(दूर
शिक्षा,
म.गा.अं.हिं.वि.,वर्धा के एम.ए. हिंदी की पाठ्य सामग्री में)
पाठ्यचर्या का शीर्षक : हिंदी भाषा एवं भाषा-शिक्षण
खंड: 2– हिंदी भाषा-संरचना
इकाई-1 : ध्वनि संरचना
2.0 प्रस्तावना
भाषा में
ध्वनियों के माध्यम से अर्थ का संप्रेषण किया जाता है। उदाहरण के लिए जब हमें
प्यास लगती है तो ‘पानी दीजिए, पानी लाओ, जल चाहिए, पानी कहाँ मिलेगा,
प्यास लगी है’ आदि वाक्यों का प्रयोग करते हुए हम किसी से
पानी माँगते हैं। अतः पानी पीने की इच्छा होना अर्थ तत्व है,
जबकि ये बोले हुए वाक्य ध्वनि तत्व हैं। अतः भाषा दो प्रकार के तत्वों को जोड़ने
वाली व्यवस्था है- ध्वनि तत्व और अर्थ तत्व। इसमें ध्वनि तत्व माध्यम है, जबकि अर्थ तत्व आधार। भाषाविज्ञान में ध्वनियों का अध्ययन ‘ध्वनिविज्ञान’ (Phonetics) में
किया जाता है। यह अध्ययन उच्चारण, संवहन और श्रवण की दृष्टि
भाषा निरपेक्ष रूप से होता है। इसमें किसी भी भाषा की ध्वनियों का विश्लेषण तथा
वर्गीकरण किया जाता है।
प्रत्येक भाषा
की ध्वनियों की अपनी व्यवस्था होती है। उस व्यवस्था के अनुरूप उन ध्वनियों को
वर्गीकृत करते हुए समझा जा सकता है। भाषायी ध्वनियों को अन्य प्रकार की ध्वनियों
से अलग करने के लिए भाषाविज्ञान में ‘स्वन’ (Phone) कहा गया है। जब किसी भाषा की ध्वनियों की
बात की जा रही हो, तो स्पष्ट है कि ‘स्वनों’ की ही बात होती है। भाषायी ध्वनियों को उच्चारण की दृष्टि से उनके
उच्चारण स्थान, उच्चारण प्रयत्न आदि के आधार पर देखा जाता
है। इसी प्रकार संवहन की दृष्टि से ‘ध्वनि तरंग’ के रूप में उनकी स्थिति (आयाम, आवृत्ति आदि) तथा
श्रवण की दृष्टि से ध्वनियों को सुनने के दौरान होने वाले संवेदनों का अध्ययन किया
जाता है। इन तीनों प्रकार के अध्ययनों में उच्चारण की दृष्टि से किया जाने वाला
अध्ययन ही अधिक विकसित हो सका है।
हिंदी भारत की राजभाषा
है। भाषा परिवार की दृष्टि से यह भारोपीय भाषा परिवार की एक आधुनिक भारतीय
आर्यभाषा है। इसका विकास संस्कृत से हुआ है। इसलिए हिंदी की ध्वनियाँ मूलतः
संस्कृत की ध्वनियाँ ही हैं। फिर भी समय के साथ उनके उच्चारण में कुछ परिवर्तन हुआ
है तथा राजनीतिक और समाज-सांस्कृतिक कारणों से जिन भाषाओं का हिंदी समाज से अधिक
संयोग हुआ है, उनका भी कुछ प्रभाव दिखाई पड़ता है। अतः हिंदी की ध्वनि संरचना
का अध्ययन करते हुए इन सभी बातों पर ध्यान देना आवश्यक है।
3.0 हिंदी की
ध्वनि-व्यवस्था
हिंदी की
ध्वनि-व्यवस्था से तात्पर्य है- हिंदी में पाई जाने वाली ध्वनियों, उनके वर्गों तथा उनके वितरण को समझना। ‘ध्वनि’ भाषा की सबसे छोटी इकाई है, इनसे शब्द अथवा पद बनते
हैं और फिर शब्दों से पदबंध और वाक्य। किसी भी ध्वनि का अपना कोई अर्थ नहीं होता, किंतु एक या एक से अधिक ध्वनियाँ मिलकर अर्थपूर्ण इकाइयों अर्थात शब्दों
