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Wednesday, August 11, 2021
Pragmatics and Discourse : Joan cutting

प्रोक्ति और संदर्भ (Discourse and Context)
प्रोक्ति और संदर्भ (Discourse and Context)
प्रोक्ति
से तीन पक्ष होते हैं- पाठ, संदर्भ और प्रकार्य। पाठ प्रोक्ति
के कथ्य या पदार्थ वाला हिस्सा है। वह वाचिक और लिखित दोनों प्रकार का हो सकता है।
कोई भी पाठ जब अपने संदर्भ के साथ जुड़ता है तो प्रोक्ति बन जाता है। अतः हम कह सकते
हैं कि ‘संदर्भ’ प्रोक्ति को पाठ से
प्रोक्ति बनाने वाला तत्व है। संदर्भ के बिना कोई भी पाठ वाक्यों का समुच्चय मात्र
रह जाता है। प्रोक्ति और संदर्भ के संबंध को सूत्र रूप में इस प्रकार से दिखा सकते
हैं-
पाठ
(वाचिक/लिखित) + संदर्भ = प्रोक्ति
संदर्भ
के प्रकार
किसी
प्रोक्ति की रचना और व्यवहार में कई प्रकार के संदर्भ कार्य करते हैं। इनमें से
कुछ प्रमुख निम्नलिखित हैं-
1.
स्थित्यात्मक संदर्भ (Situational Context)
इसका
संबंध ‘पाठ या बातचीत होने की जगह के भौतिक परिवेश’ से है। इसे
अंग्रेजी में ‘Immediate physical presence’ भी कहते हैं।
एक
प्रोक्ति से वाक्य = पंखा चला दो
=> कोई स्थान है। वहाँ पंखा है। पंखा चालू हालत में है। वक्ता को गर्मी लग
रही है या वह पंखे की हवा की आवश्यकता महसूस कर रहा है। श्रोता इस स्थिति में है
कि वह पंखा चला सके।
जब
भी किसी प्रोक्ति का कोई हिस्सा सुनने या देखने में आता है तो श्रोता उसका
स्थियात्मक संदर्भ स्वयं तैयार कर लेता है। जैसे-
किसी
व्यक्ति को रेडियो पर कुछ वाक्य सुनाई पड़ते हैं-
“A
बॉल लेकर दौड़ा और B की ओर फेंक दिया, B ने अपने बल्ले से मारा और बॉल सीधे C के हाथ में गई.........।”
इस
प्रकार के वाक्यों का समुच्चय सुनाई पड़ते ही श्रोता समझ जाता है कि यह किसी
क्रिकेट मैच संबंधी वार्ता चल रही है और उसमें ए., बी.,
सी. जो भी नाम आए हैं, उनकी भूमिका का भी
अनुमान श्रोता कर लेता है। इस प्रकार के संदर्भ स्थितियात्मक संदर्भ के अंतर्गत
आते हैं।
2.
पृष्ठभूमिक ज्ञान (background knowledge) का
संदर्भ :
इसका
संबंध किस बात से है कि वक्ता और श्रोता एक-दूसरे के बारे में और बाह्य संसार के
बारे में क्या और कितना जानते हैं। इसके दो प्रकार हैं-
2.1 अंतरवैयक्तिक ज्ञान (interpersonal knowledge) का
संदर्भ : इसका संबंध वक्ता और श्रोता के एक
दूसरे के संदर्भ में ज्ञान से है। यह हर दो व्यक्तियों के बीच भिन्न होता है। उसी
के अनुरूप बात या प्रसंग निर्मित होता है।
2.2 समान्य सांस्कृतिक ज्ञान (common cultural knowledge)
का संदर्भ : हम जिस समाज या समुदाय में रहते हैं,
उसके ज्ञान की बात। संबंध, खानपान, जीवन शैली आदि। समाज में सांस्कृतिक समुदाय होते हैं। जैसे जैसे क्षेत्र
सीमित होता है वैसे वैसे साझा ज्ञान अधिक होता है।
3. पाठगत संदर्भ (Textual Context)
:
