संज्ञानात्मक
भाषाविज्ञान
विशेष
व्याख्यान : प्रो. उमाशंकर उपाध्याय, फरवरी 2019
वह भाषाविज्ञान
जो मानव संज्ञान के सापेक्ष भाषा की स्थिति का अध्ययन करता है, संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान है। साधारण शब्दों में कहा जा सकता है कि word और world के बीच संबंध की खोज करने का प्रयास
संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान करता है। चॉम्स्की का सिद्धांत भाषा को स्वतंत्र संरचना
के रूप में देखता है। उसमें भाषा का विश्लेषण सिद्धांत के अंदर ही करने का प्रयास
किया जाता है। संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान इससे आगे बढ़ते हुए भाषा को संसार और मानव
संज्ञान की दृष्टि से भी देखने का प्रयास करता है।
संज्ञानात्मक
भाषाविज्ञान की कुछ युक्तियों को इस प्रकार देख सकते हैं-
·
शब्दों का मानवीय कोटिकरण
चीजों को वर्गीकृत करके समझना मानव
मस्तिष्क की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। सभी भाषाओं में भिन्न-भिन्न प्रकार की चीजों
को अलग-अलग प्रकार से वर्गीकृत किया गया है। संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान भी शब्दों को
विविध आधारों पर कोटिकृत करके देखने का प्रयास करता है।
·
संकेतप्रयोगविज्ञान का
परिप्रेक्ष्य
संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान संकेतप्रयोगविज्ञान
के परिप्रेक्ष्य में भाषिक अभिव्यक्ति का अर्थ देखने का प्रयास करता है। इसके
अनुसार भाषिक अभिव्यक्तियों का अर्थ अपने संदर्भ में रहता है। इसलिए किसी भी
अभिव्यक्ति को समझने के लिए उसे उसके संदर्भों के साथ देखना आवश्यक है।
·
अंतरक्रिया सिद्धांत (Interaction
Theory)
संज्ञानात्मक भाषाविज्ञान भाषा को अंतरक्रिया
के दृष्टिकोण से भी देखने का प्रयास करता है।
·
प्रकार्यात्मक सिद्धांत (Functional
Theory)
इस सिद्धांत के अनुसार भाषा में प्रतिमापरकता
होती है प्रतिमाओं के हिसाब से भाषा में शब्द बनते हैं। लाघव का सिद्धांत मनुष्य
की जन्मजात प्रवृत्ति है। यह सिद्धांत भाषाओं में भी पाया जाता है।
संज्ञानात्मक
भाषाविज्ञान की तीन धाराएं हैं, जो अपनी अपनी दृष्टि से
भाषा पर विचार करते हैं। इन्हें इस प्रकार देखा जा सकता है-
·
प्रयोगात्मक दृष्टि (Experimental
View)
इस दृष्टि के अनुसार शब्द का वास्तविक
अर्थ उसके प्रयोक्ता के पास होता है। इस दृष्टि में अनुभवजन्य अर्थ पर बल होता है।
इसके अनुसार वक्ता ही जानता है कि उसके मन में क्या चल रहा है? भाषा में ज्ञात के माध्यम से अज्ञात को रूपक द्वारा समझने का प्रयास किया
जाता है। इस दृष्टि के प्रवर्तकों में लेकॉफ और जानसन प्रमुख हैं।
·
प्राधान्य दृष्टि (Prominence
View)
इस दृष्टि के अनुसार हम हर चीज की
प्रोफाइलिंग करते हैं और फिर उसे आधार (base) से अलग
कर लेते हैं। इसमें फोकस आधार से हटकर प्रोफाइल को देते हैं। हम जिस चीज को देखते
हैं, उसे अन्य चीजों से अलग कर देते हैं। डैनिश वैयाकरणों ने
इस दृष्टि को प्रस्तावित किया है।
इस दृष्टि का प्रयोग भाषाविज्ञान में भी
किया जाता है। इसके अनुसार प्रत्येक रचना को दूसरी रचनाओं से अलग करके देखा जा
सकता है। आकृति और आधार का प्रयोग व्याकरणिक रूपों और रचनाओं को अलगाने के लिए
किया जाता है।
·
अवधानात्मक दृष्टि (Attention
View)
इसके अनुसार जब कोई घटना घटित होती है, तो उसके कई आयाम होते हैं। उनमें से जो आयाम वक्ता को आकर्षित करते हैं, वक्ता की अभिव्यक्ति उसे प्रतिबिंबित करती है। ज्ञान के किसी पक्ष को
लेकर हम फ्रेम बनाते हैं। जब कोई नई चीज आती है, तो उसे उचित
फ्रेम में रखते हैं। इस दृष्टि को फिल्मोर ने 1975 ई. में
प्रस्तुत किया।
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