का निर्माण करती हैं। भाषाविज्ञान में ‘ध्वनि’ और ‘शब्द’ के बीच ‘रूपिम’ (morpheme) नामक इकाई
भी आती है। रूपिम भाषा की लघुतम अर्थवान इकाई है, जिसके
अंतर्गत मूल शब्द और उपसर्ग/प्रत्यय सभी आ जाते हैं। कौन-कौन सी ध्वनियाँ या
किस-किस प्रकार की ध्वनियाँ मिलकर रूपिमों या शब्दों का निर्माण करती हैं? इसे ध्वनि-व्यवस्था के माध्यम से ही अधिक स्पष्ट तरीके से समझ सकते हैं।
किसी भी भाषा
में मूलतः दो प्रकार की ध्वनियाँ होती हैं- स्वर और व्यंजन। हिंदी में भी स्वर और
व्यंजन पाए जाते हैं। स्वरों की संख्या 11 है तो व्यंजनों की संख्या-33 है। हिंदी
की लिपि ‘देवनागरी’ है। इसके माध्यम से ही हिंदी ध्वनियों को
लिखित रूप में प्रदर्शित करते हैं। हिंदी की ध्वनियों को देवनागरी लिपि-चिह्नों के
माध्यम से इस प्रकार से देख सकते हैं-
स्वर:
अ आ *ऑ इ ई उ ऊ
ए एै ओ औ
(नोट- देवनागरी में ‘अ’
के अलावा अन्य स्वर ध्वनियों को मात्राओं (ा *ॅ ी ि ै ु ू े ै ो ौ) के माध्यम से
भी व्यक्त किया जाता है, किंतु यह लिपि से
संबंधित बात है, ध्वनि से नहीं। इससे ध्वनियों की संख्या या
उनके स्वरूप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।)
व्यंजन:
क ख ग घ ङ (*क़ ख़ ग़)
च छ ज झ ञ (*ज़)
ट ठ ड ढ ण (#ड़ ढ़)
त थ द ध न
प फ ब भ म (*फ़)
य र ल व श ष स ह
$ क्ष त्र ज्ञ
(* = आगत, # = नवीन, $ = संयुक्त)
उपर्युक्त
तालिका में देख सकते हैं कि हिंदी की ध्वनि व्यवस्था में मूलतः 11 स्वर हैं।
परंपरागत देवनागरी वर्णमाला में स्वर के अंतर्गत उपर्युक्त के अलावा ‘ऋ,
अं, अः’ को दिया जाता रहा है, किंतु आधुनिक भाषावैज्ञानिक
दृष्टि से इन्हें स्वर नहीं माना जाता। वर्तमान हिंदी में ‘ऋ’ का उच्चारण ‘रि’ जैसा होता है, जैसे- ऋतु,
मृत्यु, ऋण आदि का उच्चारण रितु, म्रित्यु,
रिण होता है। ‘अं’ एक अनुनासिक ध्वनि है जो ‘अँ’ का प्रतिनिधितव करता है। इसे आधुनिक भाषाविज्ञान में ध्वनि-गुण के रूप
में मानते हैं। अतः ‘अं’ को भी स्वर के
अंतर्गत नहीं रखा जा सकता। ‘अः’ (विसर्ग) का उच्चारण अघोष ‘ह’ के रूप में’ होता है। अतः यह
भी स्वर के अंतर्गत नहीं आता।
हिंदी में
मूलतः 33 व्यंजन ही रहे हैं। इनके साथ फारसी से आए 05 अन्य व्यंजनों (क़, ख़, ग़, ज़, फ़) और सम्मिलित दो नई ध्वनियों (ड़, ढ़) को मिला दें
तो इनकी संख्या 39 हो जाती है। देवनागरी वर्णमाला में इनके अलावा ‘क्ष, त्र, ज्ञ’ का समावेश किया जाता है। ये स्वतंत्र रूप से वर्ण तो हैं किंतु
ध्वनि-व्यवस्था की दृष्टि से ये स्वतंत्र ध्वनियाँ न होकर दो-दो ध्वनियों के योग
हैं, जिसे इस प्रकार से देखा जा सकता है-
क्ष =क् + श
त्र = त् + र
ज्ञ = ज् + ञ
अतः ये
ध्वनियाँ नहीं हैं, बल्कि संयुक्त व्यंजन हैं। हिंदी वैयाकरणों
द्वारा इन्हें संयुक्ताक्षर और संयुक्त वर्ण भी कहा गया है। इनमें से ‘क्ष’ का उच्चारण अब ‘छ’ की तरह होता है और ‘ज्ञ’ का ‘ग्य’ की तरह।