इसका संबंध पाठ के अंदर ही पाए जाने वाले, या पाठ से संबद्ध संदर्भों से है। प्रोक्ति विश्लेषण में इनका अध्ययन सहपाठीय संदर्भ (Context of Co-text) के अंतर्गत किया जाता है। प्रत्येक पाठ के विभिन्न वाक्यों में ऐसे शब्द आते हैं, जो अपना संदर्भ उसी पाठ की दूसरी इकाइयों या पाठ के बाहर उल्ल्खित इकाइयों में रखते हैं। ऐसे शब्दों को संदर्भार्थक (referent) और इस स्थिति को संदर्भार्थकता (reference) कहते हैं। वे अभिव्यक्तियाँ जिनके अंदर संदर्भार्थक शब्द आते हैं, संदर्भपरक अभिव्यक्तियाँ (referring expressions) कहलाती हैं। इनके मुख्यतः दो प्रकार हैं, जिन्हें हम इस प्रकार से देख सकते हैं जैसे-
(1)
अंतर्मुखी संदर्भार्थ (endophoric
reference):
यह co
textual संदर्भ है, जो पाठ में ही होता है। चूँकि इस प्रकार के संदर्भार्थ पाठ की अभिव्यक्तियों को एक-दूसरे के साथ जोड़ने में प्रयुक्त होते हैं, इसलिए प्रोक्ति विश्लेषण में इन्हें 'व्याकरणिक संसक्ति' (Grammatical cohesion) के अंतर्गत रखा जाता है। इसके मुख्यतः दो प्रकार हैं-
क.
अन्वादेश (Anaphora)
– वे संदर्भ जिनमें पहले ‘नाम’ और बाद में संदर्भ शब्द (सर्वनाम)
आता है, जैसे-
नीरज चोपड़ा
ने कहा कि उनका सपना गोल्ड मेडल जीतना था।
ख.
पश्चादेश (Cataphora)
– इसे पश्चोन्मुखी भी कहा गया है। वे संदर्भ जिनमें पहले संदर्भ
शब्द (सर्वनाम) और बाद में ‘नाम’ आता है, जैसे-
नीरज
चोपड़ा को चुनौती देने वाले खिलाड़ी की बोलती बंद हो गई। योहानस वेट्टर
का घमंड अब चूर-चूर हो गया।
(2)
बहिर्मुखी (exocentric) संदर्भ-
वे
प्रयोग जिनके संदर्भ शब्द उस पाठ के बाहर होते हैं। इसके मुख्यतः तीन प्रकार हैं-
(क) प्रथमोल्लेख- प्रोक्ति में पहली बार
उल्लेख।
(ख) स्थिति निर्देशक तत्व (Deixis)
– इसके अंतर्गत वे प्रयोग आते हैं, जिनके संदर्भार्थ
पाठ के बाहर उक्ति के कथन के समय और परिवेश में होते हैं। इनके भी तीन भेद किए जाते
हैं-
· व्यक्ति
निर्देश (person) : मैं, तुम,
वह, वे आदि। (वक्ता, श्रोता
या वहाँ को लोगों को सूचित करने के लिए प्रयुक्त।
· स्थान
निर्देश (place) : यहाँ, वहाँ,
इधर, उधर आदि।
· समय
निर्देश (time) : अब, तब,
आज, अगले दिन आदि।
(ग) अंतरपाठीयता (intertexuality)
: जब संदर्भार्थ किसी अन्य पाठ में हो।

Tuesday, August 10, 2021
प्रासंगिकता का सिद्धांत (Theory of Relevance)
प्रासंगिकता का
सिद्धांत (Theory of Relevance)
इसे Relevance
theory भी कहा गया है। यह सिद्धांत किसी कथन या उक्ति के बोधन
या निर्वचन का एक फ्रेमवर्क है। इसे सबसे पहले Dan Sperber और Deirdre Wilson द्वारा प्रस्तावित किया
गया था। यह सिद्धांत मूलतः ग्राइस के सिद्धांतों से ही प्रभावित है। यह सिद्धांत
मूलतः इस बात पर आधारित है-
“every
utterance conveys the information that it is relevant enough for it to be worth
the addressee's effort to process it.”
