Kofi Busia ) के अनुसार वे स्वीकार करते थे कि सम्मान या अपने बारे में निर्मित धारणा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है, सूक्ष्म शरीर ( लिंग शरीर ) स्थाई रूप से इसका ध्यान नहीं रखता। वे आगे कहते हैं कि इसके द्वारा बाह्य तत्व पर प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रण रखा जा सकता है।यह पारंपरिक सांख्य और योग के अनुसार नहीं जुड़ा है।
स्पष्टत: पतंजलि वास्तव में एक वास्तविक चिंतक और विचारक थे। उन्हें योग का सच्चा ज्ञान था न कि वे सिर्फ उसके संकलनकर्ता मात्र थे। उन्होंने ना तो कभी किसी अन्य के द्वारा कहे हुए कथन को कहा और न ही किसी दूसरे के कथन को स्पष्ट करने का प्रयास किया। उन्होंने किसी दूसरे का खंडन भी नहीं किया । विश्वसनीयता हेतु उनकी प्रतिभा योग दर्शन के तर्क में अनेक पंक्तियों को समाहित करती है। इसका संदर्भ वेद, उपनिषद् के कुछ काल खंडो में प्राप्त होता है। उन्होंने धूमिल और अस्पष्ट तत्व को स्पष्ट किया और जो निराकार था उसे यर्थाथ बनाया। बहुप्रसिध्द योग संरक्षक बी. के. एस. लिएनगर ¼ B.K.S. Lyegar)का मानना है कि इन्हीं तत्वों से वर्तमान शिक्षकों और अभ्यासकर्ताओं को आज भी प्ररेणा मिलती है।
कुछ अनुवादकों के अनुसार वे एक शुष्क प्रयोगिक, विचारार्थक प्रस्तुतकर्ता है परंतु कुछ अन्य विचारकों के अनुसार वह एक सहानुभूतिशील, मानवीय गुणों से युक्त, विनोदपूर्ण साथी तथा आत्मिक निर्देशक हैं।
वास्तव में वे और उनके योग के व्यवहारिक सारांश तत्व सम्मानीय और महान थे। वे योग विज्ञान में किसी व्यक्ति विशेष के ध्यान को केन्द्रित करने वाला तत्व (योग) के परिचायक अथवा महान सूत्रधार थे।

संदर्भ :
:Quotes – of – wisdom .euA Patanjali- Biography of Patanjali on Quotes of Wisdom

भर्तृहरि और उनका भाषा-चितंन

स्रोत- प्रयास (भाषा प्रौद्योगिकी विभाग का पहला ब्लॉग)

र्तृहरि का व्यक्तित्व युगांतरकारी था। वह परम योगीराजवेदों के अप्रतिम ज्ञाताअग्रणी कविमहावैयाकरण और परम पदवाक्यप्रमाणज्ञ भी थे। उनका स्त्रोत नाथपंथियों की परंपरा रही हो या बौद्ध साधकों की परंपरा। पश्चिम में प्रमाणिक समझा जाने वाला चीनी यात्री इत्सिंग ही एकमात्र ऐसा विदेशी इतिहासकार हैजिसने भर्तृहरि का उल्लेख किंचित विस्तार से दिया है। किंतु यह परिचय स्वत: किवदंतियों एवं जनश्रुतियों पर आधारित है। वैयाकरणों के वक्तव्यों और ग्रथों के अतिरिक्त भर्तृहरि के इस वैयाकरण रूप का परिचय हमें उनके सम्बद इत्सिंग की उक्ति से ही मिलता है। जहां तक उनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण कृतियां ''महाभाष्यटीका एवं वाक्यपदीय'' का संबंध है। परंतु भर्तृहरि के संबंध में इत्सिंग का शेष वक्तव किंवदतियों एवं जनश्रुतियों पर आधारित है। उनके कथानुसार पूर्वोक्त दोनों स्त्रोतों से उपलब्ध तथ्य उन्हें स्वीकार थे और बौध्द परंपरा में गृहस्थ और संन्यास के बीच आवागमन की छूट दी है। इसीलिए यह वक्तव उन्हें बौध्द सिध्द करने का पर्याप्त आधार माना जा सकता है। इसके आधार पर भर्तृहरि का जीवनकाल 600 से 650 ईस्वी के आसपास का माना जा सकता है। महावैयाकरण भर्तृहरि का काल ''कोशिका'' की रचना सातवीं शती ई. से पूर्व ही होना चाहिए। अत: पांचवीं शती के आरंभ से लेकर छठी शती के आरंभ के बीच उनका काल रखना अधिक उचित है।