ध्वनि और वर्ण
भाषा का
व्यवहार दो रूपों में होता है- वाचिक और लिखित। इनमें वाचिक रूप मूल है तथा लिखित
उसका अनुकरण। वाचिक रूप में व्यवहार करने पर हम अपने मुख-विवर से ध्वनियाँ उत्पन्न
करते हैं, जो सुनाई पड़ने के साथ वायुमंडल में विलीन हो जाती हैं। अतः उन्हें लंबे
समय तक सुरक्षित रखने के लिए प्रत्येक ध्वनि-प्रतीक के लिए कुछ लिखित संकेत विकसित
किए गए, जिन्हें ‘वर्ण’ (letter) नाम दिया गया। वर्णों के समुच्चय को लिपि (script)
कहते हैं। अतः ‘ध्वनि’
भाषा के उच्चरित रूप की सबसे छोटी इकाई है जबकि उसका लिखित प्रतिनिधित्व ‘वर्ण’ है। कुछ वैयाकरणों ने ध्वनि व वर्ण में अभेद
संबंध बताया है। किंतु वास्तविक स्थिति यह है कि वर्ण ध्वनियों का प्रतिनिधित्व तो
करते हैं, किंतु वर्ण और ध्वनि अलग-अलग चीजें हैं। एक ही
ध्वनि के लिए एक से अधिक वर्ण हो सकते हैं, जैसे- अंग्रेजी
में ‘क’ के लिए रोमन लिपि में k,
c, q तीन वर्णों का प्रयोग होता है।
4.0 स्वर :
स्वरूप एवं वर्गीकरण
किसी भाषा की
वे ध्वनियाँ जिनके उच्चारण में मुख-विवर में वायु-प्रवाह बाधित नहीं होता, स्वर हैं। स्वरों का उच्चारण करने पर हवा फेफड़े से सीधे बाहर आती है और
स्वरतंत्रियों में घर्षण करते हुए ध्वनि उत्पन्न करती है,
किंतु उसके अलावा कही भी उस वायु को बाधित या संकुचित नहीं किया जाता। अतः स्वर
ध्वनियों का उच्चारण बिना किसी अवरोध के होता है और उन्हें उच्चरित करने के लिए
किसी अन्य ध्वनि के सहयोग की आवश्यकता नहीं पड़ती, इसीलिए संस्कृत
वैयाकरणों द्वारा स्वर को परिभाषित करते हुए कहा गया है ‘स्वतो राजन्ते
इति स्वराः’ (महाभाष्य -
पतंजलि) अर्थात जो स्वतः उच्चरित हो वह स्वर है। संस्कृत और संस्कृत से निष्पन्न
भाषाओं में तो यह स्थिति पाई जाती है,किंतु विश्व की कुछ
भाषाएँ (दक्षिण अफ्रिका की बान्तू आदि) ऐसी हैं जिनमें स्वर की तरह व्यंजन भी
स्वतंत्र रूप से उच्चरित होते हैं, इसीलिए आधुनिक भाषावैज्ञानिकों द्वारा स्वरों को परिभाषित
करते हुए कहा गया है, ‘‘जिन ध्वनियों के उच्चारण में मुख-विवर में कहीं भी वायु का
कोई अवरोध न हो, उसे स्वर कहते
हैं।’’
स्वरों का
वर्गीकरण
स्वरों का
वर्गीकरण मुख्यतः चार दृष्टियों से किया जा सकता है-
(1) मात्रा के
आधार पर
किसी स्वर के
उच्चारण में जो अवधि लगती है, उसे मात्रा कहते हैं। स्वरों के उच्चारण में
अलग-अलग परिमाण में समय लगता है। इस दृष्टि से हिंदी स्वरों के दो वर्ग किए गए
हैं-
(क) ह्रस्व - जिन स्वरों
के उच्चारण में अपेक्षाकृत कम (एक मात्रा का) समय लगता है, उन्हें ह्रस्व
स्वर कहते हैं, जैसे - अ, इ, उ।
(ख) दीर्घ - जिन स्वरों
के उच्चारण में अपेक्षाकृत अधिक (दो मात्राओं का समय) लगता है, उन्हें दीर्घ
स्वर कहते हैं, जैसे- आ, ई,ऊ, ए,ओ,औ।
ह्रस्व स्वरों
