Total Pageviews

Thursday, March 22, 2018

एफ. डी. सस्यूर (1857-1913)

एफ. डी. सस्यूर (1857-1913)

सस्यूर का जन्म 1857 ई. में हुआ। ये जेनेवा विश्वविद्यालय में संस्कृत, भारत यूरोपीय भाषाओं के प्रोफ़ेसर थे। भाषा में इनकी विशेष रुचि थी। इस रूचि का परिचय इन्होंने 21 साल की छोटी उम्र में ही दे दिया था, जब उन्होंने ऐतिहासिक और तुलनात्मक भाषाविज्ञान पर अपना एक लेख प्रकाशित किया। इस लेख में सस्यूर ने तालव्य नियमों की खोज की। सस्यूर भाषाविज्ञान के क्षेत्र में निरंतर सक्रिय रहे। इस दौरान उन्हें महसूस होता था कि भाषा विश्लेषण की अभी भी कोई अच्छी पद्धति विकसित नहीं हो सकी है। इसलिए उन्होंने अपने स्तर पर इस क्षेत्र में चिंतन जारी रखा। 1890 के दशक में वे जिनेवा विश्वविद्यालय में इंडो यूरोपियन भाषाओं का अध्यापन कर रहे थे। इसी दौरान 1906 से 1911 के बीच उन्हें तीन बार सामान्य भाषाविज्ञान के विद्यार्थियों को पढ़ाने का अवसर प्राप्त हुआ। इसमें उन्होंने भाषा विश्लेषण संबंधी अपने मौलिक सिद्धांतों के आधार पर भाषण दिए। 1913 ई. में सस्यूर की मृत्यु हो गई।
सस्यूर की मृत्यु के पश्चात उनके दो शिष्य चार्ल्स बेली और अल्बर्ट सैचेहाये ने उनके विचारों की महत्ता को समझा तथा उनके विद्यार्थियों से नोट्स का संकलन करके उन्हें पुस्तकाकार रूप दिया, जिसे 1916 ई. में Cours de linguistique générale नाम से प्रकाशित किया गया।

इसका 1959 में Wade Baskin द्वारा अंग्रेजी अनुवाद Course in General Linguistics नाम से किया गया।
सस्यूर द्वारा दी गई भाषा संबंधी कुछ महत्वपूर्ण अवधारणाएँ इस प्रकार हैं-
1. पदार्थ (Substance) और रूप (Form) के संदर्भ में भाषा
सस्यूर ने कहा कि किसी भी भाषा के दो पक्ष होते हैं- विचार और ध्वनि। इनमें विचार की सत्ता मानसिक होती है। अर्थात वह संकल्पनात्मक रूप में होता है, और ध्वनि की सत्ता भौतिक होती है। इसे समझाते हुए उन्होंने पदार्थ और रूप को अलग-अलग परिभाषित किया। उनके अनुसार भाषा में ध्वनि पदार्थ है, जिसके माध्यम से भाषा व्यवहार होता है, और भाषा एक रूप है जो अमूर्त होती है।
2. संकेत के संदर्भ में भाषा (Language with Reference to Sign)
सस्यूर ने रूप को संकेत (Sign) का संदर्भ देते हुए भाषा को संकेत व्यवस्था के रूप में परिभाषित किया इसे समझाने के लिए उन्होंने संकेत के दो भाग किए। संकेतक (Signifier) और संकेतित (Signified) इन्हें निम्नलिखित आरेख में देखा जा सकता है-

