डिसएबिलिटी वाले लोगों की भावनाओं को व्यक्त करता हुआ एक अच्छा लेख... (BBC HINDI)
मेरी डिज़ायर का मेरी डिसएबिलिटी से कोई लेना-देना नहीं है
मैं देख नहीं सकती तो क्या? चाहत के अहसास और इश्क की ज़रूरत तो सबको होती है.
मुझे भी है. उतनी ही शिद्दत से, जैसे आपको. मेरी 'डिज़ायर' का मेरी 'डिसएबिलिटी' से कोई लेना-देना नहीं है.
बस उसे महसूस करने का मेरा अनुभव अलग है.
दरअसल बचपन में मैं आप जैसी ही थी. देख सकती थी. एक छोटे शहर के 'नॉर्मल' स्कूल में पढ़ती थी.
पर तब छोटी थी तो लड़कों के साथ सिर्फ़ दोस्ती का रिश्ता था.
नवीं क्लास में अचानक मेरी आंखों की रौशनी जाने लगी और साल भर में ही पूरी तरह ख़त्म हो गई.
मुझे 'ब्लाइंड' बच्चों के 'स्पेशल' स्कूल में दिल्ली भेज दिया गया. आम लड़कों से कोई मेलजोल नहीं रहा.
चाहत का ब्लाइंड होने से कोई रिश्ता नहीं
फिर कॉलेज में आई. फिर से आम दुनिया में. एक जवान लड़की के सवालों और सपनों के साथ.
मैं आकर्षक तो लगना चाहती थी पर लड़कों से थोड़ी दूरी भी बनाए रखना चाहती थी.
इसका मेरे 'ब्लाइंड' होने से कोई लेनादेना नहीं था. बस, एक लड़की होने के नाते ये चाहत थी.
जो सब लड़कों के लिए 'डिज़ायरेबल' होना चाहती है पर सिर्फ़ एक ख़ास लड़के के लिए 'अवेलेबल'.
लेकिन स्पेशल स्कूल की वजह से आम दुनिया से मिलने-जुलने की आदत और सलीका छूट गया था.
जब देख सकती थी तो लड़कों की आंखों से उनकी नीयत का पता चल जाता था पर अब लड़कों के बीच आत्मविश्वास ही खो जाता था.
कैंटीन, क्लास या लाइब्रेरी तक जाने के लिए मदद लेने में कोफ़्त होती थी, पर वो मजबूरी बन गई थी.
हाथ पकड़ना इतना आम था कि पहली बार हाथ पकड़ने की झिझक या गर्मजोशी का अहसास मायने ही नहीं रखता था. पर चाहत बरक़रार थी.
जान पहचान से शुरुआत
फिर मुझे वो लड़का मिला. या यूं कहूं कि उस लड़के ने मुझे ढूंढ लिया.
वो 'ब्लाइंड' नहीं है पर उसे काफ़ी कम दिखाई देता है. तकनीकी तौर पर वो 'पार्शली-साइटिड' है.
यानी वो मुझे देख सकता है.
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