को एकमात्रिक और दीर्घ स्वरों को द्विमात्रिक भी कहा गया है। स्वरों की मात्रा के
आधार पर अर्थभेद होता है, जैसे- कल-काल, खल-खाल
में ‘अ’ (ह्रस्व) की जगह ‘आ’ (दीर्घ) स्वर की प्रयोग से शब्द और अर्थ बदल गए
हैं। संस्कृत व्याकरण में उपर्युक्त दोनों के अलावा ‘प्लुत’ के भी रखा गया है। जिन स्वरों के
उच्चारण में दो से अधिक मात्रा का समय लगता है, उन्हें प्लुत
कहते हैं। हिंदी में ऐसा कोई स्वर प्राप्त नहीं होता। संबोधन में कभी किसी दीर्घ
स्वर का ही प्लुत की तरह लंबा उच्चारण होता है।
(2) जिह्वा की
ऊँचाई के आधार पर
जिह्वा की
ऊँचाई के आधार पर स्वरों के चार वर्ग किए गए हैं-
(क) विवृत - जिन स्वरों
के उच्चारण में जिह्वा पूर्णतः नीचे होती है और मुख-विवर पूरा खुला रहता है, तो विवृत स्वर उच्चरित होते हैं, जैसे- ‘आ’।
(ख) अर्धविवृत – यह वह
अवस्था है जिसमें जिह्वा और मुख-विवर के ऊपरी भाग के बीच विवृत की अपेक्षा कम दूरी
होती है। अर्थात ऐसे स्वरों के उच्चारण में जिह्वा थोड़ा ऊपर उठती है, जैसे- अ,
ऐ और औ ।
(ग) अर्धसंवृत – इसमें
जिह्वा अर्धविवृत की अपेक्षा थोड़ा अधिक किंतु संवृत की अपेक्षा कम ऊपर उठती है।
इससे उच्चरित स्वर अर्ध संवृत कहलाते हैं, जैसे- ए और ओ ।
(घ) संवृत - जिन स्वरों
के उच्चारण में जिह्वा का बहुत अधिक भाग ऊपर उठता है, और वायु
संकुचित होकर बिना किसी रूकावट के बाहर निकलती है, संवृत स्वर कहलाते हैं, जैसे- ई, इ, ऊ, उ ।
(3)
जिह्वा की स्थिति के आधार पर
जिह्वा की
स्थिति के आधार पर स्वरों के तीन भेद किए जाते हैं -
(क) अग्रस्वर - जिन स्वरों का
उच्चारण जिह्वा के अग्रभाग की सहायता से होता है, उन्हें अग्रस्वर कहते हैं, जैसे- इ, ई, ए, ऐ ।
(ख) मध्य स्वर - जिन स्वरों
का उच्चारण जिह्वा के मध्य भाग की सहायता से होता है, उन्हें मध्य स्वर
कहते हैं, जैसे- हिंदी में ‘अ’
मध्य स्वर है।
इसे केंद्रीय स्वर भी कहा गया है।
(ग) पश्चस्वर - जिन स्वरों
का उच्चारण जिह्वा के पश्च भाग की सहायता से होता है, उन्हें पश्च स्वर
कहते हैं, जैसे- ऊ,उ,ओ,औ, आ ।
3. होठों की आकृति
के आधार पर
होठों की आकृति
के आधार पर स्वरों को दो वर्ग हैं -
(क) गोलीय
(वर्तुल) - जिन स्वरों का उच्चारण में होठों को गोलाकार करते हुए
किया जाता है, उन्हें गोलीय
(वर्तुल) स्वर कहते हैं, जैसे- हिंदी में ऊ, उ, ओ, औ, ऑ गोलीय स्वर
हैं।
(ख) अगोलीय
(प्रसृत) - जिन स्वरों के उच्चारण में होठ गोलाकार न होकर स्वाभाविक
रूप में रहते हैं,
उन्हें अगोलीय
(प्रसृत) कहते हैं, जैसे- हिंदी में अ, आ, इ, ई, ए और ऐ अगोलीय
स्वर हैं।
(नोट: कुछ वैयाकरयों ने ‘उदासीन’ और ‘अर्धगोलीय’ जैसे वर्ग भी किए हैं, किंतु मुख्यतः दो वर्ग ही प्रचलित हैं।)
5.0 व्यंजन :
स्वरूप एवं वर्गीकरण
जिन ध्वनियों
के उच्चारण में मुख-विवर में वायु प्रवाह को कहीं-न-कहीं बाधित किया जाता है, उसे व्यंजन
