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Thursday, October 29, 2020
लखनऊ विश्वविद्यालय विज्ञापन 2020
क्या कंप्यूटर के लिए सबसे उपयुक्त भाषा क्या संस्कृत है?
BBC विशेष
कंप्यूटर के लिए सबसे उपयुक्त भाषा क्या संस्कृत है?
- विग्नेश ए
- बीबीसी तमिल
फ़ोन और इंटरनेट तक लोगों की बढ़ती पहुंच के कारण फ़ेक न्यूज़ का बाज़ार भी बहुत बढ़ गया है.
इंटरनेट पर कई मनगढंत और अपुष्ट ख़बरें चलाई जाती हैं और लोग बिना जांचे-परखे इन पर भरोसा भी कर लेते हैं.
ऐसी ही एक फ़ेक न्यूज़ चल रही है कि 'संस्कृत कंप्यूटर के लिए सबसे अनुकूल भाषा है'. हो सकता है कि आपने भी ये ख़बर कई बार देखी हो.
लेकिन, कंप्यूटर में संस्कृत के इस्तेमाल का प्रमाण देना तो दूर इस फ़ेक न्यूज़ में ये भी नहीं बताया गया कि कंप्यूटर कोडिंग या प्रोग्रामिंग में संस्कृत किस तरह उपयुक्त है.
ऐप्लिकेशन सॉफ्टवेयर बनाने के लिए कंप्यूटर की भाषा में कोडिंग का इस्तेमाल होता है इसलिए सोशल मीडिया और इंटरनेट पर ये अपुष्ट दावा किया जा रहा है कि संस्कृति कोडिंग के लिए या कंप्यूटर को कमांड देने के लिए सबसे उपयुक्त भाषा है.
इसमें ना ही ये बताया गया है कि संस्कृत का इस्तेमाल कोडिंग में कैसे करें और ना ही किसी ऐसे सॉफ्टवेयर की जानकारी दी गई है जो संस्कृत की कोडिंग से बना हो.
इसका कारण बहुत साफ है. कोडिंग केवल उन कंप्यूटर भाषाओं में की जा सकती है जिन्हें कंप्यूटर सिस्टम के कमांड पूरी करने से पहले मशीन की भाषा में बदला जा सके.
कहां से आई ये फ़ेक न्यूज़
इस फ़ेक न्यूज़ की शुरुआत वर्ल्ड वाइड वेब की खोज से पहले ही हो गई थी. वर्ल्ड वाइड वेब ने इंटरनेट के इस्तेमाल में तेज़ी ला दी थी.
1985 में नासा के एक रिसर्चर रिक ब्रिग्स ने एआई मैग्ज़ीन में एक रिसर्च पेपर प्रकाशित किया था. इस रिसर्च पेपर का शीर्षक था, "नॉलेज रिप्रेज़ेंटेशन इन संस्कृत एंड आर्टिर्फिशियल लैंग्वेज" यानी संस्कृत और आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस में ज्ञान का प्रतिनिधित्व.
ये रिसर्च पेपर कंप्यूटर से बात करने के लिए प्राकृतिक भाषाओं के इस्तेमाल पर केंद्रित था.
उन्होंने इस रिसर्च पेपर में जो जानकारी दी थी उसके ग़लत मायने निकालकर इस फ़ेक न्यूज़ की शुरुआत की गई कि संस्कृत कंप्यूटर के लिए सबसे उपयुक्त भाषा है.
ब्रिग्स का कहना था, "बड़े स्तर पर ऐसा माना जाता है कि प्राकृतिक भाषा कई विचारों के प्रेषण (ट्रांसमिशन) के लिए सही नहीं है जबकि आर्टिफ़िशियल लैंग्वेज ये काम बहुत सटीक तरीक़े से कर सकती है. पर ऐसा नहीं है. कम से कम संस्कृत एक ऐसी भाषा है जो 1000 सालों तक जीवित बोली जाने वाली भाषा रही और जिसका अपना व्यापक साहित्य है."
रिक ब्रिग्स ने संस्कृति की निरंतरता और प्रचुर साहित्य का उल्लेख किया था.
सर्च इंजन और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से पहले
कंप्यूटर में इनपुट देने के लिए प्राकृतिक भाषा के इस्तेमाल की संभावना की बात करने वाले इस लेख को सर्च इंजन की खोज से पहले लिखा गया था.
उदाहरण के लिए, अगर यूज़र प्राकृतिक भाषा में टाइप करता है कि 'भारतीय प्रधानमंत्री का नाम क्या है?', तो कंप्यूटर इस इनपुट को समझने और उसका जवाब देने में सक्षम हो.
