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Sunday, March 26, 2017

हिंदी की सहायक क्रियाएँ

    डॉ. अनिल कुमार पाण्डेय,
एसोसिएट प्रोफेसर, भाषा प्रौद्योगिकी
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
वाक्य के अंतर्गत सहायक क्रियाओं से व्याकरणिक सूचनायें यथा- लिंग, वचन, पुरुष, वाच्य, वृत्ति, पक्ष, तथा काल प्राप्त होती हैं। सहायक क्रियाओं के द्वारा व्याकरणिक अर्थ का द्योतन होता है। क्रियापदबंध में मुख्य क्रिया के साथ सहायक क्रिया चिह्नक जुड़े होते हैं जिसके द्वारा व्याकरणिक सूचनायें मिलती हैं। नीचे क्रमशः सहायक क्रियाओं के घटक के रूप में वाच्य, पक्ष, वृत्ति एवं काल पर विचार किया गया है।
वाच्य- (voice)
वाच्य क्रिया के उस रूपांतर को कहते हैं जिससे जाना जाता है कि वाक्य में कर्ता के विषय में विधान किया गया है या कर्म के विषय में अथवा केवल भाव के विषय में। (गुरु कामता प्रसाद-हिंदी व्याकरण 2003:174)
“क्रिया के जो रूप कर्ता के क्रिया द्वारा निर्दिष्ट कार्य से संबंध को द्योतित करते हैं उन्हें वाच्य कहते हैं।” (शर्मा आर्येन्द्र- 1972:76)
“जब किसी क्रिया का वाचक कोई शब्द बोला जाएगा, तो अवश्य ही उसका कुछ रूप होगा। उसके इसी रूप को वाच्य कहते हैं।” (वाजपेयी किशोरी दास हिंदी शब्दानुशासन- 2014:409)
इस प्रकार “हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि वाच्य के अंतर्गत कर्ता, कर्म अथवा भाव के बारे में जो विधान किया गया है, क्रिया के उस रूपांतर को वाच्य कहा गया है।”
अधिकांश भाषाओं में दो ही वाच्य मिलते हैं (यथा: संस्कृत, लैटिन में)। भाववाच्य को बहुत कम भाषाओं में स्वीकार किया गया है। कुछ भाषाओं में वाच्य को रूप की दृष्टि से विश्लेषित किया गया है तो कुछ भाषाओं में अर्थ की दृष्टि से। हिंदी में अर्थ के अनुसार ही वाच्य को निधारित किया गया है।
उदाहरणार्थ- “माँ बच्चे से प्यार करती है।”
उपर्युक्त वाक्य रूप की दृष्टि से भाववाचक में है जबकि अर्थ की दृष्टि से कर्तृवाच्य में।
जब कर्ता के अनुसार क्रिया रूप ग्रहण करती है तब कर्तृवाच्य और कर्म के अनुसार क्रिया होती है तब कर्मवाच्य कहलाता है। कर्मवाच्य हमेशा सकर्मक क्रियाओं द्वारा संभव है जबकि भाववाचक अकर्मक क्रियाओं द्वारा।
डॉ. वी. कृष्णस्वामी अयंगार ने वाच्य व प्रयोग को समानार्थी माना है। संस्कृत में भी वाच्य को ही प्रयोग माना गया है। पं. किशोरीदास वाजपेयी ने वाच्य एवं प्रयोग को भिन्न भिन्न रूपों में परिभाषित किया है।
पं कामता प्रसाद गुरु (1920 हिंदी व्याकरण) ने वाच्य एवं प्रयोग को अलग अलग रूपों में परिभाषित किया है। उनके अनुसार “वाक्य के कर्ता व कर्म के पुरुष, लिंग और वचन के अनुसार क्रिया का जो अन्वय होता है, उसे प्रयोग कहते हैं।” 
1. कर्ता के लिंग वचन और पुरुष के अनुसार जिस क्रिया का रूपांतर होता है, उस क्रिया को कर्तरि प्रयोग कहते हैं जैसे- मैं चलता हूँ, वे आते हैं, वह जाती है।
2. जिस क्रिया के पुरुष लिंग और वचन कर्म के पुरुष, लिंग और वचन के अनुसार होते हैं। उसे कर्मणि प्रयोग कहते हैं, जैसे- मैंने पुस्तक पढ़ी, पुस्तकें पढ़ी गईं, रानी ने पत्र लिखा। 
