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Monday, March 4, 2019

संगणकीय कोश (Computational lexicon)


संगणकीय कोश (Computational lexicon)
संगणक में डाटाबेस और प्रोग्राम के रूप में निर्मित कोश संगणकीय कोश कहलाता है। ऐसे कोश में संग्रह में से वांछित सूचनाओं की खोज, नई सूचना जोड़ना, किसी सूचना को मिटाना या उसका अद्यतन करना अत्यंत सरल होता है। इनके दो प्रकार किए जा सकते हैं-
·       ऑनलाइन- जिनका प्रयोग इंटरनेट की सहायता से होता है।
·       कंप्यूटर-आधारित- जिनका प्रयोग कंप्यूटर पर इंस्टॉल करके होता है।
संगणकीय कोश के दो पक्ष हैं-
डाटाबेस और प्रोग्राम ।
(क) डाटाबेस- इसमें शब्द, उनके अर्थ और व्याकरणिक सूचनाएँ टेबल में संग्रहीत रहती हैं, जैसे-
Table1
ID
HIndi word
Gr Inf
English Word
English word 2
2
लड़का
NN
Boy
3
अच्छा
JJ
Good
Nice
4
जाना
VM
go
5
घर
NN
house
home
6
है
AUX
is
इसके लिए किसी डाटाबेस प्रबंधन प्रणाली का प्रयोग किया जाता है।
(ख) प्रोग्राम- इसके अंतर्गत कोश का अंतरापृष्ठ और सूचना प्राप्ति का कोड आता है। प्रोग्राम के विकास के लिए किसी-न-किसी प्रोग्रामिंग भाषा का प्रयोग किया जाता है। सूचना प्राप्ति का कोड कोश की मशीनी प्रक्रिया के अनुसार होता है। एक संगणकीय कोश प्रोग्राम की मशीनी प्रक्रिया इस प्रकार होगी-
इनपुट शब्द --> डाटाबेस में खोज --> शब्द मिलने पर संबंधित सूचनाओं का संग्रह एवं प्रस्तुति --> शब्द नहीं मिलने पर अप्राप्ति की सूचना।
संगणकीय कोश के अंतरापृष्ठ में इनपुट और आउटपुट के लिए स्थान खोज और अन्य निर्देशों के लिए बटन होते हैं, जैसे-

संगणकीय कोश के बिना कोई भी भाषा से संबंधित नियम आधारित प्रणाली नहीं बनाई जा सकती, क्योंकि इसी में शब्द और उनसे जुड़ी सूचनाएँ संग्रहीत होते हैं। वैसे स्वतंत्र रूप से प्रयोग के लिए भी संगणकीय कोश बनाए जाते हैं। ये शब्दकोश कंप्यूटर आधारित और इंटरनेट आधारित (ऑनलाइन) दोनों प्रकार के होते हैं।

Saturday, March 2, 2019

मातृभाषा दिवस 2019


म.गा. अ. हिंदी विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस का आयोजन  
21 फरवरी 2019
मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार के निर्देशानुसार  महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में 21 फरवरी 2019 को  अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस का गालिब सभागार में आयोजन किया गया। कार्यक्रम के आरंभ में दीप प्रज्जवलन किया गया| 
इसके पश्चात अपने स्वागत वक्तव्य में भाषा विद्यापीठ के अधिष्ठाता प्रो. हनुमानप्रसाद शुक्ल ने कहा कि देशज भाषाओं और बोलियों को कमतर समझना उचित नहीं है। कोई भी व्यक्ति अपनी मातृभाषा में ही सबसे अधिक रचनात्मक हो सकता है, अतः शिक्षा का माध्यम मातृभाषा ही होनी चाहिए।
  इस कार्यक्रम में विशेष वक्ता के रूप में  प्रो. देवराज ने पूर्वोत्तर की भाषाओं पर विषेश वक्तव्य दिया । इसमें उन्होंने कहा कि  मातृभाषा व्यक्ति की पहचान और पारंपरिक ज्ञान की धरोहर होती है| आज हर दो सप्ताह में एक भाषा विलुप्त हो रही है। संकटापन्न भाषाओं को बचाने के लिए उनके बोलने वालों को बचाना आवश्यक है। देशज भाषाओं को समाप्त करने के लिए साम्राज्यवादी षड्यंत्र चल रहा है, जिसे समझकर उसे असफल बनाना विश्व की सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण एवं विकास के लिए आवश्यक है।

  कार्यक्रम के संयोजक डॉ. अनिल कुमार दुबे ने आयोजन की प्रस्तावना रखते हुए बताया कि संयुक्त राष्ट्र संघ के आह्वान पर सन् 2000 से यह दिवस समूचे विश्व में मनाया जाता है। 1952 में इसी दिन पूर्वी पाकिस्तान में उर्दू के साथ ही बांग्ला को पाकिस्तान की राजभाषा न बनाए जाने पर ढाका में आक्रोशित छात्रों की भीड़ पर की गई पुलिस गोलीबारी में चार छात्रों की मृत्यु हो गई थी। बाद में यही आंदोलन भाषाई अस्मिता के साथ-साथ स्वतंत्रता और समानता की जन आकांक्षा का प्रतीक बन गया। डॉ. ने दुबे ने बताया कि इस दिवस की इस वर्ष की थीम है- सतत विकास शांति स्थापना और सामंजस्य के माध्यम के रूप में देशज भाषाएँ