संकेतक वह है जिसके माध्यम से कोई भी संकल्पना हमारे मन में उभरती है। संकेतित वह है जो संकेतक के माध्यम से बिंब के रूप में हमारे मन-मस्तिष्क में उभरता है। इन दोनों के बीच का संबंध संकेत है।
सस्यूर ने संकेत (Sign) के तीन प्रकार किए-
1.      प्रतिमापरक संकेत (Iconic Sign)
ऐसे संकेत जिनमें संकेतक में संकेतित की छवि निहित होती है ,जैसे- मूर्ति चित्र फोटो आदि।
2.      इंगितपरक संकेत (Indexical Sign)
 ऐसे संकेत जिसमें संकेतक और संकेतित के बीच कार्य कारण संबंध होता है। अर्थात एक के होने पर दूसरे की संभावना बताई जा सकती है, जैसे धुआं देखकर आग बताना, बादल देखकर बारिश की संभावना करना आदि।
3.      वास्तविक संकेत (Sign Proper)
ऐसे संकेत जिनमें संकेतक और संकेतित के बीच कोई सीधा संबंध नहीं होता, बल्कि माना हुआ संबंध होता है। इस दृष्टि से भाषा पर विचार करते हुए सस्यूर ने कहा कि भाषा के सभी संकेत वास्तविक संकेत होते हैं, क्योंकि इनमें संकेतक ध्वनि यादृच्छिक होते हैं, जिनके माध्यम से अर्थ संबंधी संकल्पनाएँ उभरती हैं। किसी संकल्पना को व्यक्त करने वाले ध्वनि समूह और उस संकल्पनात्मक अर्थ में कोई सीधा संबंध नहीं होता। उदाहरण के लिए पानी के अंतर्गत- प, आ, न, ई ध्वनियों में ऐसी कोई बात नहीं है, जिससे पानी की आकृति मस्तिष्क में उभरे। हिंदी भाषियों ने आरंभ में पानी का अर्थ जल (बाह्य संसार में दिखने वाला पानी) मान लिया और हम भी मानते हैं। इसी कारण एक ही संकल्पना के लिए भिन्न-भिन्न भाषाओं में भिन्न-भिन्न शब्द होते हैं।
3. संकेतविज्ञान (Semiotics) के संदर्भ में भाषाविज्ञान
सस्यूर ने बताया कि भाषा संप्रेषण की सबसे अधिक सशक्त व्यवस्था है। संप्रेषण के लिए अन्य प्राणियों द्वारा कुछ अन्य संकेत व्यवस्थाओं का भी प्रयोग किया जाता है, जैसे- मधुमक्खियों की भाषा, मछलियों की संकेत व्यवस्था, चीटियों की संकेत व्यवस्था या मनुष्य द्वारा यातायात में प्रयुक्त संकेत व्यवस्था आदि। सस्यूर ने कहा कि इन सभी के लिए एक व्यापक विज्ञान के रूप में संकेतविज्ञान के रूप में मान सकते हैं। इस प्रकार की सभी संकेत व्यवस्थाओं में भाषा यानी मानव भाषा सबसे अलग और सबसे विकसित है। भाषाविज्ञान का लक्ष्य केवल मानव भाषा का ही अध्ययन करना है। अतः भाषाविज्ञान संकेतविज्ञान का एक अंग या एक शाखा है।
4. भाषा व्यवस्था (langue) और भाषा व्यवहार (parole)
सस्यूर ने लांग और पैरोल नाम से भाषा व्यवस्था और भाषा व्यवहार को अलग-अलग परिभाषित किया। इन्हें हिंदी विद्वानों द्वारा भाषा (लांग) और वाक् (पैरोल) कहा गया है। उन्होंने कहा कि भाषा एक व्यवस्था है जबकि वाक् उसका व्यवहारिक रूप है। भाषा संबंधित भाषा ही समाज के मस्तिष्क में निहित होती है। जबकि वाक् प्रत्येक व्यक्ति द्वारा भाषा का प्रयुक्त रूप है। इसलिए भाषा की सत्ता मानसिक है, जबकि वाक् की सत्ता भौतिक है। भाषा अमूर्त होती है, जबकि वाक् मूर्त होता है, जिसे हम देखते सुनते या समझते हैं।
5. एककालिक (Synchronic) और कालक्रमिक (Diachronic) अध्ययन
सस्यूर के पहले भाषाविज्ञान मूलतः ऐतिहासिक और तुलनात्मक अध्ययन (Historical and Comparative study) पर आधारित था, जिसे हम 'भाषाशास्त्र' (philology) के नाम से भी जानते हैं। सस्यूर ने ऐतिहासिक और एक ही काल बिंदु पर किए जाने वाले भाषा अध्ययन को अलगाते हुए 'एककालिक और कालक्रमिक अध्ययन' की भिन्नता की ओर स्पष्ट संकेत किया। एककालिक अध्ययन से तात्पर्य है- किसी काल बिंदु विशेष पर किसी भाषा के स्वरूप का अध्ययन करना। उदाहरण के लिए 2018 ई. में हिंदी का स्वरूप क्या है? या 1850 ई. में हिंदी का स्वरूप क्या था? इनमें से कोई भी एक अध्ययन एककालिक अध्ययन होगा। कालक्रमिक अध्ययन से तात्पर्य है - विभिन्न काल बिंदुओं पर किसी भाषा के विकासात्मक स्वरूप का अध्ययन। उदाहरण के लिए सन् 1800, 1900, 2000 में हिंदी का स्वरूप कैसे परिवर्तित हुआ? यह अध्ययन कालक्रमिक अध्ययन कहलाएगा। इन्हें अलगाते हुए सस्यूर ने कहा कि भाषा का एककालिक अध्ययन ही भाषाविज्ञान का केंद्रीय विषय है। हमें भाषा के किसी काल बिंदु विशेष पर उपलब्ध स्वरूप का ही अध्ययन करना चाहिए। भाषावैज्ञानिकों को इसी पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इस अवधारणा के बाद से वर्णनात्मक भाषाविज्ञान का उद्भव हुआ और लोगों ने इस दिशा में काम आरंभ किया।
6. विन्यासक्रमी (Syntagmatic) और सहचारक्रमी (Associative/Paradigmatic) संबंध
सस्यूर ने कहा कि भाषा भाषिक इकाइयों के बीच प्राप्त विभिन्न प्रकार के संबंधों पर आधारित होती है। इन संबंधों को दो प्रकार से देखा जा सकता है- विन्यासकर्मी और सहचारक्रमी।
विन्यासक्रमी संबंध शब्दों या पदों, पदबंधों, वाक्यों में आने वाली किसी भी भाषिक इकाई का अपने दोनों ओर की अन्य भाषा इकाइयों के साथ होता है, जैसे-
मोहन घर जाता है।
    इसमें मोहन का घर से, घर का मोहन और जाता से, जाता का घर और है से विन्यास क्रमी संबंध है।
    सहचारक्रमी संबंध इससे अलग होता है। यह वाक्य में किसी प्रकार्य-स्थान पर आ सकने वाले उन सभी संभावित शब्दों के बीच होता है, जो किसी वाक्य-रचना में उसी रूप में आ सकें और वाक्य का अर्थ या स्वरूप प्रभावित न हो। उदाहरण के लिए मोहन घर जाता है वाक्य में मोहन की जगह रमेश, श्याम बच्चा, बूढ़ा, लड़का आदि कोई भी शब्द आ सकता है, तो ये आपस में सहचारक्रमी संबंध में हैं। इसी प्रकार घर की जगह स्कूल, अस्पताल, बाजार, ऑफिस, दुकान, मंदिर आदि शब्द आ सकते हैं, इसलिए ये आपस में सहक्रमी संबंध में हैं। इसी प्रकार जाता की जगह आता, पहुँचता आदि शब्द आ सकते हैं। है की जगह था, होगा आदि शब्द आ सकते हैं। ये सभी आपस में सहक्रमी संबंध में हैं।
इसे उदाहरण सहित समझने के लिए निम्नलिखित लिंक पर जाएँ- 
विन्यासक्रमी और सहचारक्रमी संबंध