3. जिस क्रिया के पुरुष, लिंग और वचन कर्ता व कर्म के अनुसार नहीं होते अर्थात जो सदा अन्य पुरुष पुलिंग एकवचन में रहते हैं, उसे भावे प्रयोग कहते हैं जैसे- रानी ने सहेलियों को बुलाया, मुझसे चला नहीं जाता, सिपाहियों को लड़ाई पर भेजा जाएगा। 
इस प्रकार वाच्यप्रयोग अलग-अलग रूपों में दृष्टिगत होते हैं। कहीं कर्तृवाच्य भावेप्रयोग में, कहीं कर्तृवाच्य कर्मणि प्रयोग में और कहीं कर्म वाच्य कर्तरि प्रयोग में। उदाहरण के लिए-
1.   श्याम पेड़ काट रहा है।
2.   श्याम ने पेड़ काटा।
3.   उसने पेड़ को काटा।
उपर्युक्त उदाहरणों में वाक्य (1) कर्तृवाच्य कर्तरि प्रयोग 2) कर्तृवाच्य कर्मणि प्रयोग तथा 3) कर्तृवाच्य भावे प्रयोग के उदाहरण हैं। यहाँ वाच्य भाषा का प्रकार्यात्मक पक्ष है जबकि प्रयोग भाषा का रूपात्मक पक्ष है।
वाच्य के प्रकार-
   वाच्य के तीन प्रकार हैं-
1.      कर्तृवाच्य
2.      कर्मवाच्य
3.      भाववाच्य
1. कर्तृवाच्य- भाषा में कर्तृवाच्य ही प्रचलित होता है। कर्तृवाच्य वह क्रिया है जिसका कर्ता ही उसके व्यापार का करने वाला होता है। कर्तृवाच्य सकर्मक और अकर्मक दोनों प्रकर की क्रियाओं का होता है। इसमें कर्ता के साथ ने’, को अथवा 0 परसर्ग लगते हैं। उदाहरण के लिए-
1.      वे स्कूल जाते हैं।
2.      प्रमोद काम कर रहा है।
3.      रमेश ने रोटी खाई है।
   उपर्युक्त सभी उदाहरण कर्तृवाच्य के हैं।
2. कर्म वाच्य- कर्म वाच्य में क्रिया का करने वाला कर्म होता हैं। सकर्मक क्रिया वाले वाक्य  कर्मवाच्य में होते हैं। इसमें कर्म उद्देश्य होकर अप्रत्यय कर्ता कारक के रूप में प्रयुक्त होता है, साथ ही वचन, पुरुष व लिंग कर्म के अनुसार ही होते हैं। कर्मवाच्य में कर्म की उपस्थिति अनिवार्य होती है। क्रिया का करने वाला (कर्ता) का प्रायः उल्लेख नहीं होता। यदि आवश्यक हो तो से या द्वारा परसर्ग के साथ प्रयुक्त होता है। सकर्मक क्रिया के भूतकालिक कृदंत के आगे -या जा (कर्मवाच्य बोधन) सहायक क्रिया का प्रयोग अनिवार्य होता है।
उदाहरण-
1.      चिट्ठी लिखी जाती है।
2.      पेड़ काटा जाता है।
3.      मुझसे यह काम न होगा। 
3. भाव वाच्य- भाववाच्य अकर्मक क्रियाओं के ही संभव है। दूसरे शब्दों में अकर्मक क्रिया के उस रूप को भाववाच्य कहते हैं जो कर्म वाच्य के सदृश ही होता है। भाववाच्य में भाव प्रधान अर्थ होता है। क्रिया सदैव अन्य पुरुष, पुलिंग, एकवचन में ही रहती है। उदाहरण-
1.      मुझसे चला नहीं जाता।
2.      अब मुझसे बैठा नहीं जाता।
3.      कृष्णा से भागा नहीं जाता।
वृत्ति- (Mood)
      वृत्ति वक्ता की वह मनःस्थिति है, जो वाक्य में क्रिया रूपों द्वारा व्यक्त होती है।
  “जो कार्य या व्यापार लौकिक जगत में घटित न हुई हो, वरन जो वक्ता के मस्तिष्क में इच्छा, संभावना, अनुमान आदि के रूप में निहित हो, उसका संबंध वृत्ति से होता है।”
कुछ वैयाकरणों के वृत्ति संबंधी धारणाएँ द्रष्टव्य हैं-