भर्तृहरि की कृतियां:-
श्री युधिष्ठिर मीमांसक ने विविध प्राचीन उल्लेखों के आधार पर निम्न नौ कृतियां बताई हैं।-
महाभाष्यटीका, वाक्यपदीय, वाक्यपदीय के प्रथम दो कांडों पर स्वोपज्ञा वृत्ति, शतकत्रय-नीति श्रृंगार एवं वैराग्य, मीमांसासूत्रवृत्ति, वेदांतसूत्रवृत्ति,शब्द धातुसमीक्षा, भागवृत्ति, भर्तृहाव्य
इनमें आठवें ग्रंथ के उनके द्वारा रचित न होने का कारण यह है कि न तो इसकी भाषा ही भर्तृहरि की प्रकृति के अनुकूल एवं सरल है और न ही इसमें व्यक्त बहुत से समाधान भर्तृहरि के महाभाष्यटीकोक्त एवं वाक्यपदीयोक्त मतों से मिलता है। शेष सातों रचनों में से प्रथम चार तो किसी न किसी रूप में उपलब्ध हैंजबकि संख्या से तक की पुस्तकों का उनके नाम से केवल उल्लेख मात्र मिलता है।
''वाक्यपदीय'' तीन कांडों में निबध्द रचना है। पूर्वोक्त टीका में भर्तृहरि महाभाष्य की उक्तियों पर ही टिप्पणी कर रहे थेअत: उन्हें अपने मतव्यों को न तो व्यक्त करने का अवकाश था और न ऐसा करना उचित ही था। इसीलिए भर्तृहरि ने उस प्रसंग में व्यक्त किए गए अपने संपूर्ण भाषाचितंन एवं व्याकरण दर्शन को स्वतंत्र रूप से पुनर्गठित करने पूर्ण स्वतंत्रता के साथ ''वाक्यपदीय के तीन कांडों में निबद्ध किया है।
महाभाष्यटीका:-
कैयट के ''महाभाष्यप्रदीप'' के अध्ययन एवं विश्लेषण से पता चलता है कि उसे न केवल ''वाक्यपदीय'' एवं ''महाभाष्यटीका'' दोनों का पूरा परिचय था,बल्कि उसने उन दोनों का पूरा लाभ भी उठाया है। तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि कैयट एवं महाभाष्य के अन्य अनेक परवर्ती टीकाकारों ने भर्तृहरि की ''महाभाष्यटीका'' का अनुकरण संक्षेप मात्र ही किया है। स्वयं भर्तृहरि अपने वाक्यपदीय में 'भाष्यकी ओर बार बार इंगित करते हैं। वे सब बातें महाभाष्य में उल्लिखित नहीं मिलती। यदि भर्तृहरि की टीका पूर्णत: उपलब्ध होतीतब उनका तथ्यांकन हो सकता था। दूसरी ओरयदि उनकी टीका का विश्लेषण किया जायेतो वाक्यपदीय का कोई भी अध्येता यह पाएगा कि पदे-पदे वाक्यपदीय के ही वक्तव्य गद्यात्मक ढंग से कहे गये हैं। यह अवश्य है कि कहीं-कहीं शब्दावली वाक्यपदीय में प्रयुक्त शब्दावली से भिन्न हैं। पूर्ण विश्लेषण करने पर विद्वानों ने पाया है कि टीका की रचना निश्चय ही भर्तृहरि पहले ही कर चुके थे।
वाक्यपदीय:-
पिछले दो-तीन दशको में ही इस अकेली कृति ने विश्व के भाषाविदों का जितना ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है, उतना किसी अन्य कृति ने नहीं। इसलिए इसे सवाधिक प्रामाणिक माना जाता है। इस पर भी क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि इसी शती के पाचवें दशक कके पूर्वार्ध्द तक इस कृति का एक भी पूर्ण एवं संपादित संस्करण उपलब्ध नहीं था जो कुछ था भी न मिलता था। पंचम दशक के उत्तरार्ध्द में इसके प्रथम कांड ब्रह्मकांड का पूर्ण एवं प्रामाणिक प्रथम संस्करण लाहौर से संपादित हुआ। भर्तृहरि के वाक्यपदीय को तीन काडों में विभाजित किया गया है।
