https://www.bbc.com/hindi/science/2010/10/101006_new_language_vv से साभार...
अरुणाचल में मिली दुर्लभ भाषा
शोधकर्ताओं ने भारत के सुदूर इलाक़े में एक ऐसी भाषा का पता लगाया है, जिसका वैज्ञानिकों को पता नहीं था.
इस भाषा को कोरो के नाम से जाना जाता है. वैज्ञानिकों का कहना है कि यह अपने भाषा समूह की दूसरी भाषाओं से एकदम अलग है लेकिन इस पर भी विलुप्त होने का ख़तरा मंडरा रहा है.
भाषाविदों के एक दल ने उत्तर-पूर्वी राज्य अरुणाचल प्रदेश में अपने अभियान के दौरान इस भाषा का पता लगाया.
यह दल नेशनल जियोग्राफ़िक की विलुप्त हो रही देशज भाषाओं पर एक विशेष परियोजना 'एंड्योरिंग वॉइसेस' का हिस्सा है.
दुर्लभ भाषा
शोधकर्ता तीन ऐसी भाषाओं की तलाश में थे जो सिर्फ़ एक छोटी से इलाक़े में बोली जाती है.
उन्होंने जब इस तीसरी भाषा को सुना और रिकॉर्ड किया तो उन्हें पता चला कि यह भाषा तो उन्होंने कभी सुनी ही नहीं थी और यह कहीं दर्ज भी नहीं की गई थी.
इस शोधदल के एक सदस्य डॉक्टर डेविड हैरिसन का कहना है, "हमें इस पर बहुत विचार नहीं करना पड़ा कि यह भाषा तो हर दृष्टि से एकदम अलग है."
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भाषाविदों ने इस भाषा के हज़ारों शब्द रिकॉर्ड किए और पाया कि यह भाषा उस इलाक़े में बोली जाने वाली दूसरी भाषाओं से एकदम अलग है.
कोरो भाषा तिब्बतो-बर्मन परिवार की भाषा है, जिसमें कुल मिलाकर 150 भाषाएँ हैं. वैज्ञानिकों का कहना है कि यह भाषा अपने परिवार या भाषा समूह की दूसरी भाषाओं से बिलकुल मेल नहीं खातीं.
यह माना जाता है कि इस समय दुनिया की 6909 भाषाओं में से आधी पर विलुप्त हो जाने का ख़तरा मंडरा रहा है. कोरो भी उनमें से एक है.
उनका कहना है कि कोरो भाषा 800 से 1200 लोग बोलते हैं लेकिन इसे कभी लिखा या दर्ज नहीं किया गया है.
नेशनल जियोग्राफ़िक के ग्रेगरी एंडरसन का कहना है, "हम एक ऐसी भाषा की तलाश में थे जो या तो विलुप्त होने की कगार पर है."
उनका कहना है, "यदि हम इस इलाक़े का दौरा करने में दस साल की देरी कर देते तो संभव था कि हमें इस भाषा का प्रयोग करने वाला एक व्यक्ति भी नहीं मिलता."
यह टीम कोरो भाषा पर अपना शोध जारी रखने के लिए अगले महीने फिर से भारत का दौरा करने वाली है.
शोध दल यह जानने की कोशिश करेगा कि यह भाषा आई कहाँ से और अब तक इसकी जानकारी क्यों नहीं मिल सकी थी.
(https://www.bbc.com/hindi/india-41770178 से साभार)
780 भारतीय भाषाएं 'खोजने' वाला शख्स
सौतिक बिस्वास
बीबीसी संवाददाता
भारतीय भाषाओं की खोज शुरू करते हुए इंग्लिश के पूर्व प्रोफेसर गणेश देवी सोच रहे थे कि उन्हें मर रही और मर चुकी भाषाओं की कब्रगाह तक जाना होगा. इसकी बजाय वो कहते हैं कि उन्होंने आवाज़ों की विविधताओं तक जाना चुना.
गणेश ने इस खोजबीन के दौरान पाया कि हिमाचल प्रदेश में बोली जाने वाली 16 भाषाओं में बर्फ के लिए 200 शब्द हैं. इन शब्दों में से कुछ के वर्णन शायद आपको अजीब या संभव है कि खूबसूरत लगें. जैसे- पानी पर गिरने वाले गुच्छे.
