मानक और अमानक भाषा
भाषा व्यवहार समाज में होता है,
जिसमें अनेक प्रकार के लोग होते हैं। इन लोगों की विविध
प्रकार की सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक पृष्ठभूमि होती है। इस कारण प्रायः यह देखने में आता है
कि भाषा के कुछ रूपों के एक से अधिक प्रयोग विकसित हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में
सरकार या सरकार द्वारा अधिकृत संस्थाओं द्वारा भाषा व्यवहार के उन एक से अधिक
रूपों में से किसी एक रूप को मानक के रूप में स्वीकृत किया जाता है। इससे
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भाषा के शिक्षण, व्यवहार, अनुवाद, प्रयोग आदि में सरलता होती है। शिक्षण और औपचारिक व्यवहार
में प्रायः मानक रूप का ही प्रयोग किया जाता है। उसके समानांतर प्रचलित दूसरा रूप
अमानक रूप कहलाता है।
उदाहरण के लिए हिंदी भाषा के मानक और अमानक रूप को इस
प्रकार से देख सकते हैं-
क्रिया रूपों में मानक अमानक प्रयोग
मानक
अमानक
गए गये
खाई खायी
आएँगे आयेंगे/आएंगे
मानक /अमानक तथा शुद्ध/अशुद्ध प्रयोग
यहाँ ध्यान रखने वाली बात है कि अमानक रूप अशुद्ध रूप नहीं
होते। अर्थात अमानक रूपों का किसी लेखन में प्रयोग होने पर उसे गलत नहीं कहा जा सकता।
किसी भाषा व्यवहार या लेखन को हम गलत तब कहते हैं, जब उसमें कोई त्रुटि हुई हो। त्रुटि हमारे अज्ञान के कारण
होती है,
जबकि मानक /अमानक का संबंध भाषा में एक से अधिक रूपों के
प्रचलन से है, जैसे-
लड़के घर गए थे
लड़के घर गये थे
ये दोनों ही वाक्य सही या शुद्ध हैं,
केवल दूसरे वाक्य में 'गए' के अमानक रूप 'गये'
का प्रयोग हुआ है। किंतु इसकी जगह यदि निम्नलिखित वाक्य
लिखा जाए-
लड़के घर गऐ थे
तो यहां पर मानक और अमानक का मुद्दा नहीं है,
बल्कि यह प्रयोग ही अशुद्ध या गलत है।
हिंदी वर्तनी के मानकीकरण संबंधी महत्वपूर्ण बिंदु
केंद्रीय हिंदी निदेशालय के वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली निर्माण आयोग
द्वारा समय-समय पर मानक हिंदी वर्तनी नामक निकाली जाने वाली पुस्तिका से मानक
हिंदी वर्तनी प्रयोग संबंधित कुछ महत्वपूर्ण नियमों को इस प्रकार से देख सकते हैं-
संयुक्त वर्ण
2.1.1 खड़ी पाई वाले व्यंजन
खड़ी पाई वाले व्यंजनों के संयुक्त रूप परंपरागत तरीके से खड़ी पाई को हटाकर
ही बनाए जाएँ। यथा:–
- ख्याति, लग्न, विघ्न
- कच्चा, छज्जा
- नगण्य
- कुत्ता, पथ्य, ध्वनि, न्यास
- प्यास, डिब्बा, सभ्य, रम्य
- शय्या
- उल्लेख
- व्यास
- श्लोक
- राष्ट्रीय
- स्वीकृति
- यक्ष्मा
- त्र्यंबक
2.1.2 अन्य व्यंजन
2.1.2.1 क और फ/फ़ के संयुक्ताक्षर
संयुक्त, पक्का,
दफ़्तर आदि की तरह बनाए जाएँ, न कि संयुक्त, (पक्का लिखने में क के नीचे क नहीं) की तरह।
2.1.2.2 ङ, छ,
ट, ड,
ढ, द और ह के संयुक्ताक्षर हल् चिह्न लगाकर ही बनाए जाएँ। यथा:–