मौजूद सिस्टम में मशीन की भाषा में बनाए गए कोड कंप्यूटर को ये बताते हैं कि यूज़र उससे क्या करने के लिए कहना चाहता है. ये कोड कंप्यूटर की भाषा की वाक्य रचना के अनुसार तैयार किये जाते हैं.
रिसर्च पेपर में भी ब्रिग्स ने संस्कृत के लिए कहा था कि ये 'कम से कम एक' ऐसी भाषा है जिसमें निरंतरता और प्रचुर साहित्य रहा है. ये नहीं कहा था कि इन विशेषताओं वाली 'सिर्फ़ यही एक' भाषा है.
लेकिन, इस रिसर्च पेपर को फ़ेक न्यूज़ और अपुष्ट दावों के लिए गलत तरीक़े से इस्तेमाल किया गया.
ये लेख तब लिखा गया था जब इंसान से प्राकृतिक भाषा में बात करने वाले आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से युक्त रोबोट नहीं बने थे. साथ ही किसी भी इंसानी भाषा में इनपुट लेकर आउटपुट देने वाले सर्च इंजनों की खोज भी नहीं हुई थी.
प्राकृतिक भाषा में कोडिंग
कंप्यूटर कमांड पूरी करने से पहले कोडिंग को मशीन की भाषा में बदलता है. अब अंग्रेज़ी के अलावा कई दूसरी कंप्यूटर भाषाएं भी विकसित कर ली गई हैं.
उदाहरण के लिए तमिल में 'येलिल' एक प्रोग्रामिंग लैंग्वेज है जिसके सभी कीवर्ड्स तमिल में हैं. इस भाषा में बनाए गए कोड भी तमिल कीवर्ड्स में ही होंगे, जैसे अंग्रेज़ी में C, C++ हैं. कई भारतीय और अंतरराष्ट्रीय भाषाओं की अपनी ऐसी प्रोग्रामिंग लैंग्वेज है लेकिन ये बहुत ज़्यादा इस्तेमाल नहीं होतीं.
इसी तह संस्कृत में कीवर्ड्स के ज़रिए भी एक प्रोग्रामिंग लैंग्वेज बनाई जा सकती है. हालांकि, संस्कृत या कोई और विशेष भाषा कंप्यूटर या कोडिंग के लिए सबसे उपयुक्त साबित नहीं हुई है.
Tuesday, October 27, 2020
अनुवाद और भाषा संबंधी नाइडा का चिंतन
नाइडा
का चिंतन (अनुवाद और भाषा)
नाइडा
एक सुप्रसिद्ध अमेरिकी भाषाविद हैं। उन्होंने अनुवाद और वर्णनात्मक भाषाविज्ञान दोनों
ही क्षेत्रों में विस्तृत कार्य किया है। इन क्षेत्रों में उनके प्रमुख योगदान को इस
प्रकार से देख सकते हैं-
(1)
नाइडा का अनुवाद संबंधी चिंतन
नाइडा
पश्चिम के सुप्रसिद्ध अनुवादक हैं। उन्होंने अनेक उत्कृष्ट अनुवाद कार्य किए हैं।
इस कारण अनुवाद चिंतन की परंपरा के अध्ययन-अध्यापन में नाइडा के चिंतन को समझना
आवश्यक हो जाता है। यद्द्यपि नाइडा ने प्रत्यक्षत: कोई अनुवाद सिद्धांत (translation theory) नहीं
दिया है। किंतु अनुवाद की प्रक्रिया में उन्होंने जो अपने अनुभव बताए हैं उन सबका
समेकित रूप एक अनुवाद सिद्धांत की तरह नजर आने लगता है। अनुवाद के संदर्भ में
नाइडा के प्रकाशनों की बात करें तो उनकी एक प्रसिद्ध पुस्तक ‘The Theory and Practice of Translation’ (2009)
प्राप्त होती है, जिसमें Charles R. Taber भी
साथ हैं। इसके अलावा उनकी एक पूर्व में प्रकाशित पुस्तक भी प्राप्त होती है जिसका
नाम ‘Towards a Science of Translating’ (1964) है।
इस पुस्तक में अनुवाद के प्रमुख घटकों (major
components of translation) की चर्चा की गई है।
‘The Theory and Practice of Translation’ में
नाइडा ने अनुवाद के दौरान प्रयुक्त प्रक्रियाओं के समुच्चय का विवेचन किया है।
इसमें मुख्य आधार बाइबिल के अनुवाद को बनाया गया है। अनुवाद संबंधी विभिन्न
अनुभवों के आधार पर इसमें अनुवादक के संदर्भ में कुछ प्राथमिकताओं की बात की गई
है। इस पुस्तक में बताया गया है कि एक से अधिक परिस्थितियाँ उत्पन्न होने पर किसे
प्राथमिकता दी जानी चाहिए और किसे बाद में रखना चाहिए। इस प्रकार की कुछ प्रमुख
प्राथमिकताएँ निम्नलिखित हैं –
(1)
शाब्दिक अनुकूलता के बजाए सांदर्भिक अनुकूलता को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। (contextual consistency should have priority over
verbal consistency.)
