स्वनिमविज्ञान (Phonology) की विषयवस्तु
1. स्वनिम (Phoneme) क्या है?
स्वनिम किसी भी भाषा की वह सबसे
छोटी इकाई है, जिसका अपना
कोई अर्थ नहीं होता। वाक्य या शब्द स्वनिमों के समूह होते हैं। उनका खंडीकरण जिन
सबसे छोटी इकाइयों में किया जाता है, उन्हें ‘स्वनिम’ (Phoneme) कहते हैं।
हम ‘स्वनिम’ की बात किसी भाषा विशेष के संदर्भ
में ही करते हैं, जैसे- हिंदी
के स्वनिम इस प्रकार हैं-
स्वर- अ, आ, इ, ई ...
व्यंजन- क, ख, ग, घ ...
उदाहरण-
वह आदमी भारतीय है।
खंडीकरण-
व + ह + आ + द + म + ी + भ + ा + र
+ त + ी + य + ह + ै
ये इस वाक्य के सबसे छोटे खंड हैं, अतः इन्हें स्वनिम होना चाहिए, किंतु कुछ का प्रयोग एक से अधिक
बार हुआ है, अतः इनमें
केवल स्वनिमों को समझने के लिए हम देखेंगे- स्वनिम और स्वन ।
2. स्वनिम और स्वन (Phoneme and Phone)
हम अपने जीवन में किसी भी स्वन
(भाषायी ध्वनि) का लाखों-करोड़ों बार प्रयोग करते हैं, किंतु प्रत्येक स्वन का केवल एक अमूर्त प्रतीक ही हमारे मन
में रहता है। किसी भाषाई ध्वनि का व्यवहार में बार-बार प्रयोग ‘स्वन’ है, जबकि मन में निर्मित उसकी अमूर्त संकल्पना ‘स्वनिम’ है। इसे एक उदाहरण से इस प्रकार से
देख सकते हैं-
अतः स्पष्ट है कि प्रत्येक भाषा
में पाए जाने वाले लघुतम स्वन/ध्वनि प्रतीक ‘स्वनिम’ कहलाते हैं और भाषा व्यवहार में
उनका बार-बार प्रयोग ‘स्वनों’ के रूप में होता है। स्वनिम की
सत्ता मानसिक (मन/मस्तिष्क में) होती है, जबकि उनका व्यवहार जब बोलकर या लिखकर किया जाता है, तो वे स्वन कहलाते हैं, जैसे उपर्युक्त वाक्य के खंडों को
फिर से देखते हैं-
वह आदमी भारतीय है।
खंडीकरण-
व + ह + आ + द + म + ी + भ + ा + र
+ त + ी + य + ह + ै
इस वाक्य में आए स्वनिमों और उनके
प्रयोगों (स्वनों) की संख्या को इस प्रकार से देख सकते हैं-
स्वनिम |
स्वन (व्यवहार में प्रयोग की संख्या) |
व |
01 |
ह |
02 |
आ |
02 |
द |
01 |
म |
01 |
ई |
02 |
भ |
01 |
र |
01 |
त |
01 |
य |
01 |
ऐ |
01 |
3. स्वनिम और संस्वन (phoneme and allophone)
जब किसी स्वनिम का प्रयोग इस प्रकार से व्यवस्थित हो जाता है कि उसके दो
ध्वन्यात्मक रूप विकसित हो जाते हैं, तो वे आपस में ‘संस्वन’ कहलाते हैं। उदाहरण के लिए हिंदी में ‘ढ’ और ‘ढ़’ एक ही स्वनिम के दो संस्वन हैं।
इनमें ‘ढ’ को स्वनिम मान सकते हैं अतः
इन्हें इस प्रकार से दर्शाएँगे-
/ढ/ => {ढ, ढ़}
किसी शब्द में किसी स्वनिम के संस्वनों में से किसी का प्रयोग होने से उसका
अर्थ नहीं बदलता, केवल शब्द
का उच्चारण अशुद्ध हो जाता है, जैसे-
‘पढ़’ की जगह ‘पढ’
4. स्वनिम और स्वनिमिक गुण (Phoneme and Suprasegmental Features)
मात्रा, बलाघात,
सुर, तान और संहिता आदि खंडेतर अभिलक्षणों को ही ‘स्वनिमिक गुण’ कहा जाता है। स्वनिमविज्ञान में
इन्हें किसी भाषा विशेष के संदर्भ में देखा जाता है। कुछ भाषाओं में इनका बहुत
अधिक महत्व होता है, जबकि कुछ में कम। अतः हम उस भाषा विशेष