- वाङ्मय, लट्टू, बुड्ढा, विद्या, चिह्न, ब्रह्मा आदि।
2.1.2.3 संयुक्त ‘र’ के प्रचलित तीनों रूप यथावत् रहेंगे। यथा:– प्रकार, धर्म, राष्ट्र।
2.1.2.4 श्र का प्रचलित रूप ही मान्य होगा। इसे (क्र में क के बदले
श लिखा मान लें) के रूप में नहीं लिखा जाएगा। त+र के संयुक्त रूप के लिए पहले त्र
और (क्र में क के बदले त लिखा मान लें) दोनों रूपों में से किसी एक के प्रयोग की
छूट दी गई थी। परंतु अब इसका परंपरागत रूप त्र ही मानक माना जाए। श्र और त्र के
अतिरिक्त अन्य व्यंजन+र के संयुक्ताक्षर 2.1.2.3 के नियमानुसार बनेंगे। जैसे :–
क्र, प्र,
ब्र, स्र,
ह्र आदि।
2.1.2.5 हल् चिह्न युक्त वर्ण से बनने वाले संयुक्ताक्षर के द्वितीय
व्यंजन के साथ इ की मात्रा का प्रयोग संबंधित व्यंजन के तत्काल पूर्व ही किया
जाएगा,
न कि पूरे युग्म से पूर्व। यथा:–
कुट्टिम, चिट्ठियाँ, द्वितीय, बुद्धिमान, चिह्नित आदि
टिप्पणी : संस्कृत भाषा के मूल श्लोकों को उद्धृत करते समय संयुक्ताक्षर पुरानी शैली
से भी लिखे जा सकेंगे। जैसे:– संयुक्त, चिह्न, विद्या, विद्वान, वृद्ध, द्वितीय, बुद्धि आदि। किंतु यदि इन्हें भी उपर्युक्त नियमों के
अनुसार ही लिखा जाए तो कोई आपत्ती नहीं होगी।
2.2 कारक चिह्न
2.2.1 हिंदी के कारक चिह्न सभी प्रकार के संज्ञा शब्दों में
प्रातिपदिक से पृथक् लिखे जाएँ। जैसे :– राम ने, राम को, राम से, स्त्री का, स्त्री से, सेवा में आदि। सर्वनाम शब्दों में ये चिह्न प्रातिपादिक के
साथ मिलाकर लिखे जाएँ। जैसे :– तूने, आपने, तुमसे, उसने, उसको, उससे, उसपर आदि (मेरेको, मेरेसे आदि रूप व्याकरण सम्मत नहीं हैं)।
2.2.2 सर्वनाम के साथ यदि दो कारक चिह्न हों तो उनमें से पहला
मिलाकर और दूसरा पृथक् लिखा जाए। जैसे :– उसके लिए, इसमें से।
2.2.3 सर्वनाम और कारक चिह्न के बीच 'ही', 'तक' आदि का निपात हो तो कारक चिह्न को पृथक् लिखा जाए। जैसे :–
आप ही के लिए, मुझ तक को।
2.3 क्रिया पद
संयुक्त क्रिया पदों में सभी अंगीभूत क्रियाएँ पृथक्-पृथक् लिखी जाएँ। जैसे :–
पढ़ा करता है, आ सकता है, जाया करता है, खाया करता है, जा सकता है, कर सकता है, किया करता था, पढ़ा करता था, खेला करेगा, घूमता रहेगा, बढ़ते चले जा रहे हैं आदि।
2.4 हाइफ़न (योजक चिह्न)
2.4.0 हाइफ़न का विधान स्पष्टता के लिए किया गया है।
2.4.1 द्वंद्व समास में पदों के बीच हाइफ़न रखा जाए। जैसे :–
राम-लक्ष्मण, शिव-पार्वती संवाद, देख-रेख, चाल-चलन, हँसी-मज़ाक, लेन-देन, पढ़ना-लिखना, खाना-पीना, खेलना-कूदना आदि।
2.4.2 सा, जैसा आदि से पूर्व हाइफ़न रखा जाए। जैसे :– तुम-सा, राम-जैसा, चाकू-से तीखे।
2.4.3 तत्पुरुष समास में हाइफ़न का प्रयोग केवल वहीं किया जाए
जहाँ उसके बिना भ्रम होने की संभावना हो, अन्यथा नहीं। जैसे :– भू-तत्व। सामान्यत: तत्पुरुष समास में हाइफ़न लगाने की
