आज की तारीख़ में हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाएं वे सौतेली बहनें रह गई हैं जिनकी अम्मा अंग्रेज़ी है. अंग्रेज़ी में ही देश का राजकाज चलता है, कारोबार चलता है, विज्ञान चलता है, विश्वविद्यालय चलते हैं और सारी बौद्धिकता चलती है.
अंग्रेज़ी का विशेषाधिकार या आतंक इतना है कि अंग्रेज़ी बोल सकने वाला शख़्स बिना किसी बहस के योग्य मान लिया जाता है. अंग्रेज़ी में कोई अप्रचलित शब्द आए तो आज भी लोग ख़ुशी-ख़ुशी डिक्शनरी पलटते हैं जबकि हिंदी का ऐसा कोई अप्रचलित शब्द अपनी भाषिक हैसियत की वजह से हंसी का पात्र बना दिया जाता है. पिछले तीन दशकों में हिंदी की यह हैसियत और घटी है. पूरे देश में पढ़ाई-लिखाई की भाषा अंग्रेज़ी है और हिंदी घर में बोली जाने वाली बोली रह गई है.
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अंग्रेज़ी ने किया बेदख़ल
70 और 80 के दशकों में जो छात्र स्कूल में हिंदी और घर पर मगही, मैथिली, भोजपुरी बोलते थे आज उनके बच्चे स्कूलों में अंग्रेज़ी और घरों में हिंदी बोलते हैं.
यानी अंग्रेज़ी ने हिंदी को बेदख़ल कर दिया है और हिंदी ने बोलियों को. बहुत सारे लोगों को यह बात प्रमुदित करती है कि हिंदी को बाज़ार की वजह से बहुत बढ़ावा मिला है.
हिंदी फ़िल्में देश-विदेश जा रही हैं, हिंदी के सीरियल हर जगह देखे जा रहे हैं, कंप्यूटर और स्मार्टफोन में हिंदी को जगह मिल रही है, इंटरनेट पर हिंदी दिख रही है, लेकिन वे यह नहीं देखते कि यह अंततः एक बोली के रूप में हिंदी का इस्तेमाल है जो बाज़ार कर रहा है. हिंदी विशेषज्ञता की भाषा नहीं रह गई है.
हिंदी फ़िल्मों के निर्देशक और कलाकार अंग्रेज़ी बोलते हैं और हिंदी टीवी चैनलों और अख़बारों के संपादक अंग्रेज़ी के लोग होने लगे हैं. कुछ साल पहले वाणी प्रकाशन के एक आयोजन में उदय प्रकाश, सुधीश पचौरी, और हरीश त्रिवेदी के साथ इन पंक्तियों का लेखक हिंदी के सवाल पर संवादरत था.
हरीश त्रिवेदी ने कहा कि हिंदी का हाथी बाज़ार में बहुत शान से चल रहा है. इस लेखक ने ध्यान दिलाया कि इस हाथी पर अंग्रेज़ी का महावत बैठा हुआ है.
हिंदी के इस दुर्भाग्य को कुछ और करीने से देखना हो तो यह देखना चाहिए कि पिछले कुछ वर्षों में जो तकनीकी विकास हुआ है, उसके लिए अपनी कोई शब्दावली गढ़ने में हिंदी बुरी तरह नाकाम रही है, बल्कि उसने इसकी कोशिश भी नहीं की है जबकि एक दौर था जब अंग्रेज़ी के तकनीकी शब्दों के बहुत सुंदर अनुवाद हिंदी में हुए और वे चले भी. आज हिंदी ऐसे नए शब्द गढ़ने का अभ्यास और उन्हें चला सकने का आत्मविश्वास खो चुकी है.
जो हाल हिंदी का है, संभवतः बहुत दूर तक दूसरी भाषाओं का भी. तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मराठी बांग्ला में प्रकाशनों और कामकाज की स्थिति पहले जैसी नहीं रही. अंग्रेज़ी पर उनकी निर्भरता बढ़ रही है. तमाम राज्यों के पाठ्यक्रम में अंग्रेज़ी को अनिवार्य किया जा रहा है.
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