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INTERNATIONAL MOTHER LANGUAGE DAY: क्या कोई इंसान अपनी मातृभाषा या जन्मजात भाषा को भूल सकता है?
- सोफ़ी हार्डच
- बीबीसी फ़्यूचर
मातृभाषा भूलने की वजहें क्या हैं?
इस सवाल की वजह ये बनती है कि जब कोई इंसान दूसरे देश में काम करने जाता है, तो वहां की भाषा और संस्कृति में ख़ुद को ढालता है. इंग्लैंड जाकर लोग अंग्रेज़ी में ही बात करेंगे न. तो, जब अपने देश की ज़बान में बात कम से कम होती जाती है, तो हम अपनी भाषा की बारीकियां भूलने लगते हैं.
हर भाषा में बात करने का ख़ास अंदाज़ होता है. मज़ाक़ करने से लेकर संजीदा बातें करने तक, हर भाषा का लहजा अलग होता है. ऐसे में जब आप किसी वजह से दूसरे देश में जाते हैं, तो वहां के रहन-सहन के साथ वहां की भाषा को भी अपनाते हैं. उसके लहजे में बात करने की कोशिश करते-करते आप अपनी मातृभाषा से कटने लगते हैं.
अपनी भाषा गंवाने का विज्ञान
हालांकि बात इतनी सीधी सपाट है नहीं. अपनी भाषा गंवाने का विज्ञान बहुत पेचीदा है. ये इस बात पर नहीं निर्भर करता कि आप कितने दिनों से अपने देश से दूर रह रहे हैं. दूसरी भाषा बोलने वालों से मेल-जोल का आपकी अपनी ज़बान पर असर तो पड़ता है. मगर अपनी मातृभाषा भूल जाने की वजह कई बार जज़्बाती होती है, तकलीफ़ भरी यादें होती हैं.
और लंबे वक़्त से अपने वतन से दूर रहने वालों के साथ ही ऐसा नहीं होता. जो लोग दूसरी भाषा सीखते हैं, उनकी मातृभाषा पर पकड़ अक्सर कमज़ोर होती है.
ब्रिटेन की एसेक्स यूनिवर्सिटी की भाषाविद् मोनिक श्मिड कहती हैं कि जैसे ही आप दूसरी ज़बान सीखते हैं, तो उसका आपकी मातृभाषा से मुक़ाबला होने लगता है.
बच्चों का अपनी भाषा भूलना आम बात
मोनिका इन दिनों भाषा के इस भटकाव पर रिसर्च कर रही हैं. उन्होंने पाया है कि बच्चों में अपनी जन्मजात भाषा छोड़कर दूसरी ज़बान सीख लेने की बातें आम हैं. वजह साफ़ है. किसी बच्चे का दिमाग़ नई चीज़ ज़्यादा आसानी से सीखता है. पुरानी बातें भूलना उसके लिए आसान होता है. 12 साल की उम्र तक किसी भी बच्चे की भाषा में बुनियादी बदलाव लाया जा सकता है. यानी वो अपनी जन्मजात भाषा को पूरी तरह से भूल सकता है.
अगर किसी बच्चे को नौ साल की उम्र तक उसकी पैदाइश वाले देश से हटाकर दूसरे देश में बसा दिया जाए, तो वो पूरी तरह से अपनी मातृभाषा भूल जाता है.
वयस्कों का मातृभाषा भूलना असामान्य
लेकिन, बड़ों का अपनी भाषा को पूरी तरह भुला देना असामान्य बात है, जो कम ही देखने को मिलती है. लोग अपनी भाषा बहुत दुख पाने की वजह से ही भूलते हैं.
मोनिका श्मिड ने दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी छोड़ कर ब्रिटेन और अमरीका में बसने वाले यहूदियों पर रिसर्च की. मोनिका ने पाया कि उनकी भाषा पर इस बात का फ़र्क़ नहीं पड़ा था कि वो कितने लंबे वक़्त से अपने वतन से दूर थे.
उनकी मातृ भाषा भूलने की सबसे बड़ी वजह वो तकलीफ़देह तजुर्बा था जो नाज़ियों के राज में उन्होंने भुगता था. जो लोग नाज़ी हुकूमत के ज़ुल्म शुरू होने से पहले ही दूसरे देश जा बसे थे, उन यहूदियों की जर्मन भाषा पर पकड़ अच्छी थी. लेकिन जिन्होंने हिटलर के हाथों ज़्यादा तकलीफ़ें झेली थीं, वो अपनी मातृभाषा से ज़्यादा दूर हो गए थे, जबकि उन्होंने दूसरी ज़बान बोलने वाले देश में कम वक़्त गुज़ारा था.