आवश्यकता नहीं है। जैसे :– रामराज्य, राजकुमार,
गंगाजल, ग्रामवासी, आत्महत्या आदि।
2.4.3.1 इसी तरह यदि 'अ-निख' (बिना नख का) समस्त पद में हाइफ़न न लगाया जाए तो उसे 'अनख' पढ़े जाने से 'क्रोध' का
अर्थ भी निकल सकता है। अ-नति (नम्रता का अभाव) : अनति (थोड़ा),
अ-परस (जिसे किसी ने न छुआ हो) : अपरस (एक चर्म रोग),
भू-तत्व (पृथ्वी-तत्व) : भूतत्व (भूत होने का भाव) आदि
समस्त पदों की भी यही स्थिति है। ये सभी युग्म वर्तनी और अर्थ दोनों दृष्टियों से
भिन्न-भिन्न शब्द हैं।
2.4.4 कठिन संधियों से बचने के लिए भी हाइफ़न का प्रयोग किया जा
सकता है। जैसे :– द्वि-अक्षर (द्व्यक्षर), द्वि-अर्थक (द्व्यर्थक) आदि।
2.5 अव्यय
2.5.1 'तक', 'साथ' आदि अव्यय सदा पृथक् लिखे जाएँ। जैसे :– यहाँ तक, आपके साथ।
2.5.2 आह, ओह,
अहा, ऐ,
ही, तो,
सो, भी,
न, जब,
तब, कब,
यहाँ, वहाँ, कहाँ, सदा, क्या,
श्री, जी, तक,
भर, मात्र, साथ,
कि, किंतु, मगर,
लेकिन, चाहे, या, अथवा,
तथा, यथा और आदि अनेक प्रकार के भावों का बोध कराने वाले अव्यय हैं। कुछ अव्ययों के
आगे कारक चिह्न भी आते हैं। जैसे :– अब से, तब से, यहाँ से, वहाँ से, सदा से आदि। नियम के अनुसार अव्यय सदा पृथक् लिखे जाने
चाहिए। जैसे :– आप
ही के लिए, मुझ
तक को,
आपके साथ, गज़ भर कपड़ा, देश भर, रात भर, दिन भर, वह इतना भर कर दे, मुझे जाने तो दो, काम भी नहीं बना, पचास रुपए मात्र आदि।
2.5.3 सम्मानार्थक 'श्री' और 'जी'
अव्यय भी पृथक् लिखे जाएँ। जैसे श्री श्रीराम,
कन्हैयालाल जी, महात्मा जी आदि (यदि श्री, जी आदि व्यक्तिवाची संज्ञा के ही भाग हों तो मिलाकर लिखे
जाएँ। जैसे :– श्रीराम,
रामजी लाल, सोमयाजी आदि)।
2.5.4 समस्त पदों में प्रति, मात्र, यथा आदि अव्यय जोड़कर लिखे जाएँ (यानी पृथक् नहीं लिखे
जाएँ)। जैसे - प्रतिदिन, प्रतिशत, मानवमात्र,
निमित्तमात्र, यथासमय, यथोचित आदि। यह सर्वविदित नियम है कि समास न होने पर समस्त
पद एक माना जाता है। अत उसे व्यस्त रूप में न लिखकर एक साथ लिखना ही संगत है। 'दस रुपए मात्र', 'मात्र दो व्यक्ति' में पदबंध की रचना है। यहाँ मात्र अलग से लिखा जाए (यानी
मिलाकर नहीं लिखें)।
2.6 अनुस्वार (शिरोबिंदु/बिंदी) तथा अनुनासिकता चिह्न
(चंद्रबिंदु)
2.6.0 अनुस्वार व्यंजन है और अनुनासिकता स्वर का नासिक्य विकार।
हिंदी में ये दोनों अर्थभेदक भी हैं। अत हिंदी में अनुस्वार (ं) और अनुनासिकता
चिह्न (ँ) दोनों ही प्रचलित रहेंगे।
2.6.1 अनुस्वार
2.6.1.1 संस्कृत शब्दों का अनुस्वार अन्यवर्गीय वर्णों से पहले
यथावत् रहेगा। जैसे - संयोग, संरक्षण, संलग्न, संवाद, कंस, हिंस्र आदि।
2.6.1.2 संयुक्त व्यंजन के रूप में जहाँ पंचम वर्ण (पंचमाक्षर) के
बाद सवर्गीय शेष चार वर्णों में से कोई वर्ण हो तो एकरूपता और मुद्रण/लेखन की
सुविधा के लिए अनुस्वार का ही प्रयोग करना चाहिए। जैसे - पंकज,
गंगा, चंचल, कंजूस, कंठ, ठंडा,
संत, संध्या, मंदिर,
संपादक, संबंध आदि (पंकज, गंगा, चंचल, कंजूस, कण्ठ, ठण्डा, सन्त, मन्दिर, सन्ध्या, सम्पादक, सम्बन्ध वाले रूप नहीं)। बंधनी में रखे हुए रूप संस्कृत के
उद्धरणों में ही मान्य होंगे। हिंदी में बिंदी (अनुस्वार) का प्रयोग करना ही उचित
होगा।
2.6.1.3 यदि पंचमाक्षर के बाद किसी अन्य वर्ग का कोई वर्ण आए तो
पंचमाक्षर अनुस्वार के रूप में परिवर्तित नहीं होगा। जैसे :–
वाङ्मय, अन्य, चिन्मय, उन्मुख आदि (वांमय, अंय, चिंमय, उंमुख
आदि रूप ग्राह्य नहीं होंगे)।
2.6.1.4 पंचम वर्ण यदि द्वित्व रूप में (दुबारा) आए तो पंचम वर्ण
अनुस्वार में परिवर्तित नहीं होगा। जैसे - अन्न, सम्मेलन, सम्मति आदि (अंन, संमेलन, संमति रूप ग्राह्य नहीं होंगे)।
2.6.1.5 अंग्रेज़ी, उर्दू से गृहीत शब्दों में आधे वर्ण या अनुस्वार के भ्रम को
दूर करने के लिए नासिक्य व्यंजन को पूरा लिखना अच्छा रहेगा। जैसे :–
लिमका, तनखाह, तिनका, तमगा, कमसिन आदि।
2.6.1.6 संस्कृत के कुछ तत्सम शब्दों के अंत में अनुस्वार का प्रयोग
म् का सूचक है। जैसे - अहं (अहम्), एवं (एवम्), परं (परम्), शिवं (शिवम्)।
2.6.2 अनुनासिकता (चंद्रबिंदु)
2.6.2.1 हिंदी के शब्दों में उचित ढंग से चंद्रबिंदु का प्रयोग
अनिवार्य होगा।
2.6.2.2 अनुनासिकता व्यंजन नहीं है, स्वरों का ध्वनिगुण है। अनुनासिक स्वरों के उच्चारण में नाक
से भी हवा निकलती है। जैसे :– आँ, ऊँ,
एँ, माँ,
हूँ, आएँ।
2.6.2.3 चंद्रबिंदु के बिना प्राय: अर्थ में भ्रम की गुंजाइश रहती
है। जैसे :– हंस
: हँस,
अंगना : अँगना, स्वांग (स्व+अंग): स्वाँग आदि में। अतएव ऐसे भ्रम को दूर
करने के लिए चंद्रबिंदु का प्रयोग अवश्य किया जाना चाहिए। किंतु जहाँ (विशेषकर
शिरोरेखा के ऊपर जुड़ने वाली मात्रा के साथ) चंद्रबिंदु के प्रयोग से छपाई आदि में
बहुत कठिनाई हो और चंद्रबिंदु के स्थान पर बिंदु का (अनुस्वार चिहन का) प्रयोग
किसी प्रकार का भ्रम उत्पन्न न करे, वहाँ चंद्रबिंदु के स्थान पर बिंदु के प्रयोग की छूट रहेगी।
जैसे :–
नहीं, में, मैं आदि। कविता आदि के प्रसंग में छंद की दृष्टि से चंद्रबिंदु का यथास्थान
अवश्य प्रयोग किया जाए। इसी प्रकार छोटे बच्चों की प्रवेशिकाओं में जहाँ
चंद्रबिंदु का उच्चारण अभीष्ट हो, वहाँ मोटे अक्षरों में उसका यथास्थान सर्वत्र प्रयोग किया
जाए। जैसे :– कहाँ,
हँसना, आँगन, सँवारना, में, मैँ,
नहीँ आदि।
2.7 विसर्ग (ः)
2.7.1 संस्कृत के जिन शब्दों में विसर्ग का प्रयोग होता है,
वे यदि तत्सम रूप में प्रयुक्त हों तो विसर्ग का प्रयोग
अवश्य किया जाए। जैसे :– ‘दुःखानुभूति’ में। यदि उस शब्द के तद्भव रूप में विसर्ग का लोप हो चुका हो तो उस रूप में
विसर्ग के बिना भी काम चल जाएगा। जैसे :– ‘दुख-सुख के साथी’।