उन्होंने ये पाया कि राजस्थान के खानाबदोश समुदाय में बंज़र परिदृश्य को बयां करने के लिए काफी सारे शब्दों का इस्तेमाल होता है. रेगिस्तान में एकांत को लेकर आदमी और जानवर कैसा महसूस करते हैं, ऐसे अनुभव के लिए भी खानाबदोश समुदाय के पास अलग शब्द हैं.
वो खानाबदोश, जिन्हें एक वक्त में ब्रिटिश शासकों ने अपराधी जनजाति करार दिया था, अब वो घर चलाने के लिए दिल्ली के ट्रैफिक सिग्नलों पर नक्शे बेचते हैं. ये लोगसीक्रेट भाषा बोलते हैं, जिसकी वजह उनके समुदाय से जुड़ा कलंक है.
महाराष्ट्र के पश्चिमी तटों के दर्जनों गांव, जो मुंबई से ज्यादा दूर नहीं हैं. गणेश ने ये पाया कि लोग पुर्तगाली की चलन से बाहर हुई भाषा बोलते हैं. इसी तरह अंडमान निकोबार में रहने वाले लोगों का एक समूह म्यांमार की जातीय भाषा कारेन बोलता है.
गुजरात में रहने वाले कुछ लोग जापानी बोलते हैं. गणेश अपनी इस खोजबीन में पाते हैं कि भारतीय क़रीब 125 विदेशी भाषाओं को अपनी मातृभाषा की तरह बोलते हैं. भाषाविद् डॉक्टर गणेश की भाषाओं को लेकर कोई ट्रेनिंग नहीं हुई है.
मृदुभाषी और अपने इरादों के पक्के डॉक्टर गणेश गुजरात की एक यूनिवर्सिटी में 16 साल तक इंग्लिश पढ़ाने के बाद अब एक दूरवर्ती गांव में आदिवासियों के साथ काम कर रहे हैं. वो इन लोगों की हेल्थकेयर प्रोजेक्ट्स, वित्तीय और बीज बैंकों को लेकर मदद कर रहे हैं.
इससे ज़्यादा ज़रूरी बात ये है कि डॉक्टर गणेश 11 आदिवासी भाषाओं में जर्नल छाप रहे हैं.
भारत की भाषाएं
1961 की जनगणना में भारत में कुल 1652 भाषाएं थीं.
पीपुल्स लिंग्विस्टर सर्वे ऑफ इंडिया ने साल 2010 में 780 भारतीय भाषाओं की गिनती की.
यूनेस्को के मुताबिक, इनमें से 197 भाषाएं लुप्तप्राय और 42 भाषाओं का अस्तित्व लगभग ख़तरनाक स्थिति में हैं.
जिन राज्यों में सबसे ज़्यादा भाषाएं हैं, उनमें अरुणाचल प्रदेश, असम, महाराष्ट्र, गुजरात, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और राजस्थान शामिल हैं.
भारत में 68 लिपियां मौजूद हैं.
देश में 35 भाषाओं में अखबार छपते हैं.
हिंदी को सबसे ज़्यादा 40 फीसदी भारतीय बोलते हैं. बंगाली 8, तेलुगू 7.1, मराठी 6.8 और तमिल 5.9 फीसदी भारतीय बोलते हैं.
सरकार द्वारा संचालित ऑल इंडिया रेडियो 120 भाषाओं में कार्यक्रम प्रसारित करता है.
भारत की संसद में सिर्फ़ चार फ़ीसदी भारतीय भाषाओं का प्रतिनिधित्व किया जाता है.
(स्रोत: भारत की जनगणना 2001, 1962, यूनेस्को, पीपुल्स लिंग्विस्टर सर्वे ऑफ इंडिया 2010 )
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इसी दौर में डॉक्टर गणेश को भाषाओं की ताकत का एहसास हुआ. साल 1998 में उन्होंने स्थानीय भाषा में लिखे अपने 700 जर्नल लेकर धूल भरे आदिवासी गांव का रुख किया. उन्होंने एक टोकरी में इन जर्नल को रखा ताकि अगर गांव से कोई जर्नल लेना चाहे या एक कॉपी के लिए 10 रुपये चुकाने का सामर्थ्य रखता हो तो इन्हें ले सके.
दिन के आखिर में जर्नल से भरी ये टोकरी पूरी तरह से खाली थी. डॉक्टर गणेश जब टोकरी देखते हैं तो उसमें गंदे, पसीजे और कुचले नोट पड़े हुए थे. गांव के आदिवासियों की दिहाड़ी से कमाई रकम का ये वो हिस्सा था, जिसे वो चुकाने का सामर्थ्य रखते थे.