(2)
रूपात्मक अनुरूपता के बजाए गतिक समतुल्यता को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। (dynamic equivalence should have priority of formal
correspondence.)
(3) लिपिकीय रूपों के स्थान पर
मौखिकता को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। (orality
has priority over scribal forms.)
(4) पारंपरिक रूप से प्रतिष्ठित
माने जाने वाली अभिव्यक्तियों की जगह प्रयोग में चल रही और स्वीकार्य
अभिव्यक्तियों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। (expressions
that are used by and are acceptable to the intended audience have priority over
expressions that may be traditionally more prestigious.)
अनुवाद
की पारंपरिक पद्धति का मुख्य बल संदेश के रूप (form
of message) पर था। वे अनुवाद में शैलीगत बातों, जैसे – छंद योजना, शब्दों की भूमिका और
व्याकरणिक रचना आदि का विशेष ध्यान रखते थे। नाइडा आदि आधुनिक अनुवादकों ने इसे
उपयुक्त नहीं माना और इसकी जगह नई विधि से अनुवाद के लिए उपर्युक्त विचार व्यक्त
किए। नाइडा ने अनुवाद को अर्थ और शैली के स्तर पर समतुल्यता की दृष्टि से देखने पर
बल दिया है। ..
नाइडा
द्वारा प्रतिपादित अनुवाद के चरण
नाइडा ने अनुवाद के तीन चरणों की बात की है- विश्लेषण, अंतरण और पुनर्गठन। ये सभी अनुवाद सिद्धांतों
में किसी न किसी रूप में माने गए हैं। नाइडा द्वारा बताए गए अनुवाद के चरणों को चित्र
रूप में इस प्रकार से देख सकते हैं-
......................
(2)
नाइडा का वर्णनात्मक भाषाविज्ञान संबंधी चिंतन
नाइडा
द्वारा अनुवाद के अलावा वर्णनात्मक भाषाविज्ञान के विविध पक्षों पर भी कार्य किया
गया है। इस संदर्भ में नाइडा की प्रमुख कृतियों में ‘Handbook
of Descriptive Linguistics: Sections on morphological processes and
phonological processes’ को देखा जा सकता है,
जो 1943 ई. में प्रकाशित हुई थी। उनकी भाषा संबंधी कृतियाँ इस प्रकार देखी जा सकती
हैं-
(1)
Handbook of Descriptive Linguistics: Sections
on morphological processes and phonological processes- 1943, Summer Institute of Linguistics . Glendale ,
California
(2) Morphology:
The Descriptive Analysis of Words- 1946,
University of Michigan Press
(3) Language,
Culture, and Translating- 1993,
Shanghai Foreign Language Education Press
(4) Componential
Analysis of Meaning: An Introduction to Semantic Structures- 1975,
Mouton
(5) An
Outline of Discriptive Syntax- 1951,
Summer Institute of Linguistics.
Monday, October 26, 2020
भाषा और दर्शन (Language and Philosophy)
भाषा और दर्शन के अंतर्गत भाषा संबंधी कुछ प्रश्न
दर्शन एक इतनी बड़ी बड़ा क्षेत्र है कि सभी विषषों
का अंततः दर्शन में ही जाकर समाहार होता है। ज्ञान,
तर्क और अनुमान के माध्यम से हम अपने किसी भी विषय से संबंधित जो सर्वोच्च (ultimate) बात प्रतिपादित करते हैं वह दार्शनिक
बात कहलाती है। इसमें आत्मा-परमात्मा,
सत्य-असत्य, पदार्थ-उर्जा-चेतना आदि सभी के बारे में
सुक्ष्मतम स्तर पर विचार किया जाता है। भाषा के संबंध में भी विभिन्न तत्वों पर
विविध दर्शन परंपराओं में चर्चा की गई है। यह चर्चा भारतीय दर्शन परंपरा और
पाश्चात्य दर्शन परंपरा दोनों में देखी जा सकती है। दर्शन परंपराओं में मुख्यतः ‘शब्द, वाक्य और अर्थ’ के
संदर्भ में ही विविध दृष्टियों से चर्चाएँ की गई हैं। इसके अलावा भाषाई अभिव्यक्ति
कैसे बनती है? वह हमारे मन या आत्मा से कैसे जुड़ी हुई है? इन सब बातों पर भी चर्चा की जाती है। भारतीय दर्शन परंपरा में भाषा
संबंधी जिन प्रश्नों पर विचार किया गया है, उनमें से कुछ
प्रश्न इस प्रकार हैं -
Ø भाषा हमारे विचारों और भावनाओं की अभिव्यक्ति में कितनी समर्थ है?