2.7.2 तत्सम शब्दों के अंत में प्रयुक्त विसर्ग का प्रयोग
अनिवार्य है। यथा :– अतः,
पुनः, स्वतः, प्रायः, पूर्णतः, मूलतः, अंततः, वस्तुतः, क्रमशः आदि।
2.7.3 'ह' का अघोष उच्चरित रूप विसर्ग है, अतः उसके स्थान पर (स) घोष 'ह' का लेखन किसी हालत में न किया जाए (अतः, पुनः आदि के स्थान पर अतह, पुनह आदि लिखना अशुद्ध वर्तनी का उदाहरण माना जाएगा)।
2.7.4 दुःसाहस/दुस्साहस, निःशब्द/निश्शब्द के उभय रूप मान्य होंगे। इनमें द्वित्व
वाले रूप को प्राथमिकता दी जाए।
2.7.4.1 निस्तेज, निर्वचन, निश्चल आदि शब्दों में विसर्ग वाला रूप (निःतेज,
निःवचन, निःचल) न लिखा जाए।
2.7.4.2 अंतःकरण, अंतःपुर, प्रातःकाल आदि शब्द विसर्ग के साथ ही लिखे जाएँ।
2.7.5 तद्भव/देशी शब्दों में विसर्ग का प्रयोग न किया जाए। इस
आधार पर छः लिखना गलत होगा। छह लिखना ही ठीक होगा।
2.7.6 प्रायद्वीप, समाप्तप्राय आदि शब्दों में तत्सम रूप में भी विसर्ग नहीं
है।
2.7.7 विसर्ग को वर्ण के साथ मिलाकर लिखा जाए,
जबकि कोलन चिह्न (उपविराम :) शब्द से कुछ दूरी पर हो। जैसे
:–
अतः, यों है :–
2.8 हल् चिह्न (्)
2.8.1 (्) को हल् चिह्न कहा जाए न कि हलंत। व्यंजन के नीचे लगा
हल् चिह्न उस व्यंजन के स्वर रहित होने की सूचना देता है,
यानी वह व्यंजन विशुद्ध रूप से व्यंजन है। इस तरह से 'जगत्' हलंत शब्द कहा जाएगा क्योंकि यह शब्द व्यंजनांत है,
स्वरांत नहीं।
2.8.2 संयुक्ताक्षर बनाने के नियम 2.1.2.2 के अनुसार ड् छ् ट् ठ् ड् ढ् द् ह् में हल् चिह्न का ही
प्रयोग होगा। जैसे : चिह्न, बुड्ढा, विद्वान आदि में।
2.8.3 तत्सम शब्दों का प्रयोग वांछनीय हो तब हलंत रूपों का ही
प्रयोग किया जाए; विशेष रूप से तब जब उनसे समस्त पद या व्युत्पन्न शब्द बनते हों। यथा प्राक् :–
(प्रागैतिहासिक),
वाक्-(वाग्देवी), सत्-(सत्साहित्य), भगवन्-(भगवद्भक्ति), साक्षात्-(साक्षात्कार), जगत्-(जगन्नाथ), तेजस्-(तेजस्वी), विद्युत्-(विद्युल्लता) आदि। तत्सम संबोधन में हे राजन्,
हे भगवन् रूप ही स्वीकृत होंगे। हिंदी शैली में हे राजा,
हे भगवान लिखे जाएँ। जिन शब्दों में हल् चिह्न लुप्त हो
चुका हो,
उनमें उसे फिर से लगाने का प्रयत्न न किया जाए। जैसे -
महान,
विद्वान आदि; क्योंकि हिंदी में अब 'महान' से 'महानता' और 'विद्वानों' जैसे रूप प्रचलित हो चुके हैं।
2.8.4 व्याकरण ग्रंथों में व्यंजन संधि समझाते हुए केवल उतने ही
शब्द दिए जाएँ, जो
शब्द रचना को समझने के लिए आवश्यक हों (उत् + नयन = उन्नयन,
उत् + लास = उल्लास) या अर्थ की दृष्टि से उपयोगी हों
(जगदीश,
जगन्माता, जगज्जननी)।
2.8.5 हिंदी में ह्रदयंगम (ह्रदयम् + गम),
उद्धरण (उत्/उद् + हरण), संचित (सम् + चित्) आदि शब्दों का संधि-विच्छेद समझाने की
आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। इसी तरह 'साक्षात्कार', 'जगदीश', 'षट्कोश' जैसे शब्दों के अर्थ को समझाने की आवश्यकता हो तभी उनकी