Wednesday, March 21, 2018

शोध : व्याख्यान

व्याख्यान
प्रो. उमाशंकर उपाध्याय
21 मार्च 2018
Reflexive - वह बिंदु जहाँ objective और subjective दृष्टियाँ।

शोध प्रविधि की दृष्टि से -

Qualitative- इसके परिणाम वर्णनात्मक होते हैं।
Quantitative- इसके परिणाम आंकिक होते हैं।
Mix approach- जिसमें दोनों को मिलाकर काम करें।
Interdisciplinary research में समेकन (integration) एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है।

Cross disciplinary research
Beyond/trans disciplinary research- ज्ञान एक है। सबकी सीमाओं से बाहर निकलकर शोध किया जाए।

शोध ज्ञान से अज्ञान का शोधन है।
सामाजिक और यहाँ तक कि भौतिक यथार्थ गतिशील हैं। समय के साथ बदलते हैं।
साहित्य पुनरवलोकन
शोध करने से पहले-
कुछ चरण-
1. Extensive study of the discipline
विषय का व्यापक अध्ययन
भाषा विज्ञान में
स्वनि से प्रोक्ति तक
2. Intensive study of the area of the interest
रुचि के क्षेत्र का गहन अध्ययन
3. शोध प्रश्न/ का निर्धारण

4. शोध विषय से संबंधित उपलब्ध साहित्य का अध्ययन
उपलब्ध साहित्य को समीक्षक की दृष्टि से देखना चाहिए कि क्या शोध प्रश्नों का उत्तर उस साहित्य में मिला?
हाँ
नहीं
आंशिक मिला

पुनरवलोकन प्रस्तुति
भूमिका
प्रत्येक कृति के बारे में- सकारात्मक, नकारात्मक पक्षों और gaps का विवरण प्रस्तुत करें।
अंत में निष्कर्ष।

विलियम जोन्स की hypothesis
संस्कृत, ग्रीक और लैटिन एक ही स्रोत से निकली हुई हैं।
बाद में comperative method द्वारा शोध करके सिद्ध किया गया।

विश्लेषण और सामान्यीकरण
इसके बाद-
Prediction- इन परिस्थितियों में ऐसा होगा।

प्राक्कल्पना hypothesis निर्माण
अनुमानित समाधान
एक या एकाधिक हो सकती हैं।
विलियम

Tuesday, March 20, 2018

व्याख्यान : प्रो. उमाशंकर उपाध्याय

व्याख्यान : प्रो. उमाशंकर उपाध्याय
भाषा विज्ञान एवं भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग के सुप्रसिद्ध भाषाविद प्रो. उमाशंकर उपाध्याय के विशेष व्याख्यान के संबंध में
20 मार्च 2018
साहित्यिक पुनरवलोकन
शोध के संदर्भ में संबंधित साहित्य की समीक्षा।
शोध
शब्दों के व्युत्पत्ति अर्थ अवधारणा को व्यक्त करते हैं। शोध शब्द का शुद्ध से उत्पादन हुआ है।
शोध में मिलावट न हो।
शोध नए ज्ञान की खोज है।
शोध के 4 व्यापक संदर्भ-
Exiology मूल्य मीमांसा
Ontology सत्ता मीमांसा
Epistemology ज्ञान मीमांसा
विषय की प्रकृति के अनुकूल शोध।

Empiricism अनुभववाद
अनुभव ही ज्ञान की प्राप्ति का आधार है।
हर अनुभव को वस्तुनिष्ठ रूप से प्रस्तुत करना संभव नहीं है, जैसे- मीठा। कितना?
Cognitism संज्ञानवाद
व्यावहारिक अनुभव मानसिक प्रत्ययों से प्रभावित होते हैं।
स्वनिम
ब्लूमफील्ड - भौतिक
अन्य- मानसिक
अतः यह निर्धारित करना होगा कि किस प्रकार के प्रमाणों से आपका विषय सिद्ध होगा। आपके विषय की प्रकृति कैसी है- अनुभवपरक, मानसिक, या रूपात्मक।
इन सबके निर्धारण के बाद शोध प्रविधि पर विचार करते हैं।
शोध में कई शोध विधियों की आवश्यकता पड़ सकती है, इसलिए research methodology की बात की गई है, research method की नहीं।
Sociolinguistic अध्ययन में देखते हैं कि सामाजिक विभेद भाषा प्रयोग को किस प्रकार प्रभावित करते हैं।
सबसे पहले field अध्ययन, डाटा संकलन और फिर डाटा विश्लेषण करते हैं।
वस्तुनिष्ठता शोध का आधार है।
साहित्य मानव संवेदनाओं की कलात्मक अभिव्यक्ति है।

शोध के प्रकार
दृष्टि के आधार पर-
Subjective
Objective
Reflexive
Discipline के आधार-
Intra disciplinary
Inter disciplinary
Multidisciplinary

Monday, March 19, 2018

भाषा चिंतन की पाश्चात्य परंपरा : आरंभिक विकास


भाषा चिंतन की पाश्चात्य परंपरा : आरंभिक विकास
1.      दार्शनिक चिंतक
पाश्चात्य देशों में भाषा चिंतन हम ग्रीक सभ्यता के समय से देख सकते हैं इसके आरंभिक बीज सुकरात, अरस्तु और प्लेटो जैसे दार्शनिकों के वक्तव्य में प्राप्त होते हैंं। सुकरात और अरस्तु ने शब्द और अर्थ के बीच संबंधों की व्याख्या की, तो प्लेटो ने इस परंपरा को शब्द वर्गों के निर्धारण तक आगे बढ़ाया।
2.      ग्रीक और रोमन व्याकरण परंपरा
इसके पश्चात ग्रीक भाषा के व्याकरण पर काम किया गया, जिसमें थ्रैक्स और दिसकोलस के काम देखे जा सकते हैं। ग्रीक सभ्यता के बाद रोमन सभ्यता का आगमन हुआ रोमन भाषा चिंतकों ने भी ग्रीक परंपरा का ही अनुकरण किया और कोई विशेष काम नहीं किया जिसे अलग कहा जा सकेइसके बाद का समय डार्क एज (Dark Age) कहलाता है। क्योंकि रोमन परंपरा के बाद से 18वीं सदी के आरंभ तक भाषा के क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ।
3.      सर विलियम जोंस और नवजागरण
डार्क एज के बाद नवजागरण का समय आता है इसकी शुरुआत करने वाले विद्वान का नाम है- सर विलियम जोंस ये एक अंग्रेज अधिकारी थे, जो कोलकाता कोर्ट में न्यायाधीश थे इन्हें भाषाओं में बहुत अधिक रुचि थी इन्हें ग्रीक और लैटिन भाषाओं का अच्छा ज्ञान था भारत आकर इन्होंने संस्कृत भाषा का गहन अध्ययन किया इस अध्ययन के पश्चात उनके अंदर इन भाषाओं को लेकर एक अंतर्दृष्टि पैदा हुई, जिसमें उन्होंने संस्कृत, ग्रीक और लैटिन भाषाओं में अद्भुत समानताएँ देखीं। इससे पहले भी कुछ लोगों द्वारा ग्रीक लैटिन संस्कृत भाषाओं का अध्ययन किया गया था और उनके संबंधों की ओर संकेत किया गया था, किंतु विलियम जोंस का अध्ययन अधिक व्यवस्थित है उन्होंने तीनों भाषाओं की तुलना की और इनमें प्राप्त समानताओं की ओर ध्यान आकृष्ट कियासमानताओं की बात करते हुए विलियम जोंस ने यह कहा कि इन भाषाओं के बीच प्राप्त समानता आकस्मिक नहीं है, बल्कि इन संबंधों की तुलना करने से पता चलता है कि ये भाषाएँ किसी समान स्रोत से निकली हुई है उन्होंने इस संबंध में निम्नलिखित वक्तव्य दिया था
“The Sanscrit language, whatever be its antiquity, is of a wonderful structure; more perfect than the Greek, more copious than the Latin, and more exquisitely refined than either, yet bearing to both of them a stronger affinity, both in the roots of verbs and the forms of grammar, than could possibly have been produced by accident; so strong indeed, that no philologer could examine them all three, without believing them to have sprung from some common source, which, perhaps, no longer exists; there is a similar reason, though not quite so forcible, for supposing that both the Gothic and the Celtic, though blended with a very different idiom, had the same origin with the Sanscrit; and the old Persian might be added to the same family.”
यह वक्तव्य सर विलियम जोंस द्वारा कोलकाता में एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना दिवस पर 2 फरवरी 1786 ई. को दिया गया इसमें उन्होंने बताया है कि संस्कृत भाषा ग्रीक से भी अधिक संपन्न, रोमन से भी अधिक विपुल और दोनों से अधिक परिष्कृत प्राप्त होती है, फिर भी इन तीनों भाषाओं में पर्याप्त निकटता देखने को मिलती है इस वक्तव्य ने यूरोपीय भाषा चिंतन के जगत में हलचल उत्पन्न कर दी इससे यूरोपीय विद्वानों ने भाषाओं की तुलना पर काम शुरू कर दिया, इसीलिए इस घटना को ऐतिहासिक और तुलनात्मक भाषाविज्ञान के जन्म की घटना माना जाता है और सर विलियम जोंस को इसका प्रणेता माना जाता है
4.      W. हम्बोल्ट (1767-1835)
हम्बोल्ट एक भाषा दार्शनिक और राजनीतिक विश्लेषक हैं ये जर्मन विद्वान हैं। इन्होंने अपनी बातें बहुत ही सूत्रवत  रूप में प्रस्तुत की हैं ऑटो येस्पर्सन ने हम्बोल्ट के सूत्रों को समझाने का प्रयास किया है उनकी ही तरह कई लोगों ने समझाने का प्रयास किया है, किंतु लोगों ने जितनी बार समझाने का प्रयास किया उतने ही आशय प्राप्त हुए हैं। इससे उन सूत्रों की गूढ़ता का अनुमान लगाया जा सकता है। हम्बोल्ट भाषाओं के तुलनात्मक और ऐतिहासिक अध्ययन को दृष्टि देने वाले आरंभिक विद्वान हैं उन्होंने कहा कि हम संसार को उसी दृष्टि से देखते हैं जिससे भाषा हमें दिखाती है इसे फील्ड सिद्धांत (Field Theory) नाम दिया गयाबाद में लोगों ने इसे थ्योरी ऑफ लिंगविस्टिक रिलेटिविटी नाम दिया यही संकल्पना बाद में सपीर-ह्वोर्फ हाइपोथिसिस के रूप में सामने आई। हम्बोल्ट ने कहा कि भाषा वस्तु नहीं है बल्कि यह एक गतिविधि है यह गतिविधि नियमों द्वारा संचालित होती है यही बात बाद में चॉम्स्की ने भी कही है कि भाषा नियमों द्वारा शासित व्यवहार है
5.रैस्मस रास्क (1787-1832), RASMUS RASK (1787—1832)
रास्क एक डैनिश विद्वान हैं। इन्होंने Grammar of islandic language की रचना की 1814 . में इन्होंने ‘An Investigation into old Norse’ लेख लिखा| यह लेख भाषाओं की तुलना के वैज्ञानिक नियम प्रदान करता हैयदि आलेख अंग्रेजी या जर्मन भाषा में लिखा गया होता तो इसे बहुत ख्याति प्राप्त होती भाषाओं के बीच शब्दों या व्याकरणिक रूपों का आदान-प्रदान होता है इसलिए रास्क ने कहा कि भाषाएँ चाहे जितनी भी मिश्रित हो लेकिन उन भाषाओं की अत्यावश्यक शब्दावली में व्यापक स्तर पर समानताएँ अगर प्राप्त हो रही हैं तो
उन दोनों भाषाओं की ध्वनियों वर्णों में जो अंतर मिलते हैं, उन अंतरों को यदि नियम के आधार पर समझाया जा सके तो वे भाषाएं
समश्रोतीय भाषाएँ (Cognate languages) हैं।
रास्क ने भारत में अवेस्ता की भाषा और भारतीय आर्य भाषाओं में समानताओं की बात की इसी आधार पर बाद में भारत-रानी भाषा परिवार की बात की गई है उन्होंने भारतीय आर्य भाषाओं और द्रविड़ भाषाओं में भिन्नता की ओर भी संकेत किया
6.      याकोब ग्रिम
याकोब ग्रिम पेशे से वकील थे। लेकिन इनकी भाषाओं और लोक साहित्य में बहुत अधिक रुचि थी इन्होंने परी कथाओं (Fairy Tales) का संकलन भी किया है, जिसके लिए इन्हें मुख्य रूप से याद किया जाता है, किंतु भाषा विज्ञान की दुनिया में इन्हें इनके भाषा संबंधी विभिन्न योगदानों के लिए याद किया जाता है इनमें से पहली चीज है- देव भाषा का व्याकरण इन्होंने इस व्याकरण में जर्मन भाषा के ध्वनि परिवर्तन के नियम दिए हैं उस समय जर्मन भाषा को देव भाषा माना जाता था इसके प्रकाशन के बाद ग्रिम को रास्क द्वारा बताए गए नियमों का पता चला और उन नियमों को पढ़ने के बाद उन्होंने अपने ध्वनि परिवर्तन नियमों को संशोधित किया तथा प्रकाशित किया इसी प्रकाशन को बाद में मैक्समूलर आदि विद्वानों द्वारा ग्रिम नियम कहा गया इन नियमों का एक उदाहरण इस प्रकार है-
क त प कालक्रम में ख थ फ में परिवर्तित हो जाते हैं
बाद में फिर इसी प्रकार के परिवर्तन इन ध्वनियों में होते रहते हैं
इन नियमों के प्रतिपादन के बाद नव व्याकरण संप्रदाय का उदय हुआ इस संप्रदाय का उद्देश्य भाषा विज्ञान को एक विज्ञान के रूप में स्थापित करना था इस संप्रदाय ने अवधारणा दी कि भाषा के नियम निरपवाद होते हैं इनके द्वारा कई नई-नई संकल्पनाएँ दी गईं । जिनका तात्कालिक भाषावैज्ञानिकों द्वारा मजाक उड़ाया गया और इन विद्वानों को नौसिखिया या नव व्याकरण (Junggrammatiker /Neo-grammarians) कहा गया
7.      आगस्ट श्लाइखर
आगस्ट श्लाइखर का तुलनात्मक भाषाविज्ञान के क्षेत्र में बहुत बड़ा योगदान है इन्हें कई भाषाओं का ज्ञान था और भाषाओं में तुलनात्मक और ऐतिहासिक दृष्टि से काम करते हुए उन्होंने भाषाओं के तीन वर्ग किए-
योगात्मक भाषाएँ
अश्लिष्ट योगात्मक भाषाएँ
श्लिष्ट योगात्मक भाषाएँ
यही वर्गीकरण बाद में आकृतिमूलक वर्गीकरण के रूप में विकसित हुआ इन्होंने मूल भारोपीय भाषा का पुनर्निर्माण भी किया जिसके अंतर्गत इन्होंने भारोपीय भाषा के स्वर, व्यंजन, धातु, रूप आदि का वर्णन किया है
8.      मैक्समूलर
प्राच्यविद्या को जर्मनी में प्रचारित-प्रसारित करने का श्रेय मैक्समूलर को दिया जाता है इन्होंने भाषिक नियमों की समीक्षा की है भाषा विज्ञान के क्षेत्र में इनका मूल योगदान जर्मनी और यूरोप में भाषा विज्ञान को एक लोकप्रिय विषय के रूप में स्थापित करना रहा है

Saturday, March 17, 2018

संरचनात्मक भाषाविज्ञान: संक्षिप्त परिचय


संरचनात्मक भाषाविज्ञान: संक्षिप्त परिचय
संरचनात्मक भाषाविज्ञान एक विस्तृत शब्द है। इसके अंतर्गत एफ.डी. सस्यूर के बाद भाषाविज्ञान के क्षेत्र में कार्य करने वाले अधिकांश विद्वान आ जाते हैं। किंतु चूँकि लोगों द्वारा अलग-अलग भाषा-विश्लेषण पद्धतियों का विकास भी किया गया है, इसलिए उन्हें छोड़कर केवल भाषा की संरचना पर कार्य करने वाले विद्वानों को इस वर्ग में अलग से रखकर देखा जाता है। इस दृष्टि से मूल काम अमेरिका में हुआ है। अतः उसी का यहाँ पर परिचय दिया जा रहा है। इसकी अमेरिकी परंपरा में बोआज, सपीर, ब्लूमफील्ड, हॉकेट और हैरिस आते हैं, जिनमें से ब्लूमफील्ड और हॉकेट का यहाँ परिचय दिया जा रहा है।
लियोनार्ड ब्लूमफील्ड (Leonard Bloomfield: 1887-1949)

ब्लूमफील्ड आधुनिक भाषाविज्ञान के स्तंभ भाषावैज्ञानिक हैं। आधुनिक भाषाविज्ञान की स्थापना में सस्यूर के बाद इनका नाम बहुत ही आदर के साथ लिया जाता हैआधुनिक भाषाविज्ञान में अध्ययन-विश्लेषण को व्यवस्थित ढाँचा प्रदान करने का श्रेय ब्लूमफील्ड को दिया जाता है। 1933 ई. में प्रकाशित उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘Language’ को भाषाविज्ञान की बाइबिल (मामबर्ग) तक कहा गया है। इस ग्रंथ के माध्यम से उन्होंने भाषाविज्ञान को सचमुच विज्ञान का रूप देने का कार्य किया। अपने प्रकाशन के लगभग 90 वर्ष बाद आज भी इस पुस्तक का महत्व किसी भी दृष्टि से कम नहीं हुआ है। 