“Mood (Modes) show differing degree or kinds of reality, desirability or contingency of an event. - C.F. Hocket- A course in Modern Linguistics, Page-237”
क्रिया के उन रूपों को वृत्ति कहते हैं कि जो कार्य घटित होने की रीति को बताते हैं (अर्थात कोई कार्य मात्र घटित होता है यह उसे करने का आदेश दिया जाता है अथवा यह किसी विशेष अवस्था पर निर्भर होता है)– आर्येन्द्र शर्मा 1972:77, भारतीय साहित्य, 17, 03-04 हिंदी विद्यापीठ, आगरा।
“पदार्थ या अंतर्निहित अर्थ को स्पष्ट करने की विश्लेषण पद्धति को वृत्ति कहते हैं। इसके द्वारा वाक्य में छिपी भावना को ढूँढ निकालने का प्रयत्न किया जाता है, साथ ही क्रिया संपन्नता में कई अर्थ जुड़े होते हैं, उनमें वृत्ति भी एक है।” – डॉ. सत्यकाम वर्मा, व्याकरण की दार्शनिक भूमिका, पृष्ठ- 248 से 471
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट हो जाता है कि वृत्ति का संबंध लौकिक जगत से न होकर वक्ता के मस्तिष्क में स्थित संभाव्य, इच्छा, आज्ञा आदि से ज्ञात होता है।
वृत्ति का वर्गीकरण-  वृत्ति का वर्गीकरण विभिन्न वैयाकरणों ने भिन्न भिन्न रूपों में किया है। यहाँ क्रिया पदबंध के अंतर्गत मिलने वाले सभी वृत्तिवाची तत्वों के आधार पर वर्गीकरण किया गया है- 1. आज्ञार्थक 2. संभावनार्थक 3. हेतुहेतुमदभाव 4. सामर्थ्यसूचक 5. बाध्यता सूचक 6. अनुज्ञात्मक 7. भविष्यत।
1. आज्ञार्थक- आज्ञार्थक वाक्य में वृत्ति-प्रत्यय ø, -ओ, -इए, -ना आदि लगते हैं। आज्ञार्थक के अंतर्गत आज्ञा, प्रार्थना, उपदेश आदि भाव निहित होते हैं। यथा-
1.      (तू) यहाँ से जा। (0ø)
2.      (तुम) पानी लाओ। (-ओ)
3.      (आप) इधर आइए। (-इए)
4.      (जरा) वह पुस्तक देना। (-ना)  
  उपर्युक्त उदाहरणों में (तू), (तुम), (आप) आदि अप्रयुक्त होते हुए भी क्रिया के द्वारा ही स्वतः स्पष्ट हो जाता है।
2. संभावनार्थक- संभावनार्थक वाक्य में वृत्ति-प्रत्यय -ए ही मुख्य रूप से प्रयुक्त होता है। इसके द्वारा संभावना, इच्छा, अनुज्ञा आदि भाव का बोध होता है। यथा-
1. शायद उसे जाना पड़े। (-ए) (संभावना)
2. अच्छा होगा यदि वह साथ चले। (-ए) (इच्छा)
3. हम अंदर आ जाएं। (-ए) (अनुज्ञा)
3. हेतुहेतुमदभाव- इसके अंतर्गत वक्ता के मस्तिष्क में स्थित शर्त, इच्छा आदि का भाव निहित होता है। इसमें वृत्ति  प्रत्यय – ता, – या, – ती आदि होते हैं। यथा-
1.              यदि वह कहता तो मैं अवश्य गया होता। (-ता)
2.              यदि वर्षा होती तो धान की खेती अच्छी होती। (ती)
3.              काश! मैं भी आपके साथ चलता। (-ता)
4. सामर्थ्य सूचक- सामर्थ्य सूचक क्रियाओं के अंतर्गत सक-, बन-, पा-, ले- आदि सहायक क्रियाओं का ही मुख्य रूप से प्रयोग होता है। सकना किसी भी सकारात्मक, नकारात्मक अथवा प्रश्नवाचक वाक्यों में प्रयुक्त हो सकता है परंतु पाना एवं बनना पूर्ण सकारात्मक वाक्यों के साथ नहीं प्रयुक्त हो सकता; यथा-
1.      वह चल सकता है। (सक-)
2.      वह बोल नहीं सकता है। (सक-)
3.      क्या वह खा नहीं सकता ? (सक-)
4.      मीना बोल लेती है। (ले-) 
5.      मुझसे चलते नहीं बनता। (बन-)