अर्थात
यदि कोई व्यक्ति कुछ कहता है, तो वह यह
मानकर चलता है कि वह जो भी बात कर रहा है वह इतनी प्रासंगिक है कि श्रोता द्वारा
उसे सुनकर समझा जा सकता है और आवश्यक प्रतिक्रिया की जा सकती है। इसमें हम यही
मानकर चलते हैं कि वह कथन उस बात के लिए वक्ता की समझ में सर्वोत्तम कथन होता है।
प्रासंगिकता
के सिद्धांत में कथनों को निदर्शनात्मक (ostensive) और अनुमितिपरक (inferential) होने को भी
देखा जाता है। इसमें सामान्य कथन और अलंकारिक कथन दोनों ही प्रकार के कथनों को
देखा जाता है।
वर्तमान
में प्रोक्ति विश्लेषण, प्रकरणार्थविज्ञान और संज्ञानात्मक
भाषाविज्ञान के क्षेत्र में यह सिद्धांत अत्यंत प्रचलित है।

वार्ता के सूक्त (Maxims of Conversation)
सहकारिता सिद्धांत (Cooperative
Principle)
वार्ता
विश्लेषण के संबंध में ग्राइस (Paul Grice) द्वारा ‘सहकारिता
सिद्धांत’ की बात की गई है, जिसे ‘Gricean
pragmatics’ भी कहा जाता है। सहकारिता सिद्धांत (cooperative
principle -CP) के अनुसार-
“Make
your conversational contribution such as is required, at the stage at which it
occurs, by the accepted purpose or direction of the talk exchange.”
(Grice 1989, p. 26)
इस
संबंध में देखा जाए तो ग्राइस ने वार्ता के कुछ सूक्तों की बात की है, जिन्हें ‘वार्ता के सूक्त’ (Maxims
of Conversation) कहा जाता है। इनका उद्देश्य ‘जो कहा जाता है’ और ‘उसका जो अर्थ होता है’ दोनों के बीच की दूरी को
खत्म करना है। ग्राइस ने "Logic and Conversation" (1975) और Studies in the Way of Words (1989)
में निम्नलिखित 04 प्रकार के सूक्तों की बात की है-
(क) मात्रा का सूक्त (Maxim
of quantity) : इसका संबंध वक्तव्य की
सूचनात्मकता से है। इसके अनुसार वक्ता को उतना ही बोलना चाहिए, जितने से पूरी सूचना आ जाए। उससे कम भी नहीं बोलना चाहिए और उससे ज्यादा
भी नहीं।
(ख) गुणवत्ता का सूक्त (Maxim of quality (truth)) : इसका संबंध वक्तव्य की गुणवत्ता से है। इसके अनुसार वक्ता को जो भी बोलना
चाहिए, उसकी ‘सत्यता’ (truth) का ध्यान रखना चाहिए। अर्थात अपने कथन
में गलत तथ्य प्रस्तुत नहीं करने चाहिए या ऐसे तथ्यों की बात नहीं करनी चाहिए
जिनके प्रमाण न हों।
(ग) संबंध का सूक्त (Maxim of relation
(relevance)) : इस सूक्त के अनुसार वक्ता को वही
बातें करनी चाहिए, जो बातचीत या विषय से संबंध रखती
हों। ऐसा न हो कि उससे बाहर की चीजों पर बात कर रहा हो।
(घ) विधि का सूत्र (Maxim of manner
(clarity)) : इस सूक्त के अनुसार वक्ता को अपनी
बात स्पष्टता के साथ रखनी चाहिए। अर्थात जो भी कहा जाए, वह ठीक तरीके से कहा जाना चाहिए। उसमें कठिनाई, संदिग्धार्थकता या बहुत व्यापकता नहीं होनी चाहिए। वक्ता का कथन स्पष्ट
होना चाहिए उसके कई अर्थ न होते हों और कथन यथासंभव संक्षिप्त होना चाहिए। साथ ही
इस सूक्त में ग्राइस ने कहा है कि वक्ता को आदेशपरक (orderly) होने से बचना चाहिए।
यदि उपर्युक्त चारों सूक्तों को हम विश्लेषण की दृष्टि से देखें, तो प्रथम तीन का संबंध ‘क्या कहा गया है’ से है, तो चौथे का संबंध ‘कैसे कहा गया है’ से है।
