देवनागरी लिपि का मानकीकरण (Standardization of Devanagari Script)
देवनागरी लिपि का
मानकीकरण एक लंबी ऐतिहासिक, भाषावैज्ञानिक और तकनीकी प्रक्रिया का परिणाम है, जिसके द्वारा इसे आधुनिक उपयोग के लिए सुव्यवस्थित और
एकरूप बनाया गया। यह प्रक्रिया विशेष रूप से 19वीं शताब्दी के अंत और 20वीं
शताब्दी में तेज़ हुई, जब प्रिंटिंग, टंकण, शिक्षा और
प्रशासन में इसकी आवश्यकता बढ़ी। स्वतंत्रता के पश्चात भारत सरकार द्वारा इस दिशा
में व्यवस्थित संस्थागत प्रयास किया गया। वर्तमान में देवनागरी लिपि एवं हिंदी
भाषा के मानकीकरण कार्य वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग, केंद्रीय हिंदी निदेशालय, नई दिल्ली द्वारा किया
जाता है।
देवनागरी लिपि के
मानकीकरण के प्रमुख पक्ष:
1. वर्तनी और
स्वरूप की एकरूपता
देवनागरी में एक
ही ध्वनि को दर्शाने वाले अलग-अलग रूपों का प्रयोग प्राचीन काल में होता था (जैसे ‘श’, ‘ष’, ‘स’ का प्रयोग)। मानकीकरण के अंतर्गत इनका स्पष्ट वितरण
किया गया तथा ध्वनि-आधारित उपयोग का निर्देश भी निर्धारित हुआ।
2.
संयुक्ताक्षरों का विन्यास
संयुक्ताक्षर देवनागरी
लिपि की प्रमुख विशेषता है। मानकीकरण में यह सुनिश्चित किया गया कि कौन से
संयुक्ताक्षर किस प्रकार बनेंगे। मुद्रण और डिजिटल टंकण में इन संयोजनों के स्पष्ट
और स्थिर रूप भी तय किए गए।
3. मात्राओं का
मानकीकरण
मात्रा चिह्नों
के स्थान और स्वरूप को एकरूप बनाया गया, जैसे – ‘कि’ (क् + ि), ‘की’ (क् + ी)
4. प्रतीकों का
मानकीकरण
अनुस्वार (ं), विसर्ग (ः), चंद्रबिंदु (ँ), अवग्रह (ऽ)*जैसे चिह्नों
के प्रयोग का नियमन हुआ।
विराम चिह्नों (।
, ॥) के मानक उपयोग तय किए
गए, विशेषतः संस्कृत और
हिंदी ग्रंथों के लिए।
5. मुद्रण और
टंकण मानकीकरण
19वीं शताब्दी
में देवनागरी में छपाई के लिए प्रारंभिक फ़ॉन्ट बनाए गए, जो टाइपराइटर पर काम करते थे। बाद में उन्हीं के
अनुरूप कंप्यूटर के लिए क्लिप फॉन्ट विकसित किए गए। 21वीं शताब्दी के प्रारंभ में Unicode Consortium द्वारा देवनागरी
के लिए यूनिकोड विकसित किया गया तथा इसकी श्रेणी (U+0900–U+097F) निर्धारित की गई।
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