कहते हैं। व्यंजनों का उच्चारण करने पर जब हवा फेफड़े से स्वरतंत्रियों में घर्षण
करते हुए ध्वनि उत्पन्न करते हुए बाहर आती है, तो उसे ऊपर मुख-विवर
में कहीं-न-कहीं बाधित या संकुचित किया जाता है। संस्कृत और संस्कृत से निकली
भाषाओं में व्यंजन ध्वनियों को उच्चरित करने के लिए स्वरों की आवश्यकता पड़ती है, इसीलिए संस्कृत वैयाकरणों द्वारा व्यंजन को परिभाषित करते हुए कहा गया है, ‘‘स्वयं राजन्ते
इति स्वराः अन्वग भवति व्यंजनमिति।” (महाभाष्य- पतंजलि।) (अर्थात् स्वर स्वयं शोभा पाते हैं, जबकि व्यंजन
स्वरों का अनुकरण करते हैं।) इस परिभाषा यह तात्पर्य है कि व्यंजनों का उच्चारण
करते हुए अंत में स्वर आ ही जाते हैं, जैसे- ‘क’ बोलने पर बाद में ‘अ’ आ ही जाता है। इसीलिए व्यंजन ध्वनियों को स्वरों के अलग दिखाने के लिए हल्
चिह्न का प्रयोग किया जाता है। एक पूर्ण ध्वनि ‘क’ को इस प्रकार से व्यक्त करते हैं-
‘क = क् +अ’
अतः ऊपर हिंदी
की ध्वनि-व्यवस्था में प्रत्येक व्यंजन को हल् चिह्न के साथ माना जा सकता है। प्रस्तुति
में सुविधा को ध्यान में रखते हुए हल् चिह्न का प्रयोग नहीं किया गया है। वैसे भी हिंदी
में हल् चिन्हों का प्रयोग अब धीरे-धीरे कम हो रहा है। क्योंकि हल् चिन्हों का
प्रयोग केवल तत्सम शब्दों के साथ ही किया जाता रहा है। क्योंकि हिंदी के सभी अकारांत
शब्द व्यंजनांत होते हैं। इसलिए उन सभी में हल् लगाया जाना चाहिए। किंतु हम ऐसा
नहीं करते।
व्यंजन
ध्वनियों का वर्गीकरण
परंपरागत
वैयाकरणों द्वारा व्यंजन ध्वनियों के निम्नलिखित वर्ग किए गए हैं-
(क) स्पर्श - इसके अंतर्गत
सभी वर्गीय ध्वनियों (क वर्ग से प वर्ग तक
कुल पच्चीस ध्वनियाँ) को रखा गया है।
(ख) अंतस्थ - इसके
अंतर्गत य र ल व आते हैं।
(ग) ऊष्म - इसके
अंतर्गत श ष स ह को रखा गया है।
किंतु आधुनिक
भाषावैज्ञानिक दृष्टि से व्यंजन ध्वनियों का वर्गीकरण मुख्यतः दो आधारों पर किया
गया है-
(1) उच्चारण
स्थान (Place of
Articulation) के आधार पर
स्वरयंत्र के
ऊपर वायु-प्रवाह को जिस स्थान पर बाधित किया जाता है, उसे उस ध्वनि का उच्चारण स्थान कहते हैं। इस आधार पर व्यंजनों के
निम्नलिखित वर्ग हैं-
(क) द्वयोष्ठ्य – इन व्यंजनों का उच्चारण दोनों होठों के स्पर्श से
होता है । हिंदी में प,
फ, ब, भ, म,व द्वयोष्ठ्य
व्यंजन हैं।
(ख) दंत्योष्ठ्य - इन व्यंजनों का उच्चारण ऊपरी दाँत एवं निचले होठों
के स्पर्श से होता है, जैसे- फ़ारसी में ‘फ़’ हिंदी में दंत्योष्ठ्य व्यंजन नहीं हैं।
(ग) वर्त्स्य - इन व्यंजनों का उच्चारण वर्त्स अर्थात् मसूड़ों से
किया जाता है। हिंदी में जो
पहले दंत्य ध्वनियाँ थीं वे आज वर्त्स्य ध्वनियाँ हैं।
(घ) दंत्य - इन व्यंजनों के उच्चारण में जिह्वा दांत को स्पर्श
करती है, जैसे- त,
थ,द, ध, न,स।
(ङ) मूर्धन्य - इन व्यंजनों का उच्चारण मूर्धा से होता है, जैसे- ट, ठ, ड, ढ ण, ड़, एवं ढ़ आदि