डॉक्टर गणेश कहते हैं, "आदिवासी उस टोकरी में जो देख रहे थे, ये वो पहली सामग्री होगी जो उनकी अपनी भाषा में छपी थी. इन अनपढ़ दिहाड़ी मज़दूरों ने ये पैसा ऐसी चीज़ के लिए चुकाया था, जिसे वो पढ़ भी नहीं सकते. मैंने उस पल भाषा की ताकत और उससे जुड़े गर्व को महसूस किया."
सात साल पहले डॉक्टर गणेश ने अपने महत्वाकांक्षी पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया (PLSI) की शुरुआत की. इसे वो एक ऐसा आंदोलन मानते हैं, जिसका मकसद है भारतीय भाषाओं के लिए राष्ट्रव्यापी सर्वे को चलाना.
60 साल का प्रेमी
कभी न थकने वाले ये 'भाषाई प्रेमी' अब 60 साल के हो चुके हैं. नई भाषाओं की खोज के लिए 18 महीनों में उन्होंने 300 यात्राएँ की. कॉलेजों और यूनिवर्सिटी में लेक्चर देकर डॉक्टर गणेश को जो कमाई होती है, इसे वो इन यात्राओं में खर्च करते हैं. वो दिन और रात में सफर करते हुए कुछ राज्यों में दो बार तक गए हैं.
ऐसा करते हुए वो अपने साथ एक डायरी रखते हैं. डॉक्टर देवी ने 3500 स्कॉलर, शिक्षकों, कार्यकर्ताओं, बस ड्राइवर और खानाबदोशों का वॉलेंटियर्स का नेटवर्क बनाया है. ये लोग देश के दूरवर्ती हिस्सों में जाते हैं. इनमें से एक हैं ओडिशा के एक नौकरशाह के ड्राइवर.
वो हमेशा अपने पास डायरी रखते हैं ताकि यात्राओं के दौरान अगर कोई नया शब्द सुनाई दे तो उसे लिख सकें. ये वॉलेंटियर्स लोगों का इंटरव्यू करते हैं ताकि भाषाओं का इतिहास और भूगोल जान सकें. ये लोग स्थानीय लोगों से उनकी भाषाओं की पहुंच का नक्शा खींचने के लिए भी कहते हैं.
भाषा की पहुंच का नक्शा
डॉक्टर गणेश बताते हैं कि लोग इन नक्शों को फूल, तिकोनों और गोले के आकार में बनाते हैं. ये वो नक्शे होते हैं, जो उन लोगों की कल्पनाओं के हिसाब से उनकी भाषा की पहुंच को बताता है.
2011 में पीएलएसआई ने 780 भाषाओं को दर्ज किया. ये संख्या साल 1961 में सरकार की गिनी हुई 1652 भाषाओं से कम थी. सर्वे से जुड़ी 39 किताबें अब तक छप चुकी हैं. ऐसी कुल 100 किताबों को छापने की योजना है. इसके अलावा 35 हज़ार पन्ने अभी छपने का इंतज़ार कर रहे हैं.
सरकार के सरंक्षण न करने की वजह से भारत ने अपनी सैकड़ों भाषाएं खोई हैं. इसकी वजह इन भाषाओं को बोलने वालों की कमी, स्थानीय भाषाओं में खराब प्राथमिक शिक्षा और आदिवासियों का अपने पुश्तैनी गांवों से पलायन भी है. किसी भी भाषा का मरना सांस्कृतिक त्रासदी है.
भाषाई लोकतंत्र
डॉक्टर गणेश कहते हैं कि भाषाओं को लेकर कई चिंताएं हैं. वो सत्तारूढ़ बीजेपी की पूरे भारत में हिंदी को थोपने की कोशिशों को लेकर चिंता ज़ाहिर करते हैं.
डॉक्टर देवी इसे भाषाई बहुलता पर सीधा हमला बताते हैं.
वो हैरानी ज़ाहिर करते हैं कि भारत में अंध राष्ट्रवाद के नाम पर भाषाई बहुलता के साथ कैसा व्यवहार किया जा रहा है.
महाराष्ट्र के धारवाड़ में अपने घर पर बैठे हुए डॉक्टर गणेश कहते हैं, "हर बार जब एक भाषा मरती है, ये बात मुझे उदास करती है."
वो कहते हैं, "हमारी भाषाएं मजबूती से बची हुई हैं. हम एक सच्चे भाषाई लोकतंत्र हैं. अपने लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए हमें अपनी भाषाओं को ज़िंदा रखना होगा."