सपीर (Edward Sapir : 1884-1939) ने अमेरिका में
भाषा के संरचनात्मक अध्ययन की आधारशिला को मजबूत किया। सपीर ने भाषा पर कई दृष्टियों से चिंतन किया और जहाँ-जहाँ आवश्यक लगा, उन्होंने अपने विचार दिया। वोर्फ (Benjamin Lee Whorf: 1897-1941) उन्हीं के शिष्य थे। दोनों ने मिलकर
1929 ई. में भाषिक सापेक्षवाद (Linguistic relativity) का
सिद्धांत दिया। यह सिद्धांत ही बाद में 1950 के दशक में वोर्फ द्वारा इस विषय और
कुछ सामग्री के प्रकाशन के बाद प्रसिद्ध हुआ। इसे ही ‘सपीर-वोर्फ
परिकल्पना’ के नाम से जाना जाता है। इस सिद्धांत के अनुसार
प्रत्येक व्यक्ति अपनी भाषा के माध्यम से ही विश्व को देखता और समझता है। इसका
कारण यह है कि प्रत्येक भाषा की संज्ञानात्मक संरचना (cognitive structure) अलग होती है। इस कारण भाषाएँ अपने बोलने वालों की विचार प्रक्रिया को भी
प्रभावित करती हैं। कुछ विद्वानों द्वारा इस परिकल्पना को Whorfianism भी कहा गया है। इसे विद्वानों द्वारा दो रूपों में देखा जाता है-
(क) सपीर-वोर्फ
परिकल्पना-I (Strong version) : इसके अनुसार भाषा विचार को निर्धारित करती है और भाषायी वर्ग
(linguistic categories) वक्ता के संज्ञानात्मक वर्ग (cognitive
categories) को सीमित करती हैं। अर्थात भाषा में किसी वस्तु को
अभिव्यक्त करने के लिए जितने शब्द होंगे, वह उतने ही प्रकार
से संबंधित वस्तु को संबोधित कर सकेगा। इसे समझने के लिए कहीं बर्फ के लिए 07 शब्द
और कहीं एक ही शब्द होने का उदाहरण दिया जाता है।
(ख) सपीर-वोर्फ
परिकल्पना-II (Weak version) : इसके अनुसार भाषायी वर्ग विचार और निर्णयों को प्रभावित करते
हैं।
अतः परिकल्पना का एक
पक्ष यह है कि भाषा की संरचना हमारी संज्ञानात्मक क्षमता को प्रभावित करती है तो
दूसरा पक्ष यह है कि भाषा की संरचना हमारे बाह्य संसार को देखने की दृष्टि को
निर्धारित करती है। इस संकल्पना में आगे यह भी कहा गया कि विभिन्न भाषाओं की आर्थी
व्यवस्थाएँ (semantic systems) अलग-अलग होती हैं। इस
संकल्पना को बाद में विभिन्न विद्वानों को कुछ आलोचना के साथ आंशिक रूप से स्वीकार
किया गया।
बहुत सार्थक लेख
ReplyDelete