मूर्धन्य व्यंजन हैं।
(च) तालव्य - इन व्यंजनों का उच्चारण तालु स्थान से होता है, जैसे- च , छ, ज, झ, ञ, य तथा श।
(छ) कंठ्य - इन व्यंजनों का उच्चारण कंठ से होता है। कंठ्य व्यंजनों
के उच्चारण में जिह्वा का पिछला हिस्सा कोमल तालु को छूता है। इसीलिए कुछ
भाषावैज्ञानिक ‘कोमल तालव्य व्यंजन’ कहते हैं। हिंदी में
क, ख, ग, घ, ङ कंठ्य हैं।
(ज) काकल्य - इन व्यंजनों का उच्चारण काकल स्थान से किया जाता
है। हिंदी में ‘ह’ ध्वनि काकल्य
व्यंजन है।
(2) उच्चारण
प्रयत्न (Mannar
of Articulation) के आधार पर
व्यंजन ध्वनि
के उच्चारण के लिए भाषाभाषी द्वारा संबंधित उच्चारण स्थान पर जो प्रयास किया जाता
है उसे उच्चारण प्रयत्न कहते हैं। प्रमुख उच्चारण प्रयत्नों के आधार पर व्यंजनों
के निम्नलिखित वर्ग हैं -
(क) स्पर्श (Stops) – इसके अंतर्गत वे
व्यंजन आते हैं, जिनके उच्चारण में जिह्वा संबंधित उच्चारण स्थान को स्पर्श
करती है। स्पर्श करने पर वायु मुख-विवर में अवरूद्ध होकर बाहर निकलती है। इसके अंतर्गत
हिंदी की कंठ्य,
मूर्धन्य, दंत्य, वर्त्स्य और
ओष्ठ्य ध्वनियाँ आ जाती हैं। अतः क, ख,
ग, घ, ट, ठ, ड, ढ, त, थ, द, ध, प, फ, ब, भ स्पर्श
ध्वनियाँ हैं।
(ख) स्पर्श संघर्षी
(Africates) - इसके अंतर्गत वे
व्यंजन आते हैं, जिनके उच्चारण में जिह्वा उच्चारण स्थान को स्पर्श करती है
तथा मुख-विवर से वायु घर्षण के साथ निकलती है। जैसे - च छ ज झ।
(ग) संघर्षी (Fricatives) - इसके अंतर्गत वे
व्यंजन आते हैं, जिनका उच्चारण करते समय मुख-विवर में वायु अत्यंत सँकरे मार्ग
से निकलती है
और मुख-विवर
में घर्षण होता है। जैसे - श,
ष, स, ह।
(घ) पार्श्विक (Laterals) - इसके अंतर्गत वे
व्यंजन आते हैं, जिनके उच्चारण में जिह्वा दंत अथवा वर्त्स को छूती है, और उस समय वायु
जिह्वा के अगल-बगल से बाहर निकलती है, जैसे- ‘ल’।
(ङ) लुंठित (Trills) - इसके अंतर्गत वे
व्यंजन आते हैं, जिनके उच्चारण में जिह्वा एक या अधिक बार वर्त्स स्थान को
स्पर्श करती है,
जैसे- ‘र’।
(च) उत्क्षिप्त (Flapped) - इसके अंतर्गत वे
व्यंजन आते हैं, जिनके उच्चारण में जिह्वा मूर्धा को तेजी से स्पर्श करती है। जैसे-
‘ड़’ और ‘ढ़’।
(छ) नासिक्य (Nasals) – वे ध्वनियाँ जिनके
उच्चारण में वायु मुख-विवर और नासिका विवर दोनों मार्ग से एक साथ निकलती है, नासिक्य कहलाती हैं, जैसे- ङ , ञ,
ण, न, म।
भाषावैज्ञानिकों द्वारा म्ह,
न्ह को महाप्राण
नासिक्य कहा गया है।
(ज) अर्धस्वर (Semivowels) - वे ध्वनियाँ जिनके
उच्चारण के समय जिह्वा एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर सरकती है और वायु मुख-विवर
को सँकरा बना देती है,
अर्धस्वर कहते
हैं, जैसे- ‘य’ और ‘व’।
उपर्युक्त दो
प्रमुख आधारों के अलावा कुछ अन्य आधारों पर भी व्यंजनों को वर्गीकृत किया गया है।