के आधार पर ही उसमें पाए जाने वाले स्वनिमिक गुणों का निर्धारण करते हैं, जैसे- चीनी, जापानी आदि भाषाओं में स्वनिमिक गुणों
का अधिक महत्व है। इनमें अंतर से शब्दों/वाक्यों के अर्थ बदल जाते/सकते हैं।
5. स्वनिमिक विश्लेषण (Phonemic/Phonological Analysis)
किसी भाषा के स्वनिमों और उनकी
व्यवस्था का विश्लेषण करना स्वनिमिक विश्लेषण है।
6. स्वनिमिक विश्लेषण और वितरण (Phonemic/Phonological Analysis and
Distribustion)
किसी भाषा के स्वनिमों के परस्पर
प्रयोग की स्थितियों का निर्धारण करने के लिए भाषावैज्ञानिकों द्वारा उनके ‘वितरण’ (Distribution) को आधार के रूप में देखा जाता है।
इसके दो प्रकार हैं-
(क) व्यतिरेकी वितरण (Contrastive Distribution)
जब किसी शब्द में एक स्वन की जगह
दूसरे स्वन को रखने पर बनने वाले शब्द का अर्थ बदल जाता है, तो उनके बीच ‘व्यतिरेकी वितरण’ (Contrastive Distribution) होता है, जैसे-
काल शब्द में क की जगह ख
करने पर => खाल
काल शब्द में क की जगह ग
करने पर => गाल
‘स्वनिम’ आपस में व्यतिरेकी वितरण में होते
हैं। अतः समान परिवेश में एक स्वन की जगह दूसरे स्वन को रखने पर बनने वाले
शब्द का अर्थ बदल जाता है, तो वे भिन्न-भिन्न स्वनिम होते हैं। इसलिए उक्त उदाहरणों में हिंदी के
लिए ‘क’, ‘ख’ और ‘ग’ तीन अलग-अलग स्वनिम हैं।
(ख) परिपूरक वितरण(Complementary Distribution)
जब किसी शब्द में एक स्वन की जगह
दूसरे स्वन को रखने पर बनने वाले शब्द का अर्थ नहीं बदलता है, तो उनके बीच ‘परिपूरक वितरण’ (Complementary Distribution) होता है, जैसे-
पढ़ाई शब्द में ढ़ की जगह ढ
करने पर => पढाई
सड़क शब्द में ड़ की जगह ड
करने पर => सडक
‘स्वनिम और संस्वन’ आपस में परिपूरक वितरण में होते
हैं। अतः समान परिवेश में एक स्वन की जगह दूसरे स्वन को रखने पर बनने वाले
शब्द का अर्थ नहीं बदलता है, तो वे परस्पर स्वनिम और संस्वन होते हैं। इसलिए उक्त उदाहरणों में
हिंदी के लिए ‘ढ और ढ़’, ‘ड और ड़’ स्वनिम और संस्वन हैं। बिहार के
भोजपुरी और मैथिली क्षेत्रों में ‘र’ और ‘ड़’ आपस में संस्वन की तरह प्रयुक्त
होते हैं।
परिपूरक वितरण का ही एक प्रकार ‘मुक्त वितरण’ (Free Distribution) है।
7. स्वनिमिक विश्लेषण के आधार
(क) स्वनिक सादृश्य (Phonetic Similarity)
(ख) परिपूरक वितरण (Complementary Distribution)
(ग) अभिरचना अन्विति (Pattern Congruity)
(घ) लाघव (Economy)
8. व्यावर्तक अभिलक्षण (Distinctive Features)
वे अभिलक्षण जिनके होने या न होने
से स्वनिमों में भेद होता है, व्यावर्तक अभिलक्षण (Distinctive Features) कहलाते हैं। आधुनिक
भाषावैज्ञानिकों द्वारा इनके कई युग्म (pair) किए गए हैं, जैसे-
·
सार्वभौमिक (universal) और भाषा-विशिष्ट (language
specific)
· पूर्ववर्ती और अपूर्ववर्ती (Anterior and Posterior)
· उच्च और अनुच्च (High/ Non-high)
आदि।
9. स्वनिम सिद्धांत (Phonemic Theories)
·
संरचनावादी सिद्धांत
· प्रजनक सिद्धांत (प्रजनक स्वनिमी)
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