संधि का हवाला दिया जाए। हिंदी में इन्हें स्वतंत्र शब्दों के रूप में ग्रहण करना
ही अच्छा होगा।
2.9 स्वन परिवर्तन
2.9.1 संस्कृतमूलक तत्सम शब्दों की वर्तनी को ज्यों-का-त्यों
ग्रहण किया जाए। अत: 'ब्रह्मा' को 'ब्रम्हा', 'चिह्न' को 'चिन्ह', 'उऋण'
को 'उरिण'
में बदलना उचित नहीं होगा। इसी प्रकार ग्रहीत,
दृष्टव्य, प्रदर्शिनी, अत्याधिक, अनधिकार आदि अशुद्ध प्रयोग ग्राह्य नहीं हैं। इनके स्थान
पर क्रमश: गृहीत, द्रष्टव्य, प्रदर्शनी,
अत्यधिक, अनधिकार ही लिखना चाहिए।
2.9.2 जिन तत्सम शब्दों में तीन व्यंजनों के संयोग की स्थिति में
एक द्वित्वमूलक व्यंजन लुप्त हो गया है उसे न लिखने की छूट है। जैसे :–
अर्द्ध > अर्ध, तत्त्व > तत्त्व आदि।
2.10 'ऐ', 'औ' का प्रयोग
2.10.1 हिंदी में ऐ (ै), औ (ौ) का प्रयोग दो प्रकार के उच्चारण को व्यक्त करने के
लिए होता है। पहले प्रकार का उच्चारण 'है', 'और' आदि में मूल स्वरों की तरह होने लगा है; जबकि दूसरे प्रकार का उच्चारण 'गवैया', 'कौवा' आदि शब्दों में संध्यक्षरों के रूप में आज भी सुरक्षित है।
दोनों ही प्रकार के उच्चारणों को व्यक्त करने के लिए इन्हीं चिह्नों (ऐ, ै, औ, ौ) का प्रयोग किया जाए। 'गवय्या', 'कव्वा' आदि संशोधनों की आवश्यकता नहीं है। अन्य उदाहरण हैं :–
भैया, सैयद, तैयार, हौवा आदि।
2.10.2 दक्षिण के अय्यर, नय्यर, रामय्या आदि व्यक्तिनामों को हिंदी उच्चारण के अनुसार ऐयर,
नैयर, रामैया आदि न लिखा जाए, क्योंकि मूलभाषा में इसका उच्चारण भिन्न है।
2.10.3 अव्वल, कव्वाल, कव्वाली जैसे शब्द प्रचलित हैं। इन्हें लेखन में यथावत् रखा
जाए।
2.10.4 संस्कृत के तत्सम शब्द 'शय्या' को 'शैया'
न लिखा जाए।
2.11 पूर्वकालिक कृदंत प्रत्यय 'कर'
2.11.1 पूर्वकालिक कृदंत प्रत्यय 'कर' क्रिया से मिलाकर लिखा जाए। जैसे :– मिलाकर, खा-पीकर, रो-रोकर आदि।
2.11.2 कर + कर से 'करके' और करा + कर से 'कराके' बनेगा।
2.12 वाला
2.12.1 क्रिया रूपों में 'करने वाला', 'आने वाला', 'बोलने वाला' आदि को अलग लिखा जाए। जैसे :– मैं घर जाने वाला हूँ, जाने वाले लोग।
2.12.2 योजक प्रत्यय के रूप में 'घरवाला', 'टोपीवाला' (टोपी बेचने वाला), दिलवाला, दूधवाला आदि एक शब्द के समान ही लिखे जाएँगे।
2.12.3 'वाला' जब प्रत्यय के रूप में आएगा तब तो 2.12.2
के अनुसार मिलाकर लिखा जाएगा; अन्यथा अलग से। यह वाला, यह वाली, पहले वाला, अच्छा वाला, लाल वाला, कल वाली बात आदि में वाला निर्देशक शब्द है। अतः इसे अलग ही
लिखा जाए। इसी तरह लंबे बालों वाली लड़की, दाढ़ी वाला आदमी आदि शब्दों में भी वाला अलग लिखा जाएगा।
इससे हम रचना के स्तर पर अंतर कर सकते हैं। जैसे :– गाँववाला - villager गाँव वाला मकान - village house
2.13 श्रुतिमूलक 'य', 'व'