इनमें से दो प्रमुख अन्य आधारों पर वर्गीकरण इस प्रकार है-
(3) घोषत्व के
आधार पर
किसी ध्वनि के
उच्चारण में स्वर-तंत्रियों में होने वाले कंपन्न की मात्रा घोषत्व है। इसके आधार
पर ध्वनियों के दो वर्ग हैं-
(क) अघोष - जिन
ध्वनियों के उच्चारण में स्वरतंत्रियों में बहुत कम कंपन्न कंपन हो, वे ध्वनियाँ अघोष कहलाती हैं। हिंदी में ‘क ख, च, छ, ट, ठ, त, थ, प, फ , श, ष, स और विसर्ग (ः)’ अघोष ध्वनियाँ हैं।
(ख) सघोष - जिन
ध्वनियों के उच्चारण में स्वरतंत्रियों में अधिक कंपन्न हो तो वे ध्वनियाँ सघोष
कहलाती हैं। हिंदी में सभी स्वर और ‘ग घ ङ, ज झ ञ, ड ढ ण ड़ ढ़, द ,ध, न, ब भ म, य, र, ल, व, ह’ व्यंजन सघोष हैं।
(सभी स्वरों को जी.बी. धल आदि जैसे भाषाविद् सघोष ध्वनि
मानते हैं।)
(4) प्राणत्व के
आधार पर
प्राणत्व से
तात्पर्य है- ध्वनि के उच्चारण में ‘वायु’ (प्राण) की मात्रा। इस आधार पर दो वर्ग हैं-
(क) अल्पप्राण - वे ध्वनियाँ
जिनके उच्चारण में कम मात्रा में वायु का प्रयोग किया जाता है, वे अल्पप्राण
ध्वनि होती हैं। हिंदी में क,ग,ङ, च,ज,ञ, ट,ड,ण, त,द,न , प,ब,म, य,र,ल,व अल्पप्राण
व्यंजन हैं।
(ख) महाप्राण - जिन
ध्वनियों के उच्चारण में अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में वायु का प्रयोग किया जाता है, उन्हें
महाप्राण ध्वनि कहते हैं। हिंदी में प्रत्येक वर्गीय ध्वनियों के दूसरे और चौथे
व्यंजन- ख,घ, छ,झ, ठ, ढ, थ, ध तथा फ, भ महाप्राण है।
इनके अतिरिक्त श,
ष, स और ह
महाप्राण हैं।
6.0 नासिक्यता
किसी ध्वनि के
उच्चारण में नाक से भी ध्वनि निकलने की स्थिति नासिक्यता है। यदि किसी ध्वनि के
उच्चारण में वायु नासिका विवर से निकलती है तो ऐसी ध्वनि नासिक्य ध्वनि कहलाती है।
हिंदी में दो प्रकार की नासिक्य ध्वनियाँ हैं- अनुस्वार ( ं ) तथा अनुनासिक ( ँ ) ।
इनमें से ‘अनुस्वार’ पंचमाक्षर ध्वनियों का
प्रतिनिधित्व करता है। वर्गीय ध्वनियों का पंचम वर्ण ङ्, ञ, ण, न, म है, को ही अनुस्वार
के माध्यम से लिखा जाता है। उदाहरण के लिए निम्नलिखित को देखें-
गङ्गा à गंगा
चञ्चल à चंचल
ठण्डा à ठंडा
तन्तु à तंतु
कम्पन à कंपन
‘अनुनासिक’ ( ँ ) स्वतंत्र ध्वनि नहीं है। यह स्वर के
साथ ही प्रयुक्त होती है। अनुनासिक के उच्चारण के समय मुख-विवर में कोई अवरोध नहीं
होता, केवल इसके उच्चारण के समय वायु नासिका व मुख-विवर
दोनों मार्गों से निकलती है। अतः अनुनासिक एक स्वन-गुण (ध्वनि-गुण) होता है। आजकल
अनुनासिक की जगह अनुस्वार ही लिखने की परंपरा चल पड़ी है,
किंतु अनुस्वार और अनुनासिक में भेद से कुछ शब्दों के अर्थ में अंतर आ जाता है, जैसे- ‘हंस – हँस’ में जहाँ ‘हंस’ पक्षी है, वहीं ‘हँस’ हँसना क्रिया का धातु रूप है।
7.0 अक्षर
ध्वनिवैज्ञानिक अध्ययन में ‘अक्षर’ एक महत्वपूर्ण इकाई है। कुछ विद्वानों द्वारा