Ø किसी अर्थ-विशेष के लिए शब्द संकेतक (signifier) काम करता है, किंतु वह शब्द अपने अर्थ को कितना अभिव्यक्त कर पाता है? क्या वह पूरी तरह व्यक्त कर पाता है?
Ø भाषा बाह्य संसार को किस तरह से अभिव्यक्त करती है? क्या वह केवल अस्तित्ववान पदार्थों को ही संकेत कर पाती है, या उससे इतर जिनका अस्तित्व नहीं होता, उनको भी
अभिव्यक्त करती है?
Ø शब्द क्या है? वह पदार्थ है या गुण?
Ø शब्द और ध्वनि में क्या संबंध है? क्या
दोनों भौतिक हैं या एक भौतिक है और दूसरा मानसिक? यदि शब्द
भौतिक है तो वह नश्वर है। अर्थात समय के साथ वह नष्ट हो जाएगा, फिर अर्थ को अनंत काल तक कैसे धारण करने की क्षमता रखता है?
Ø इस सृष्टि की विभिन्न रचनाओं से भाषा कैसे जुड़ी हुई है?
भाषा से संबंधित इस प्रकार की
विभिन्न बातों की दर्शन में या दार्शनिक परंपराओं में अपने-अपने सिद्धांतों के
अनुसार व्याख्या की गई है। भाषा और दर्शन इन्हीं बिंदुओं पर एक-दूसरे से जुड़ते
हैं।
भाषा के विभिन्न इकाइयों के संबंध
में दार्शनिक चिंतन अथवा व्याख्या की आवश्यकताओं को समझना थोड़ा गहन स्तर का कार्य
है। भाषाविज्ञान का प्राथमिक अध्येता इस संदर्भ में आशंकित हो सकता है कि भाषा
संबंधी उपर्युक्त प्रश्नों के लिए दार्शनिक चिंतन की क्या आवश्यकता है? उदाहरण के लिए एक साधारण प्रश्न ले लिया जाए कि ‘शब्द और अर्थ के संबंध की व्याख्या करने में दार्शनिक चिंतन तक जाना पड़ता
है’। अब आप प्रश्न कर सकते हैं कि हम जानते हैं कि सभी
भाषाओं में कुछ शब्द होते हैं और प्रत्येक शब्द के अपने अर्थ होते हैं। उन्हें कोश
से, समाज से ग्रहण किया जा सकता है। इसमें दार्शनिक चिंतन की
आवश्यकता कहाँ महसूस हो रही है? इसे समझने के लिए हमें थोड़ा
गहन स्तर पर विचार करना होगा।
उदाहरण के लिए ‘गाय’ शब्द लेते हैं। यह शब्द तीन ध्वनियों से बना है- ‘ग+
आ+ य’। इस शब्द का एक निश्चित अर्थ है,
जिसे हम बाह्य संसार में एक चौपाए जानवर के रूप में देखते हैं, और गाय शब्द बोलते ही हमें उसका बोध हो जाता है। यदि आपसे कोई कहे कि ‘गाय को चारा खिला दो’ तो आपके आस-पास में या आपसे संबंधित
जो भी गाय नामक प्राणी होगा, से आप उसे चारा डाल देंगे। अब
आप विचार कीजिए कि एक गौशाला है और उसमें 100 गाएँ हैं। अब कोई आपसे कहे कि ‘गाय को चारा खिला दो’ तो उसमें से आपको पूछना पड़ेगा
कि कौन सी गाय को चारा खिलाऊँ, क्योंकि सभी गायों के रूप, आकार, संरचना में सूक्ष्म स्तर पर कुछ ना कुछ भेद
जरूर है, लेकिन गहन स्तर पर उनमें एक विशेष प्रकार का समान
गुण है, जिसे हम गाय कहते हैं। इसलिए गाय शब्द का जो अर्थ है
वह उनमें से कोई गाय विशेष नहीं है, बल्कि उनके गुणों का
किया गया अमूर्तीकरण (abstraction) है| वह मूर्तीकरण कैसे होता है? उसके लिए कौन-सी मानसिक/अभौतिक प्रक्रिया होती है, इन
सब बातों तक पहुंचने के लिए हमें दार्शनिक चिंतन तक जाना पड़ता है। इसी प्रकार से
दर्शन भाषा संबंधी ज्ञान की व्याख्या में सहायक होता है।