6.      श्याम बोल नहीं पाता। (पा-)
5. बाध्यता सूचक- बाध्यता सूचक वाक्य के कर्ता पर बाह्य परिस्थितियों का दबाव पड़ता है। उसे न चाहते हुए भी ऐसा करना पड़ता है। इसमें विवशता परिलक्षित होती है। परंतु केवल- -ना पड़, -ना हो, -ते बन आदि वृत्ति प्रत्ययों के लिए ही विवशता होती है। जबकि -ना चाहिए आदि में कर्तव्य या परामर्श के भाव में ही कर्ता कोई कार्य करेगा। उसके समक्ष कोई विवशता अथवा  बाह्य दबाव नहीं होता है, बल्कि उसकी इच्छा पर निर्भर करता है कि वह करे या न करे। यथा-
1.          सुरेश को रात में ही दिल्ली जाना पड़ा। (विवशता)
2.          सुरेश को रात में दिल्ली जाना होगा।  (अप्रत्यक्ष विवशता)
3.          मुझे भी दिल्ली जाना है। (अप्रत्यक्ष विवशता)
4.          सुरेश से इस समय दिल्ली जाते नहीं बनता। (विवशता)
5.          सुरेश को दिल्ली चले जाना चाहिए। (परामर्श)
6.          तुम्हें माँ-बाप की सेवा करनी चाहिए। (कर्त्तव्य)
6. अनुज्ञात्मक- किसी कार्य व्यापार को संपादित करने की अनुमति, अनुनय आदि का भाव वक्ता के मस्तिष्क में निहित होता है। ऐसे वाक्य अनुज्ञात्मक होते हैं। यथा-
1.                      कुलपति महोदय, अनुमति देना चाहें। (अनुनय)
2.                      क्या मैं अन्दर आ सकता हूँ? (प्रार्थना)
3.                      उसे जाने दें। (अनुनय)
4.                      उसे क्षमा कर दें। (अनुनय)
5.                      क्या आप मेरा कार्य कर देंगे? (अनुनय)
7. भविष्यत- इसमें अनिश्चित की स्थिति बनी रहती है। इसमें प्रयुक्त वृत्ति प्रत्यय -एगा, -एगे, -एगी आदि भविष्यत वाची प्रत्यय लगते हैं। इसमें वृत्ति के साथ-साथ काल-तत्व का भी बोध होता है। यथा-
1.      रमेश घर आ जाएगा।
2.      मैं सुबह आ जाऊँगा।
3.      शीला काम करने लगी।
पक्ष (Aspect)- पक्ष एवं काल भाषा में निहित कार्य-व्यापार में काल-बोध के दो आयाम होते हैं। पहला आयाम वह है, जिससे पता चलता है कि समय के धरातल पर कार्य-व्यापार कहाँ घटित हो रहा है। इस स्तर पर काल भूत, भविष्यत, वर्तमान के रूप में अभिव्यक्त होता है। काल-बोध का दूसरा आयाम वह है जो कार्य - व्यापार में आयुक्त काल की अवधि को निर्धारित एवं नियंत्रित करता है। यह स्थितिपरक, आवृति मूलक, सातत्यपरक एवं पूर्णकालिक रूप में होता है।
   पक्ष को अप्रत्यक्ष रूप से काल में ही निहित अथवा समाहित माना जाता रहा है। कामता प्रसाद गुरु ने पक्ष की सत्ता नहीं स्वीकारा है बल्कि इसे काल के ही अंतर्गत रखा है। गुरु के अनुसार "क्रिया के उस रूपांतर को काल कहते हैं जिसमें क्रिया के व्यापार का समय तथा उसकी पूर्ण एवं अपूर्ण अवस्था का बोध होता है।"
पक्ष की अलग सत्ता के संदर्भ में मात्र एक दो दशकों से कार्य आरंभ हुआ। इससे पूर्व किसी भी भाषा में पक्ष को काल के ही एक उपांग के रूप में माना जाता रहा है- पक्ष के संबंध में विभिन्न भाषाविदों के मत द्रष्टव्य हैं—
Hocket (1958:237)
“Aspect have to do, not with the location of an event in time, but with its temporal distribution or contour.”