प्रथम कांड: आगम या ब्रह्मकांड
द्वितीय कांड: वाक्यकांड
तृतीय कांड: व्याकरण का दर्शन
भाषाविज्ञान संबंधी योगदान :-
भर्तृहरि ने व्याकरण और भाषाविज्ञान दोनों ही क्षेत्र में अभूतपूर्ण योगदान दिए हैं। त्रिपदी टीका एवं वाक्यपदीय में व्यक्त धारणाओं एवं विवेचन कोव्याकरण संबंधी सामान्य धारणा से पृथक करकेमहाभाष्य की पृष्ठभूमि पर समझने का प्रयास करना चाहिए।
वाक्: अभिव्यक्ति का माध्यम -
भर्तृहरि के अनुसार यदि वाणी का भाषा रूप या भषिक रूप न रहेतो समस्त ज्ञान-विज्ञान ही नहींमानव की समस्त चेतन प्रक्रिया तक अर्थहीन हो जाएगी। 
भाषा की परिभाषा:-
प्रयोक्ता (वक्ता) और ग्रहीता (श्रोता) के बीच अभिप्राय या आदान-प्रदान केवल शब्द के ही माध्यम से होता है। ज्यों ही प्रयोक्ता का बुद्धयर्थ बन जाता है,भाषा या शब्द का कार्य पूरा करता है।
भाषा का ज्ञानार्जन:-
भाषा सीखते समय बालक जो अशुध्द उच्चारण करता हैउसका दर्थ विनिश्चय उसके मूल शब्द के द्वारा किया जाता है।
भाषा:संस्कृत और प्राकृत रूप -
भाषा विकास के संबंध में प्रमुखत: दो मत हैं: ''अनित्यवाद एवं नित्यवाद। नित्यवाद के अनुसार भाषा दैवी या देव प्रदत्त है और उसे जन प्रचलित नए नए प्रयोग के द्वारा व्यतिकीर्ण होता है। अनित्यवाद के अनुसार जनता में प्रचलित होने वाला रूप ही मूल होता है।
साधु-असाधु प्रयोग:-
साधु या व्याकरण सम्मत शब्द वह है जो शिष्ट प्रयोग का विषय हो तथा आगम अर्थात शास्त्रादि में धर्मादि साधन के लिए व्यवहृत होता हो। आगम का अर्थ परंपरा से अविच्छिन्न उपदेश अर्थात श्रुतिस्मृति लक्षण ज्ञान हैं धर्म का विधान उन्ही श्रुतियों में किया है। श्रुति को अकर्तृकअनादि और अविच्छिन्न माना है।
अपभ्रंश या लोकभाषा का महत्व:-
जिस प्रकार श्रुति के अविच्छिन्न होने से उसमें प्रयुक्त शब्द नित्य होते हैंउसी प्रकार अर्थ को वहन करने एवं जन प्रयोग होने के कारण असाधु या अपभ्रंश शब्द भी अव्यवच्छेय होते हैं।
व्याकरण का प्रयोजन और क्षेत्र-
व्याकरण का प्रयोजन किसी नवीन या कृत्रिम भाषा का निर्माण नहीं है,बल्कि जनप्रयोग किसी शिष्ट प्रयोगाकूल शब्दों का साधुत्व विधान है ताकि उन शब्दों का प्रचलन एवं अनुकरण अधिकाधिक एवं उचित रूप में हो सके। आगम और श्रुति के नित्य एवं परंपरागत रूप में अविच्छिन्न होने के कारण साधु प्रयोग भी नित्य एवं विहित प्रयोगों पर आश्रित होता है। इसी कारण व्याकरण भी एक स्मृति ही है। इस व्याकरण का क्षेत्र केवल ''वैखरी'' या उच्चरित वाक् तक ही सीमित नहीं हैप्रत्युत ''मव्यमा और पश्यंती'' भी इसी के क्षेत्र में आती हैं।
शब्दब्रह्म-
मानव अभिव्यक्ति का एकमात्र माध्यम होने के वाक् या शब्द नित्य है,इसकी अर्थभावना से ही जागतिक प्रकिया चल पाती है।
-प्रस्‍तुति
योगेश उमाले
एम.ए., भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग