प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान : संक्षिप्त परिचय
प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान वह भाषाविज्ञान है जिसमें भाषा के
प्रकार्य (function) को केंद्र रखकर
अध्ययन विश्लेषण किया जाता है। इसका आरंभ प्राग संप्रदाय (Prague School) से हुआ है जिसके संस्थापक मैथेसियस थे। इसकी 1926 ई. में स्थापना हुई जिसमें
अध्यक्ष- मैथेसियस, उपाध्यक्ष रोमन याकोब्सन तथा त्रुबेत्स्कॉय
संस्थापक सदस्य थे। इस संप्रदाय द्वारा दी गई कुछ महत्वपूर्ण संकल्पनाएँ इस प्रकार
हैं-
1. भाषा
प्राग संप्रदाय ने भाषा को एकल व्यवस्था के रूप में देखने के बजाए व्यवस्थाओं
की व्यवस्था के रूप में देखा और कहा कि इसमें एक व्यवस्था केंद्रीय तो दूसरी
परिधीय होती है। भाषा के अलग-अलग स्तरों- ध्वनि स्तर, शब्द स्तर, वाक्य स्तर
आदि पर अलग-अलग व्यवस्थाएँ होती हैं। इन सभी स्तरों पर भाषा की सामष्टिक व्यवस्था
कार्य करती है।
2.
भाषा
और प्रकार्य (Langauge and Function)
प्राग संप्रदाय में भाषा में प्रकार्यात्मक पक्ष पर विशेष बल दिया गया है। इसी
कारण इसे प्रकार्यवादी संप्रदाय भी कहते हैं। इस संप्रदाय में भाषा की संरचना का
विश्लेषण करने के उपरांत यह खोजने का प्रयास किया जाता है कि एक ही भाषा की संरचना
प्रकार्यानुसार कैसे बदलती है।
प्राग संप्रदाय द्वारा वर्णित भाषा के चार प्रमुख प्रकार्य निम्नलिखित हैं-
(क) सांप्रेषणिक प्रकार्य (Communicative
function): यह
प्रकार्य आपसी विचार-विनिमय में प्राप्त होता है। इसके अनुसार भाषा वक्ता से
श्रोता तक कोई सूचना आदि संप्रेषित करने का कार्य करती है।
(ख) अभिव्यक्तिपरक प्रकार्य (Expressive
function) : इसका
संबंध वक्ता द्वारा अपने-आप को अभिव्यक्त करने से है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति की
भाषा में कुछ-न-कुछ परिवर्तन देखा जा सकता है।
(ग) प्रभावपरक प्रकार्य (Conative
function) : इसके
अंतर्गत भाषा का वह रूप आता है, जिसके माध्यम से श्रोता को प्रभावित करके कुछ सोचने, करने या न करने के लिए प्रेरित किया जाता है। अतः इसकी भाषा
उपर्युक्त दोनों से अलग होती है। उदाहरण के लिए इसमें संबोधनपरक वाक्यों की संख्या
अधिक होती है।
(घ) प्रकार्यों की संरचना का प्रकार्य
(Function of the structure of functions) : भाषा के प्रथम तीन प्रकार्य अलग-अलग अवसरों पर होते हैं, किंतु इनसे समन्वित भाषा का भी अपना प्रकार्य होता है।
उदाहरण के लिए – धोती, कुर्ता, टोपी के अलग-अलग प्रकार्य तो हैं ही, किंतु स्वंत्रता आंदोलन के समय में ये समेकित रूप से एक अलग
पहचान बनाते हैं।
3. स्वन और स्वनिम
· प्राग संप्रदाय द्वारा ‘स्वन’ और ‘स्वनिम’ को लेकर अधिक कार्य किया गया है। अपने अध्ययन में उन्होंन
स्वनविज्ञान (phonetics) की जगह
स्वनिमविज्ञान (phonology) पर अधिक बल दिया है। स्वनिमविज्ञान स्वनों (या स्वनिमों) का
अध्ययन किसी भाषा-विशेष में प्रकार्य के आधार करता है।
· प्राग संप्रदाय ने स्वनिमों के व्यावर्तक अभिलक्षणों (distinctive
features) में विभाज्य होने की बात
की।
· किसी भाषा के स्वनिमों के निर्धारण के बाद उनके परस्पर
संबंधों के विश्लेषण हेतु प्राग संप्रदाय ने ‘binary
opposition’ (द्विचर विरोध) पद्धति दी। इसमें घोष-अघोष, कोमल-कठोर आदि युग्मों के आधार पर संबंधों का निर्धारण किया जाता है। जैसे-
क और ख आपस में प्राणत्व द्वारा सहसंबंधित हैं। इनमें ‘क’ अचिह्नित तथा ‘ख’ चिह्नित सदस्य
है।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान ये अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय में आ गए
और वहीं पर इन्होंने अपने सिद्धांत का विकास किया। अतः उनके द्वारा यहाँ पर विकसित
सिद्धांत व पद्धतियाँ प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान की स्वतंत्र उपलब्धियाँ हैं। इस क्रम में उनके द्वारा बताए गए भाषा के 06
प्रकार्य उल्लेखनीय हैं। याकोब्सन के अनुसार संप्रेषण के 06 घटक हैं- वक्ता, श्रोता, संदर्भ, संदेश, कोड और संपर्क। इन्हें एक रेखाचित्र के
माध्यम से देख सकते हैं-
इनके केंद्र में आने की स्थिति में भाषा के प्रकार्य बदल जाते हैं, अतः इनके अलग-अलग केंद्र में आने की स्थिति
में भाषा के बदलने वाले प्रकार्यों को इस प्रकार से देखा जा सकता है-
(क) अभिव्यक्तिपरक
(Expressive) : संवेगात्मक (Emotive)
(ख) निदेशात्मक
(Conative)
(ग) काव्यात्मक (Poetic)
(घ) अधिभाषावैज्ञानिक
(Metalinguistic)
(ङ) संदर्भपरक
(Referential)
(च) संबंधात्मक
(Phatic)
इन्हें http://www.sclcr.com/toolkit/conceptDatabase/viewConcept.php?id=470 पर और संप्रेषणीय ढंग से प्रस्तुत किया गया है-
संदर्भ-
भोलानाथ तिवारी, आधुनिक भाषाविज्ञान, लिपि प्रकाशन, 1993
http://www.sclcr.com/toolkit/conceptDatabase/viewConcept.php?id=470
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