 संकटापन्न भाषाओं की सर्वाधिक संख्या भारत में ही है, जो 191 है। अपने अध्यक्षीय संबोधन में कार्यकारी कुलपति प्रो. लेला कारुण्यकरा ने कहा कि हमें अपनी मातृभाषा के प्रति समर्पण रखते हुए अन्य सभी भाषाओं का सम्मान करना चाहिए। धन्यवाद ज्ञापन करते हुए कार्यकारी कुलसचिव प्रो. कृष्ण कुमार सिंह ने कहा कि मातृभाषा व्यक्ति के अंतर्मन की सहज अभिव्यक्ति होती है। कार्यक्रम का संचालन डॉ. अनिल कुमार दुबे ने किया। कार्यक्रम में भारी संख्या में शिक्षक, शिक्षकेतर कर्मी, शोधार्थी और विद्यार्थी उपस्थित रहे-

 कार्यक्रम के दूसरे सत्र में अध्यापकों, शोधार्थियों तथा विदेशी एवं भारतीय विद्यार्थियों ने अपनी-अपनी मातृभाषाओं में भाषण, कविता पाठ और गीत गायन किया।

 कार्यक्रम के सफल आयोजन में संयोजन समिति के सदस्यों डॉ. धनजी प्रसाद, डॉ. राजीव रंजन राय एवं सुश्री विजय सिंह के साथ-साथ विभागीय कर्मियों का  विशेष योगदान दिया।

Friday, March 1, 2019

भाषा परिवर्तन का समाजभाषिक परिप्रेक्ष्य


भाषा परिवर्तन का समाजभाषिक परिप्रेक्ष्य
विशेष व्याख्यान : प्रो. उमाशंकर उपाध्याय, फरवरी 2019
चॉम्स्की और सस्यूर ने भाषा के दो रूपों को अलग-अलग प्रस्तुत किया है- लांग और परोल (सस्यूर); भाषा क्षमता और भाषा व्यवहार (चॉम्स्की)। इन विद्वानों ने भाषा के इन दोनों रूपों में से लांग या भाषा क्षमता (भाषा का अमूर्त रूप) के अध्ययन की बात की है, जो एकरूप होता है या जिसे एकरूप माना गया है। किंतु वास्तविकता यह है कि किसी भी भाषा का एकरूप संभव नहीं है। किसी भी समुदाय की भाषा व्यक्ति बोली से शुरू होकर बोली से होती हुई भाषा तक पहुंचती है, जिसमें कई समाज बोलियाँ (सोशियोलेक्ट्स) अपने-अपने स्तर से प्रभाव डालती हैं।
सामाजिक वर्ग या भौगोलिक क्षेत्र के आधार पर भाषाओं में एक ही भाषा में विभेद होता ही रहता है। एक स्थान की भाषा की भी बात की जाए तो विभिन्न प्रकार प्रयोगों, जैसे- औपचारिक, अनौपचारिक,आत्मीय आदि के आधार पर अंतर स्पष्ट लक्षित होता है। व्यवसाय और ज्ञान क्षेत्र के आधार पर भी भाषा में भेद पाया जाता है। इसी प्रकार भाषा की अलग-अलग शैलियां होती हैं। अतः भाषा रूप की बात की जाए तो वह इस बात पर निर्भर करता है कि कौन, क्या, किससे, कब, कहाँ और किस प्रयोजन से बोल रहा है? सीखने या ट्रांसमिशन की प्रक्रिया में भाषा रूप में धीरे-धीरे परिवर्तन होता है।
मानव शिशु को अर्जन के समय कोई एकरूप भाषा प्राप्त नहीं होती। वह विविध विषयों, विविध रूपों से प्राप्त भाषा इनपुट का अमूर्तीकरण करता है और अपने प्रयोग की भाषा सीखता है।
भाषा में कुछ परिवर्तन उसकी आंतरिक संरचनात्मक विशेषताओं (Intra-structural properties) के कारण भी होते हैं। भाषा इस रूप में विकसित होती है कि अनियमित चीजें नियमित हो जाती हैं। उदाहरण के लिए आरंभ में ने का प्रयोग केवल कहना के संदर्भ में होता था। यह बाद में धीरे-धीरे सभी सकर्मक क्रियाओं के साथ होने लगा।
अतः कहा जा सकता है कि समाजभाषिक परिवेश में विविधता के अनुसार भाषा का रूप बदलता रहता है और यह बदलाव स्वाभाविक है। भाषा परिवर्तन भाषा की आधारभूत विशेषता है। बिना परिवर्तन के कोई भी भाषा लंबे समय तक जीवित नहीं रह सकती। लिखित रूप और इलेक्ट्रॉनिक रूप के प्रचलन से भाषा के परिवर्तन की गति धीमी हुई है या ये माध्यम भाषा परिवर्तन की गति को धीमा करते हैं।

संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान (Cognitive Linguistics)


संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान
विशेष व्याख्यान : प्रो. उमाशंकर उपाध्याय, फरवरी 2019

वह भाषाविज्ञान जो मानव संज्ञान के सापेक्ष भाषा की स्थिति का अध्ययन करता है, संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान है। साधारण शब्दों में कहा जा सकता है कि word और world के बीच संबंध की खोज करने का प्रयास संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान करता है। चॉम्स्की का सिद्धांत भाषा को स्वतंत्र संरचना के रूप में देखता है। उसमें भाषा का विश्लेषण सिद्धांत के अंदर ही करने का प्रयास किया जाता है। संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान इससे आगे बढ़ते हुए भाषा को संसार और मानव संज्ञान की दृष्टि से भी देखने का प्रयास करता है।
संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान की कुछ युक्तियों को इस प्रकार देख सकते हैं-
·       शब्दों का मानवीय कोटिकरण
चीजों को वर्गीकृत करके समझना मानव मस्तिष्क की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। सभी भाषाओं में भिन्न-भिन्न प्रकार की चीजों को अलग-अलग प्रकार से वर्गीकृत किया गया है। संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान भी शब्दों को विविध आधारों पर कोटिकृत करके देखने का प्रयास करता है।
·       संकेतप्रयोगविज्ञान का परिप्रेक्ष्य
संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान संकेतप्रयोगविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में भाषिक अभिव्यक्ति का अर्थ देखने का प्रयास करता है। इसके अनुसार भाषिक अभिव्यक्तियों का अर्थ अपने संदर्भ में रहता है। इसलिए किसी भी अभिव्यक्ति को समझने के लिए उसे उसके संदर्भों के साथ देखना आवश्यक है।
·       अंतरक्रिया सिद्धांत (Interaction Theory)
संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान भाषा को अंतरक्रिया के दृष्टिकोण से भी देखने का प्रयास करता है।
·       प्रकार्यात्मक सिद्धांत (Functional Theory)
इस सिद्धांत के अनुसार भाषा में प्रतिमापरकता होती है प्रतिमाओं के हिसाब से भाषा में शब्द बनते हैं। लाघव का सिद्धांत मनुष्य की जन्मजात प्रवृत्ति है। यह सिद्धांत भाषाओं में भी पाया जाता है।
संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान की तीन धाराएं हैं, जो अपनी अपनी दृष्टि से भाषा पर विचार करते हैं। इन्हें इस प्रकार देखा जा सकता है-
·       प्रयोगात्मक दृष्टि (Experimental View)
इस दृष्टि के अनुसार शब्द का वास्तविक अर्थ उसके प्रयोक्ता के पास होता है। इस दृष्टि में अनुभवजन्य अर्थ पर बल होता है। इसके अनुसार वक्ता ही जानता है कि उसके मन में क्या चल रहा है? भाषा में ज्ञात के माध्यम से अज्ञात को रूपक द्वारा समझने का प्रयास किया जाता है। इस दृष्टि के प्रवर्तकों में लेकॉफ और जानसन प्रमुख हैं।
·       प्राधान्य दृष्टि (Prominence View)
इस दृष्टि के अनुसार हम हर चीज की प्रोफाइलिंग करते हैं और फिर उसे आधार (base) से अलग कर लेते हैं। इसमें फोकस आधार से हटकर प्रोफाइल को देते हैं। हम जिस चीज को देखते हैं, उसे अन्य चीजों से अलग कर देते हैं। डैनिश वैयाकरणों ने इस दृष्टि को प्रस्तावित किया है।
इस दृष्टि का प्रयोग भाषाविज्ञान में भी किया जाता है। इसके अनुसार प्रत्येक रचना को दूसरी रचनाओं से अलग करके देखा जा सकता है। आकृति और आधार का प्रयोग व्याकरणिक रूपों और रचनाओं को अलगाने के लिए किया जाता है।
·       अवधानात्मक दृष्टि (Attention View)
इसके अनुसार जब कोई घटना घटित होती है, तो उसके कई आयाम होते हैं। उनमें से जो आयाम वक्ता को आकर्षित करते हैं, वक्ता की अभिव्यक्ति उसे प्रतिबिंबित करती है। ज्ञान के किसी पक्ष को लेकर हम फ्रेम बनाते हैं। जब कोई नई चीज आती है, तो उसे उचित फ्रेम में रखते हैं। इस दृष्टि को फिल्मोर ने 1975 ई. में प्रस्तुत किया।