Sweet-
“Aspect is the contrast of distinctions of time independent of any reference to past, present or future.”
Conri- (1976:3)
“Aspects are different ways of viewing the internal temporal constituency of a situation.”
पक्ष काल-बोध का वह स्तर है जो क्रिया व्यापार में आयुक्त समय विस्तार (कालावधि) के बोध को निर्धारित एवं नियंत्रित करता है (यह काल बोध के उस स्तर से भिन्न है जिससे यह पता चलता है कि उस समय के धरातल पर व्यापार कहाँ घटित हो रहा है, जैसे- वर्तमान, भूत, भविष्यत) - रवीद्र नाथ श्रीवास्तव, (1973:199)
उपर्युक्त मतों को देखने से यह पता चलता है कि  "काल की आंतरिक प्रक्रिया ही पक्ष  है।"
पक्ष के प्रकार-
1. पूर्ण पक्ष   2.अपूर्ण पक्ष
1. पूर्ण पक्ष- पूर्ण पक्ष से क्रिया की पूर्ण स्थिति का बोध होता है। इसमें कार्य-व्यापार को एक समग्र इकाई के रूप में देखा जा सकता है। इसी कारण इसके भेद नहीं बनते हैं।
उदाहरणार्थ- 'वह आया।' 'आया' शब्द में व्यापार के पूर्णता बोध के साथ-साथ यह भी बोध होता है कि आना को एक समग्र घटना के रूप में देखा गया है।  
2.अपूर्ण पक्ष- अपूर्ण पक्ष में कार्य- व्यापार को एक प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है जबकि पूर्ण पक्ष को एक घटना के रूप में।
अपूर्ण पक्ष के उपभेद संभव हैं- जिसके मुख्य रूप से तीन भेद किए जा सकते हैं-
क) सातत्यपरक (-रह) : सातत्य परक पक्ष से किसी कार्य व्यापार के अस्थिर होने का भाव निहित होता है। यथा-
1.      लड़का खेल रहा है।
2.      वह जा रहा है।
ख) नित्यता बोधक- (-त) : इसे आवृति मूलक पक्ष भी कहते हैं। कार्य–व्यापार की आवृति का बोध होता है। जो नित्य होता है। यथा-
1.      सूरज पूरब से निकलता है।
2.      सूरज पश्चिम में अस्त होता है।
3.      वह पढ़ता है।
ग) स्थित्यात्मक : स्थित्यात्मक पक्ष क्रिया रूप के द्वारा व्यक्त न होकर संपूर्ण वाक्य गठन से व्यक्त होता है। इस प्रकार के वाक्यों से अस्तित्व या स्थिति का बोध होता है। जैसे-
1.      राम डॉक्टर है।
2.      सोहन अध्यापक है।
3.      वह पेड़ है।
उपर्युक्त पक्ष को मूल पक्ष कहा गया है। क्योंकि ये ऐसे क्रिया रूपों से व्यक्त होते हैं जो क्रिया के साथ संयुक्त होकर पक्ष की अभिव्यक्ति करते हैं। इनके '-या', '-ता', 'रह-' प्रत्यय हैं।
इसके अलावा कुछ इनके सहायक पक्ष भी होते हैं जो मूलभूत पक्ष चिन्हकों से पूर्व लगते हैं तथा एक विशिष्ट अर्थ देते हैं। मूल पक्ष की भाँति इनका प्रयोग क्रियापदबंध के अंतिम घटक के रूप में या काल चिह्नकों से पूर्व नहीं हो सकता।
सहायक पक्ष:
        सहायक पक्ष हमेशा मूल पक्ष प्रत्ययों से पूर्व ही प्रयुक्त होते हैं। इनका वर्गीकरण निम्न रूपों में किया जा सकता है।
1. अभ्यास द्योतक-
-ता + रह = वह सोता रहता है।