2.13.1 जहाँ श्रुतिमूलक य, व का प्रयोग विकल्प से होता है वहाँ न किया जाए,
अर्थात् किए : किये, नई : नयी, हुआ : हुवा आदि में से पहले (स्वरात्मक) रूपों का प्रयोग
किया जाए। यह नियम क्रिया, विशेषण, अव्यय
आदि सभी रूपों और स्थितियों में लागू माना जाए। जैसे :–
दिखाए गए, राम के लिए, पुस्तक लिए हुए, नई दिल्ली आदि।
2.13.2 जहाँ 'य' श्रुतिमूलक व्याकरणिक परिवर्तन न होकर शब्द का ही मूल तत्त्व हो वहाँ वैकल्पिक
श्रुतिमूलक स्वरात्मक परिवर्तन करने की आवश्यकता नहीं है। जैसे :–
स्थायी, अव्ययीभाव, दायित्व आदि (अर्थात् यहाँ स्थाई,
अव्यईभाव, दाइत्व नहीं लिखा जाएगा)।
2.14 विदेशी ध्वनियाँ
2.14.1 उर्दू शब्द
उर्दू से आए अरबी-फ़ारसी मूलक वे शब्द जो हिंदी के अंग बन चुके हैं और जिनकी
विदेशी ध्वनियों का हिंदी ध्वनियों में रूपांतर हो चुका है,
हिंदी रूप में ही स्वीकार किए जा सकते हैं। जैसे :–
कलम, किला,
दाग आदि (क़लम, क़िला, दाग़ नहीं)। पर जहाँ उनका शुद्ध विदेशी रूप में प्रयोग
अभीष्ट हो अथवा उच्चारणगत भेद बताना आवश्यक हो, वहाँ उनके हिंदी में प्रचलित रूपों में यथास्थान नुक्ते
लगाए जाएँ। जैसे :– खाना : ख़ाना, राज : राज़, फन
: फ़न आदि।
2.14.2 अंग्रेज़ी शब्द
अंग्रेज़ी के जिन शब्दों में अर्धविवृत 'ओ' ध्वनि का प्रयोग होता है, उनके शुद्ध रूप का हिंदी में प्रयोग अभीष्ट होने पर 'आ' की मात्रा के ऊपर अर्धचंद्र का प्रयोग किया जाए (ऑ, ॉ)। जहाँ तक अंग्रेज़ी और अन्य विदेशी भाषाओं से नए शब्द
ग्रहण करने और उनके देवनागरी लिप्यंतरण का संबंध है, अगस्त-सितंबर, 1962 में वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग द्वारा वैज्ञानिक
शब्दावली पर आयोजित भाषाविदों की संगोष्ठी में अंतरराष्ट्रीय शब्दावली के देवनागरी
लिप्यंतरण के संबंध में की गई सिफ़ारिश उल्लेखनीय है। उसमें यह कहा गया है कि
अंग्रेज़ी शब्दों का देवनागरी लिप्यंतरण इतना क्लिष्ट नहीं होना चाहिए कि उसके
वर्तमान देवनागरी वर्णों में अनेक नए संकेत-चिह्न लगाने पड़ें। अंग्रेज़ी शब्दों
का देवनागरी लिप्यंतरण मानक अंग्रेज़ी उच्चारण के अधिक-से-अधिक निकट होना चाहिए।
2.14.3 द्विधा रूप वर्तनी
हिंदी में कुछ प्रचलित शब्द ऐसे हैं जिनकी वर्तनी के दो-दो रूप बराबर चल रहे
हैं। विद्वत्समाज में दोनों रूपों की एक-सी मान्यता है। कुछ उदाहरण हैं :–
गरदन/गर्दन, गरमी/गर्मी, बरफ़/बर्फ़, बिलकुल/बिल्कुल, सरदी/सर्दी, कुरसी/कुर्सी, भरती/भर्ती, फ़ुरसत/फ़ुर्सत, बरदाश्त/बर्दाश्त, वापस/वापिस, आखिरकार/आखीरकार, बरतन/बर्तन, दुबारा/दोबारा, दुकान/दूकान, बीमारी/बिमारी आदि। इन वैकल्पिक रूपों में से पहले वाले रूप
को प्राथमिकता दी जाए। विस्तार के लिए देखिए - परिशिष्ट 4
(पृष्ठ 32-35)
संदर्भ-
https://hi.wikipedia.org/wikiमानक_हिंदी_वर्तनी
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