व्यतिरेकी और परिपूरक (Contrastive and Complementary Distribution)
किसी भाषा के स्वनिमों के परस्पर प्रयोग की स्थितियों का निर्धारण करने के लिए भाषावैज्ञानिकों द्वारा उनके ‘वितरण’ (Distribution) को आधार के रूप में देखा जाता है। इसके दो प्रकार हैं-
(क) व्यतिरेकी वितरण (Contrastive Distribution)
जब किसी शब्द में एक स्वन की जगह दूसरे स्वन को रखने पर बनने वाले शब्द का अर्थ बदल जाता है, तो उनके बीच ‘व्यतिरेकी वितरण’ (Contrastive Distribution) होता है, जैसे-
काल शब्द में क की जगह ख करने पर => खाल
काल शब्द में क की जगह ग करने पर => गाल
‘स्वनिम’ आपस में व्यतिरेकी वितरण में होते हैं। अतः समान परिवेश में एक स्वन की जगह दूसरे स्वन को रखने पर बनने वाले शब्द का अर्थ बदल जाता है, तो वे भिन्न-भिन्न स्वनिम होते हैं। इसलिए उक्त उदाहरणों में हिंदी के लिए ‘क’, ‘ख’ और ‘ग’ तीन अलग-अलग स्वनिम हैं।
(ख) परिपूरक वितरण(Complementary Distribution)
जब किसी शब्द में एक स्वन की जगह दूसरे स्वन को रखने पर बनने वाले शब्द का अर्थ नहीं बदलता है, तो उनके बीच ‘परिपूरक वितरण’ (Complementary Distribution) होता है, जैसे-
पढ़ाई शब्द में ढ़ की जगह ढ करने पर => पढाई
सड़क शब्द में ड़ की जगह ड करने पर => सडक
‘स्वनिम और संस्वन’ आपस में परिपूरक वितरण में होते हैं। अतः समान परिवेश में एक स्वन की जगह दूसरे स्वन को रखने पर बनने वाले शब्द का अर्थ नहीं बदलता है, तो वे परस्पर स्वनिम और संस्वन होते हैं। इसलिए उक्त उदाहरणों में हिंदी के लिए ‘ढ और ढ़’, ‘ड और ड़’ स्वनिम और संस्वन हैं। बिहार के भोजपुरी और मैथिली क्षेत्रों में ‘र’ और ‘ड़’ आपस में संस्वन की तरह प्रयुक्त होते हैं।
परिपूरक वितरण का ही एक प्रकार ‘मुक्त वितरण’ (Free Distribution) है।
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