भाषा और दर्शन के अंतर्गत भाषा संबंधी कुछ प्रश्न
दर्शन एक इतनी बड़ी बड़ा क्षेत्र है कि सभी विषषों
का अंततः दर्शन में ही जाकर समाहार होता है। ज्ञान,
तर्क और अनुमान के माध्यम से हम अपने किसी भी विषय से संबंधित जो सर्वोच्च (ultimate) बात प्रतिपादित करते हैं वह दार्शनिक
बात कहलाती है। इसमें आत्मा-परमात्मा,
सत्य-असत्य, पदार्थ-उर्जा-चेतना आदि सभी के बारे में
सुक्ष्मतम स्तर पर विचार किया जाता है। भाषा के संबंध में भी विभिन्न तत्वों पर
विविध दर्शन परंपराओं में चर्चा की गई है। यह चर्चा भारतीय दर्शन परंपरा और
पाश्चात्य दर्शन परंपरा दोनों में देखी जा सकती है। दर्शन परंपराओं में मुख्यतः ‘शब्द, वाक्य और अर्थ’ के
संदर्भ में ही विविध दृष्टियों से चर्चाएँ की गई हैं। इसके अलावा भाषाई अभिव्यक्ति
कैसे बनती है? वह हमारे मन या आत्मा से कैसे जुड़ी हुई है? इन सब बातों पर भी चर्चा की जाती है। भारतीय दर्शन परंपरा में भाषा
संबंधी जिन प्रश्नों पर विचार किया गया है, उनमें से कुछ
प्रश्न इस प्रकार हैं -
Ø भाषा हमारे विचारों और भावनाओं की अभिव्यक्ति में कितनी समर्थ है?
Ø किसी अर्थ-विशेष के लिए शब्द संकेतक (signifier) काम करता है, किंतु वह शब्द अपने अर्थ को कितना अभिव्यक्त कर पाता है? क्या वह पूरी तरह व्यक्त कर पाता है?
Ø भाषा बाह्य संसार को किस तरह से अभिव्यक्त करती है? क्या वह केवल अस्तित्ववान पदार्थों को ही संकेत कर पाती है, या उससे इतर जिनका अस्तित्व नहीं होता, उनको भी
अभिव्यक्त करती है?
Ø शब्द क्या है? वह पदार्थ है या गुण?
Ø शब्द और ध्वनि में क्या संबंध है? क्या
दोनों भौतिक हैं या एक भौतिक है और दूसरा मानसिक? यदि शब्द
भौतिक है तो वह नश्वर है। अर्थात समय के साथ वह नष्ट हो जाएगा, फिर अर्थ को अनंत काल तक कैसे धारण करने की क्षमता रखता है?
Ø इस सृष्टि की विभिन्न रचनाओं से भाषा कैसे जुड़ी हुई है?
भाषा से संबंधित इस प्रकार की
विभिन्न बातों की दर्शन में या दार्शनिक परंपराओं में अपने-अपने सिद्धांतों के
अनुसार व्याख्या की गई है। भाषा और दर्शन इन्हीं बिंदुओं पर एक-दूसरे से जुड़ते
हैं।
भाषा के विभिन्न इकाइयों के संबंध
में दार्शनिक चिंतन अथवा व्याख्या की आवश्यकताओं को समझना थोड़ा गहन स्तर का कार्य
है। भाषाविज्ञान का प्राथमिक अध्येता इस संदर्भ में आशंकित हो सकता है कि भाषा
संबंधी उपर्युक्त प्रश्नों के लिए दार्शनिक चिंतन की क्या आवश्यकता है? उदाहरण के लिए एक साधारण प्रश्न ले लिया जाए कि ‘शब्द और अर्थ के संबंध की व्याख्या करने में दार्शनिक चिंतन तक जाना पड़ता
है’। अब आप प्रश्न कर सकते हैं कि हम जानते हैं कि सभी
भाषाओं में कुछ शब्द होते हैं और प्रत्येक शब्द के अपने अर्थ होते हैं। उन्हें कोश
से, समाज से ग्रहण किया जा सकता है। इसमें दार्शनिक चिंतन की
आवश्यकता कहाँ महसूस हो रही है? इसे समझने के लिए हमें थोड़ा
गहन स्तर पर विचार करना होगा।
उदाहरण के लिए ‘गाय’ शब्द लेते हैं। यह शब्द तीन ध्वनियों से बना है- ‘ग+
आ+ य’। इस शब्द का एक निश्चित अर्थ है,
जिसे हम बाह्य संसार में एक चौपाए जानवर के रूप में देखते हैं, और गाय शब्द बोलते ही हमें उसका बोध हो जाता है। यदि आपसे कोई कहे कि ‘गाय को चारा खिला दो’ तो आपके आस-पास में या आपसे संबंधित
जो भी गाय नामक प्राणी होगा, से आप उसे चारा डाल देंगे। अब
आप विचार कीजिए कि एक गौशाला है और उसमें 100 गाएँ हैं। अब कोई आपसे कहे कि ‘गाय को चारा खिला दो’ तो उसमें से आपको पूछना पड़ेगा
कि कौन सी गाय को चारा खिलाऊँ, क्योंकि सभी गायों के रूप, आकार, संरचना में सूक्ष्म स्तर पर कुछ ना कुछ भेद
जरूर है, लेकिन गहन स्तर पर उनमें एक विशेष प्रकार का समान
गुण है, जिसे हम गाय कहते हैं। इसलिए गाय शब्द का जो अर्थ है
वह उनमें से कोई गाय विशेष नहीं है, बल्कि उनके गुणों का
किया गया अमूर्तीकरण (abstraction) है| वह मूर्तीकरण कैसे होता है? उसके लिए कौन-सी मानसिक/अभौतिक प्रक्रिया होती है, इन
सब बातों तक पहुंचने के लिए हमें दार्शनिक चिंतन तक जाना पड़ता है। इसी प्रकार से
दर्शन भाषा संबंधी ज्ञान की व्याख्या में सहायक होता है।
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