इस पुस्तक के अलावा ब्लूमफील्ड ने ‘An introduction to the study of language’ (1914) आदि कई पुस्तकों और आलेखों की भी रचना की है। इनकी भाषा विश्लेषण संबंधी महत्वपूर्ण बातें इस प्रकार हैं-
1.      व्यवहारवादी दृष्टिकोण
ब्लूमफील्ड को व्यवहारवादी भाषावैज्ञानिक कहा गया है। ये भाषा की सत्ता को मानव मस्तिष्क में न मानते हुए सामान्य भाषा व्यवहार में मानते हैं। इन्होंने भाषा को उद्दीपन (stimulus) से उत्पन्न होने वाली औच्चारिक अनुक्रिया (response) कहा है, तथा इसे परीक्षणीय (verifiable) माना है। इस संबंध में इनका जिल और जैक का सुप्रसिद्ध उदाहरण देखा जा सकता है-
भूख लगने पर जिल ने पेड़ पर एक सेब देखा। अतः भूख उद्दीपक के कारण उसे सेब पाने की अनुक्रिया हुई। अब उसके पास दो रास्ते हैं- या तो स्वयं तोड़कर लाए या फिर जैक से तोड़कर लाने के लिए कहे। उसने जैक से सेब लाने को कहा। अतः उसकी अनुक्रिया भाषिक व्यवहार के रूप में अभिव्यक्त हुई। अतः उद्दीपन होने पर दो प्रकार से अनुक्रिया की जा सकती है- कार्य करके या फिर भाषा में अभिव्यक्त करके। अतः किसी उद्दीपक से प्रेरित होकर किया जाने वाला भाषिक व्यवहार (या भाषिक अनुक्रिया) ही भाषा है।
2.      स्वनिम
ब्लूमफील्ड ने स्वनिमों की सत्ता को भी भौतिक माना है। Language में उन्होंने स्वनिम को ‘a minimum unit of distinctive sound features’ (विभेदक ध्वनि-लक्षणों की लघुतम इकाई) के रूप में परिभाषित किया है।
3.      रूपिम और शब्द
रूपिम के संदर्भ में विस्तृत चर्चा करते हुए उन्होंने इसे ‘minimum meaningful unit’ (लघुतम सार्थक इकाई) के रूप में परिभाषित किया और इसके दो वर्ग किए- मुक्त (free) और बद्ध (bound)
शब्द को भाषाविज्ञान में आज भी व्यापक संकल्पना के रूप में देखा जाता है। इस कारण इसे परिभाषित करना बहुत कठिन रहा है। ब्लूमफील्ड ने इसे ‘minimum free form’ (लघुतम मुक्त रूप) कहा है।
4.      वाक्य
वाक्य को ब्लूमफील्ड ने संरचनात्मक दृष्टिकोण से परिभाषित करते हुए कहा है कि वाक्य वह स्वतंत्र भाषिक इकाई है जो व्याकरणिक दृष्टि से किसी बड़ी इकाई का अंग न हो। वाक्य विश्लेषण के लिए उनके द्वारा ‘immediate contituent’ (निकटस्थ अवयव) विश्लेषण पद्धति दी गई, जो बहुत अधिक प्रसिद्ध हुई थी। इस पद्धति में उन्होंने रचनाओं के दो प्रकार माने- ‘endocentric’ (अंतःकेंद्रिक) तथा ‘exocentric’ (बाह्यकेंद्रिक)।
निकटस्थ अवयव विश्लेषण (IC Analysis)
5.      अर्थ
ब्लूमफील्ड ने अर्थ संबंधी अध्ययन की कुछ कठिनाइयों की ओर संकेत करते हुए भाषाविज्ञान को अर्थ के अध्ययन में असमर्थ बताया। इस कारण बाद के संरचनावादियों द्वारा भी अर्थ पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया।
भाषा के संरचनात्मक पक्ष के अलावा ब्लूमफील्ड ने ऐतिहासिक भाषाविज्ञान और भाषा भूगोल जैसे विषयों में भी विचार किया है। उन्होंने संस्कृत भाषा का भी अध्ययन किया था और वे पाणिनी से बहुत प्रभावित थे। अष्टाध्यायी को उन्होंने मानव मेधा (human intelligence) के महानतम स्मारकों में से एक कहा है। वे स्वयं भी ऐसा एक व्याकरण तैयार करना चाहते थे। इस क्रम में उन्होंने मेनोमिनी भाषा (Menomini Language) का व्याकरण भी लिखा है, जो 1962 ई. में प्रकाशित हुआ। कई दृष्टियों से यह एक उच्च कोटि का व्याकरण है।
हॉकेट (C. F. Hockett) 

हॉकेट ने भाषा के स्वनिमिक, रूपिमिक और वाक्य स्तरों पर काम किया और ‘A Manual of Phonology’ (1955) तथा ‘A Course in Modern Linguistics’ (1958) पुस्तकों की रचना की। इस क्रम में 1954 ई. में प्रकाशित उनका एक आलेख ‘Two Models of Grammatical Description’ भी महत्वपूर्ण है, जिसमें सुप्रसिद्ध ‘Item and Arrangement’ (मद एवं विन्यास) तथा ‘Item and Process’ (मद एवं प्रक्रिया) सिद्धांत दिए गए हैं।
Item and Arrangement (मद एवं विन्यास)
जब किसी भाषिक रचना के निर्माण में एक से अधिक मदों का प्रयोग किया जाता है, तो उन्हें और उनकी व्यवस्था को विश्लेषित करने की पद्धति ‘Item and Arrangement’ (मद एवं विन्यास) है।
उदाहरण-
शब्द             मद-1 +       मद2
भाषाएँ-         भाषा   +       एँ

सड़कों –       सड़क +       ओं
Item and Process (मद एवं प्रक्रिया)
कुछ भाषिक रचनाओं के निर्माण में एक से अधिक मदों के योग के साथ कोई प्रक्रिया भी होती है। ऐसी रचनाओं का विश्लेषण करते हुए उनमें लगे हुए मदों के साथ उनके निर्माण की प्रक्रिया भी बतानी होती है। अतः वह पद्धति जिसमें इस प्रकार की भाषिक रचनाओं में लगे मदों और उनके योग के समय घटित हुई प्रक्रिया को भी बताया जाता है, मद एवं प्रक्रिया है।
उदाहरण-
शब्द             मद-1 +       मद2    प्रक्रिया
कौए    -        कौआ +       ए        (आ>ए)

लड़कों –       लड़का          +       ओं     (आ>ओं) 

संदर्भ-
भोलानाथ तिवारी, आधुनिक भाषाविज्ञान, लिपि प्रकाशन, 1993 
https://ling.yale.edu/history/leonard-bloomfield 
https://alchetron.com/Charles-F-Hockett