-या + रह = वह सोया रहता है।
-या + कर = वह सोया करता है।
2. वर्धमान द्योतक-
-ता + चल = वह लिखता चलेगा।
-ता + जा = वह लिखता जाएगा।
-ता + आ + रहा = वह लिखता चला आ रहा है।
3. समाप्ति बोधक-
-ø + चुक = वह खा चुका है। वह पी चुका है।
-ø + रख  = उसने खा रखा है। उसने पी रखा है।
4. आरंभ द्योतक-
-ने + लग = वह जाने लगा है।
5. आरंभ पूर्व द्योतक-
-ने + वाला = वह जाने वाला है।
-ने + को  = वह जाने को है।   
-ने + जा + रहा = वह सोने जा रहा है।
काल (Tense)- हिंदी काल व्यवसथा के दो पहलू हैं। एक वह जो लौकिक जगत से संबंध रखता है, जिसे समय कहा गया है। दूसरा वह जिसका संबंध लौकिक जगत से न होकर भाषिक जगत से होता है। लौकिक जगत का समय तीन खंडों में विभक्त है, वर्तमान, भूत, भविष्यत्। तथा भाषिक जगत का काल भी इन्हीं तीन खंडों में विभक्त है। परंतु क्रिया रूप- संरचना तथा अर्थ के आधार पर हिंदी में दो ही काल निर्धारित हो सकते हैं। वर्तमान काल और भूतकाल। भविष्यत को इससे भिन्न माना गया है। भविष्यत् का संबंध वक्ता की मानसिक संकल्पना से है क्योंकि इसका क्रिया- व्यापार अघटित होता है। वक्ता के मानसिक संकल्प को बोध कराता है इसीलिए भविष्यत् को संभावनार्थ एवं हेतुहेतुमदभाव की ही भांति वृत्ति की कोटि में रखा गया  है।
भविष्यत को यदि काल की कोटि में रखें तो उक्त वाक्य यथा- 'वह बैठा होगा।' इसमें संभाव्य वृत्ति का बोध होता है। जबकि गा, गे, गी भविष्यत् चिह्न की दृष्टि से उक्त उदाहरण भविष्यत काल की होनी चाहिए। इसी प्रकार 'वह कल दिल्ली जा रहा है।' वाक्य सातत्य पक्ष का उदाहरण है जबकि अर्थ की दृष्टि से यह भविष्यत काल का कोई स्वतंत्र आयाम है।
काल एवं पक्ष का आर्थी क्षेत्र इतना मिश्रित है कि उन्हें अलग-अलग कर पाना असंभव सा हो जाता है। कभी - कभी इन्हें भ्रमवश एक ही मान लिया जाता है। इसीलिए व्याकरण में काल एवं पक्ष के दोनों क्रिया रूपों को संयुक्त रूप में प्रस्तुत किया गया है।
काल को कई भाषाविदों ने निम्न रूपों में परिभाषित किया है-
"क्रिया के उस रूपांतर को काल कहते हैं जिससे क्रिया के व्यापार का समय तथा उसकी पूर्ण या अपूर्ण अवस्था का बोध होता है। जैसे- मैं जाता हूँ (वर्तमान), मैं जाता था। (भूतकाल), मैं जाऊँगा (भविष्यत् काल)।" - गुरु कामता प्रसाद - हिंदी व्याकरण
"क्रिया के जिन रूपों से कार्य - व्यापार के समय का बोध होता है," उसे काल कहते हैं।
                                               शर्मा आर्येन्द्र (1928:78)
सूरजभान सिंह (हिंदी का वाक्यात्मक व्याकरण 1985:121) ने पक्ष एवं काल के क्रिया रूपों का संयुक्त वर्गीकरण निम्न रूपों में किया है।
1. नित्य वर्तमान - चलता है।
   सातत्य वर्तमान- चल रहा है।
   पूर्ण वर्तमान- चला है।
2. नित्य भूत - चलता था।
   सातत्य भूत - चल रहा था।
   पूर्ण भूत - चला था।