तजुर्बे का असर
मोनिका कहती हैं कि ऐसा सिर्फ़ तकलीफ़ और दर्दभरे तजुर्बे के असर से हुआ था. भले ही लोगों की बचपन की भाषा जर्मन रही थी, मगर उन्होंने उसे भुला देने की पुरज़ोर कोशिश की. कुछ लोगों ने तो साफ़ तौर पर कहा कि जर्मनी ने उन्हें धोखा दिया. अब अमरीका ही उनका देश है. अंग्रेज़ी ही उनकी ज़बान है.
वैसे दूसरे देश जाकर बसने वाले हर इंसान के साथ ऐसा तकलीफ़देह तजुर्बा नहीं हुआ होता. जो लोग सामान्य तौर पर जाकर दूसरे देश में रहने लगते हैं. वो नए देश की भाषा के साथ-साथ अपने वतन की बोली भी बोलते हैं.
भारत से जाकर अमरीका, कनाडा या ब्रिटेन में बसने वाले लोग, भारतीय भाषाएं बोलते ही हैं. यही हाल बांग्लादेश, सऊदी अरब या किसी भी और देश से जाकर दूसरे देश में बसने वालों का होता है.
दो ज़बानों में तालमेल के लिए बनाना पड़ता है कंट्रोल माड्यूल
मातृभाषा की याद हमारा जन्मजात गुण होता है. जिन लोगों की भाषा पर पकड़ अच्छी होती है, वो लोग बेहतर तरीक़े से दोनों ज़बानों में ताल-मेल बना लेते हैं. वहीं, कुछ लोगों के लिए ये ताल-मेल बैठा पाना मुश्किल होता है.
मोनिका श्मिड कहती हैं कि दो भाषाएं आने पर हमें अपने ज़हन में ही कंट्रोल मॉड्यूल बनाना पड़ता है. जो आसानी से दो भाषाओं को वक़्त के हिसाब से इस्तेमाल कर सके.
ऐसे तमाम लोग मिल जाएंगे, जो अपनी मातृभाषा बोलने वालों के बीच होते हैं, तो जन्मजात ज़बान बोलते हैं. वहीं, जब वो दूसरे देश के लोगों के साथ होते हैं, तो उनकी भाषा बोलते हैं. दोनों के बीच जल्दी-जल्दी बदलाव भी वो कर लेते हैं.
रिसर्च क्या कहते हैं?
लंदन में रहने वाले तमाम देशों के लोग क़रीब 300 ज़बानें बोलते हैं. कई बार इन भाषाओं का ऐसा घाल-मेल होता है कि भाषा का हाइब्रिड तैयार हो जाता है. लंबे वक़्त तक आप जहां रहते हैं, वहां की भाषा आप के ज़हन पर हावी होने लगती है.
भाषा के इस भटकाव पर साउथैम्पटन यूनिवर्सिटी की लॉरा डोमिनगुएज़ ने भी रिसर्च की है. लॉरा ने ब्रिटेन में रहने वाले स्पैनिश लोगों और अमरीका में रहने वाले क्यूबा के लोगों पर रिसर्च की.
क्यूबा में भी स्पैनिश बोली जाती है और मेक्सिको में भी. स्पेन की तो वो मूल ज़बान है. लेकिन इन सभी देशों में स्पैनिश बोलने का अंदाज़ अलग-अलग है. ठीक वैसे ही जैसे यूपी, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान में अलग-अलग तरह की हिंदी की बोलियां चलन में हैं.
लॉरा ने पाया कि ब्रिटेन में रहने वाले स्पैनिश लोग दूर-दूर तक छिटके हुए थे. तो उनमें से ज़्यादातर अंग्रेज़ी बोलते थे. वहीं अमरीका में रहने वाले क्यूबा के लोग अधिकतर मयामी में बसे हुए हैं. तो वो स्पैनिश बोलते ही थे क्योंकि उनके आस-पास उनकी मातृभाषा बोलने वाले लोग ही रहते थे.
फिर क्यूबा के इन लोगों के साथ मेक्सिको के लोग भी रहते थे, जो स्पैनिश ही बोलते हैं. तो क्यूबा के लोगों पर मेक्सिको की स्पैनिश भाषा बोलने के तरीक़े का असर साफ़ देखने को मिला.
ख़ुद लॉरा ने काफ़ी वक़्त अमरीका में बिताया था. जब वो स्पेन लौटीं, तो स्पैनिश लोगों ने उनसे कहा कि उनकी स्पैनिश मेक्सिकन हो गई है. वजह ये थी कि अमरीका में लॉरा के बहुत से मेक्सिकन दोस्त थे. उनकी सोहबत में लॉरा की स्पैनिश पर भी मेक्सिको की छाप पड़ गई.
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