‘वर्ण’ को भी अक्षर की तरह माना गया है, जबकि अक्षर एक स्वतंत्र इकाई है। अक्षर को इस प्रकार से परिभाषित किया
गया है, “कोई एक ध्वनि या एक से अधिक ध्वनियों का समूह जो यह एक ही
श्वासाघात में उच्चरित हो, अक्षर है। यदि एक ही श्वासाघात में कई
ध्वनियाँ एक साथ उच्चरित होती हैं तो उनमें एक मुखर ध्वनि (Sonorous) होती है ‘स्वर’ सबसे मुखर ध्वनि होती है । अतः जिन शब्दों में
जितने स्वर होते हैं,
उतने अक्षर होंगे।
उदाहरण के लिए अ,
आ, इ, ई, उ, ऊ आदि सभी स्वर
एक-एक अक्षर हैं। इसी प्रकार एक व्यंजन और एक स्वर का योग अक्षर हो सकता है, जैसे - गा (ग् + आ)। दो व्यंजन और एक स्वर का योग भी अक्षर हो सकता है
जैसे - त्र (त् + र् + अ),
काम (क् + आ +
म्) , आदि। हिंदी में
पाँच व्यंजन और एक स्वर के योग से बना ‘स्वास्थ्य’ (स् + व् + आ + स् + थ् + य्) शब्द सबसे
बड़ा अक्षर है।
8.0 ध्वनि-गुण
(खंडेतर अभिलक्षण)
भाषा व्यवहार
में केवल ध्वनियों का ही प्रयोग नहीं होता, बल्कि ध्वनि के साथ कुछ
अन्य तत्वों का भी प्रयोग होता है, जिससे भाषा स्वाभाविक
प्रतीत होती है। इन तत्वों को ध्वनि-गुण (खंडेतर अभिलक्षण) कहते हैं। इन्हें
मात्रा, बलाघात, सुर, अनुनासिकता और
संगम आदि के रूप में निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया जाता है-
8.1 मात्रा
किसी ध्वनि के उच्चारण में लगने वाले समय को ‘मात्रा’ कहते हैं। इसी के आधार पर स्वरों को ह्रस्व
एवं दीर्घ कहा जाता है।
8.2 बलाघात
जब बोलते समय
किसी ध्वनि या शब्द पर विशेष बल दिया जाता है तो इसे ‘बलाघात’ कहते हैं। कुछ भाषाओं में शब्द के भाग या
ध्वनि पर अलग-अलग बल देने से अर्थ परिवर्तन होता है, जैसे-
अंग्रेजी के ‘Present’
शब्द में प्रथम
अक्षर पर बल देने पर 'Present
का अर्थ ‘उपस्थित’ होता है और दूसरे अक्षर पर बल देने पर Per'sent का अर्थ ‘उपहार’ होता है।
8.3 सुर
एक वाक्य बोलते
हुए आवाज की लय की अवस्था सुर कहलाती है। इसके तीन भेद हैं - उच्च, निम्न और
सम।उच्च में सुर नीचे से ऊपर जाता है, निम्न में ऊपर से नीचे आता है और सम में बराबर रहता है।
8.4 अनुनासिकता
ध्वनि या शब्द
का प्रयोग करते हुए नासिक्यता का प्रयोग अनुनासिकता है।
8.5 संगम अथवा
संहिता (Juncture)
दो शब्दों या
सार्थक ध्वनि-समूहों के बीच विराम का प्रयोग संगम या संहिता है। इसके कारण अर्थभेद
हो जाता है। इसका सर्वप्रसिद्ध उदाहरण निम्नलिखित है-
· रोको मत + जाने
दो।
· रोको + मत जाने
दो ।
..................................................
पूरा पढ़ने के लिए इस लिंक पर खुलने वाली फाइल में पृष्ठ 81 पर जाएँ-
http://www.mgahv.in/Pdf/Dist/gen/MAHD_17_hindibhasha_evam_bhasha_shikshan.pdf
Very Helpful Thank You!
ReplyDeleteThank you sir दिल से धन्यवाद
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