3. पूर्णतावाची - चला।
  अंत में हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि संयुक्त क्रिया के निर्माण में प्रमुख भूमिका सहायक क्रिया की ही होती है। जहाँ मुख्य क्रियाएं कोशीय अर्थ देती हैं, वहीं सहायक क्रियाएं व्याकरणिक अर्थ। दूसरे शब्दों में सहायक क्रियाएँ (काल, पक्ष, वाच्य, वृत्ति आदि के रूप में) व्याकरणिक अर्थ द्योतित करती हैं।


Wednesday, March 15, 2017

आर्थी संजाल (Semantic Network)


यह संकल्पनाओं के बीच संबंधों को व्यक्त या निरूपित करने वाला एक संजाल है जिसे साँचा संजाल’ (frame network) भी कहा जाता है। अँग्रेज़ी में इसे दो रूपों में लिखा जाता है - semantic net और semantic network. यह मुख्यत: प्रतिज्ञप्तिपरक सूचनाओं के संदर्भ में ज्ञान प्रतिरूपण की एक तकनीक है। इसी कारण कुछ विद्वानों द्वारा इसे प्रतिज्ञप्तिपरक संजाल भी कहा जाता है। इनके माध्यम से शब्दार्थों को आर्थी संबंधों के आधार पर एक दूसरे से सह-संबंधित किया जाता है और इस प्रकार से एक बड़ी संरचित इकाई का निर्माण किया जाता है।
यदि इसे ग्राफ के माध्यम से प्रदर्शित करें तो यह विभिन्न नोडों और उन्हें परस्पर सह-संबंधित करने वाले लिंकों के माध्यम से ज्ञान को निरूपित करने की एक तकनीक के रूप में प्राप्त होता है। इसमें नोड वस्तुओं (objects) को प्रदर्शित करते हैं और लिंक एकाधिक नोडों के बीच संबंधों को। प्रत्येक लिंक दिशा-निर्देशित होता है अर्थात् उसकी एक दिशा होती है। साथ ही प्रत्येक लिंक को एक लेबल प्रदान किया जाता है। अत: आर्थी जाल को एक दिशा निर्देशित ग्राफ के रूप में समझा जा सकता है। सामान्यत: चित्रण करते हुए इन्हें समझाने में नोडों को गोले या बॉक्स द्वारा प्रदर्शित किया जाता है और लिंक इनके बीच रेखाओं को खींचकर बनाए जाते हैं। चूंकि आर्थी संजालों में सभी नोड एक दूसरे से मिले हुए होते हैं अत: इन्हें सहचारी संजाल (Associative nets) भी कहा जाता है।
आर्थी संजाल ज्ञान को संरचित करते हुए निरूपित करने की एक तकनीक है। इसके माध्यम से निरूपित ज्ञान में जो नोड और लिंक होते हैं वे सूचनाओं को आरेखीय रूप में प्रस्तुत करते हैं तथा दो संकल्पनाओं के बीच तार्किक संबंध स्थापित करते हैं। एक ग्राफ के माध्यम से हम सूचनाओं को कैसे प्रदर्शित कर सकते हैं, इसे Matthew Huntbach के एक ग्राफ द्वारा देखा जा सकता है-

इस ग्राफ में निम्नलिखित सूचनाएँ संचित हैं
Ø  Tom is a cat.
Ø  Tom caught a bird.
Ø  Tom is owned by John.
Ø  Tom is ginger in colour.
Ø  Cats like cream.
Ø  The cat sat on the mat.
Ø  A cat is a mammal.
Ø  A bird is an animal.
Ø  All mammals are animals.
Ø  Mammals have fur.

ज्ञान के प्रतिरूपण की इस विधि को मानव मस्तिष्क में निरूपित ज्ञान की विधि अधिक करीब माना गया है।