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Wednesday, December 6, 2017

भाषा परिवर्तन और उपनिवेशवाद


यूरोपीय देशों में उपनिवेशवाद ने 15वीं शताब्दी के आरंभ से ही अपना व्यापक प्रभाव दिखाना आरंभ कर दिया था। इसका प्रभाव केवल राजनैतिक और सामाजिक ही नहीं रहा बल्कि सांस्कृतिक और भाषाई क्षेत्र में भी व्यापक असर हुआ। भाषा की दृष्टि से बात करें तो इस दौरान सभी प्रमुख यूरोपीय देश अफ्रीका, अमेरिका और एशिया के देशों के संपर्क में आए। इनमें संपर्क के लिए सबसे बड़ा माध्यम और सबसे बड़ी बाधा भाषा ही थी। इसलिए इन नए ज्ञात देशों की भाषाओं के अध्ययन हेतु यूरोपीय लोगों द्वारा व्यापक प्रयास किया गया। उपनिवेशवादी प्रशासक, यात्री, ईसाई मिशनरियाँ और अन्य संबंधित लोगों ने शब्द, व्याकरण और पाठ तीनों ही क्षेत्रों में अपने-अपने स्तर पर अध्ययन-विवेचन किया।
विभिन्न विद्वानों द्वारा सबसे अधिक मात्रा में भाषाओं की तुलनात्मक शब्द सूची पहले तैयार की गई। इससे एक लाभ यह हुआ कि एक से अधिक भाषाओं के बीच संबंध होने पर उसके भी संकेत मिल जाते थे। इसी प्रकार संबंध नहीं होने को भी प्राप्त कर लिया जाता था। इसी अध्ययन पद्धति ने भाषा अध्ययन के क्षेत्र में एक आयाम – तुलनात्मक अध्ययन का सूत्रपात किया, जो बाद में नवव्याकरणविद परंपरा (Neogrammarian tradition) के रूप में उभरकर सामने आई। यह परंपरा उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में अत्यंत प्रचलित रही है।
16वीं शताब्दी के अंत में यह अवधारणा जोर पकड़ने लगी कि अधिकांश यूरोपीय भाषाएँ एक दूसरे संबंधित होकर एक भाषा परिवार की स्थापना करती हैं। इसके बाद इस क्षेत्र में व्यापक कार्य आरंभ हुआ। इस क्षेत्र में कार्य करने वाले आरंभिक विद्वानों में Andreas Jager (1660 -1730) और William Jones (1746-1794) का प्रमुख योगदान रहा है। विलियम जोंस को ही भारोपीय भाषाओं (Indo-European Languages) में सहसंबंधों की खोज और तुलनात्मक भाषाविज्ञान की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है। 1789 में विलियम जोंस ने कहा था कि संस्कृत, ग्रीक और लैटिन भाषाओं में पर्याप्त समानताएँ हैं। इससे यूरोपीय विद्वानों का भारतीय और अन्य प्रमुख एशियाई भाषाओं के अध्ययन के प्रति ध्यान आकर्षित हुआ। इसके बाद अन्य भाषा परिवारों की खोज विभिन्न विद्वानों द्वारा की गई।

उपनिवेशवाद का भाषाविज्ञान के क्षेत्र में केवल इतना ही योगदान नहीं रहा है कि तुलनात्मक अध्ययन और भाषाओं के वर्गीकरण की शुरुवात हुई। बल्कि इसी के कारण अलग-अलग दृष्टिकोण से यूरोपीय भाषाओं के व्याकरण लिखे गए, और जिन देशों में इनका उपनिवेश स्थापित हो चुका था उनकी भाषाओं के व्याकरण भी लिखे गए। इस क्षेत्र में मिशनरियों ने बहुत अधिक कार्य किया। 17वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक उनके व्याकरण अत्यंत प्रभावशाली और उपयोगी रहे। पीजिन और क्रिओल भाषाओं की उत्पत्ति में भी उपनिवेशवादी परंपरा का योगदान रहा है।

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