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Saturday, October 20, 2018

हिंदी का अधुनिक विकास और संवैधानिक स्थिति


(दूर शिक्षाम.गा.अं.हिं.वि.,वर्धा के एम.ए. हिंदी की पाठ्य सामग्री में)

पाठ्यचर्या का शीर्षक : हिंदी भाषा का विकास एवं नागरी लिपि
खंड-4 : हिंदी के विविध रूप

 इकाई -3 : “हिंदी का अधुनिक विकास और संवैधानिक स्थिति”

15.1 प्रस्तावना
आज हिंदी भारत की सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है। संवैधानिक दृष्टि से यह भारत की राजभाषा है। भारत में कार्यालयों, बैंकों, विद्यालयों, अस्पतालों आदि में अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी का सर्वाधिक प्रयोग किया जाता है। भारत सरकार की तरफ से भी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के विकास तथा प्रचार-प्रचार के लिए समय-समय पर अनेक कदम उठाए गए हैं। व्यापारिक प्रतिष्ठानों मुख्यतः उत्पादों पर भी अंग्रेजी के अतिरिक्त हिंदी में सूचनाएँ देखी जा सकती हैं। इसके अतिरिक्त विज्ञापन, दूरदर्शन, आकाशवाणी, एफ. एम. और फिल्म निर्माण आदि सभी कार्यों में हिंदी का प्रमुख स्थान है।
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि सभी आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की जननी संस्कृत है। इससे ही धीरे-धीरे अन्य भाषाओं का विकास हुआ है। सन् 1000 ई. के आसपास से व्यवहार और साहित्यिक उक्तियों में हिंदी का प्रयोग आरंभ हुआ और एक भाषा के रूप में इसका उदय 19वीं सदी के मध्य में भारतेंदु काल में होता है जब इसमें गद्य लेखन आरंभ हो गया। द्विवेदी युग में हिंदी अपने मानकीकरण की तरफ बढ़ चली और गद्य के साथ-साथ पद्य की भी भाषा बन गई। अब धीरे-धीरे हिंदी भारतीय जनमानस को जोड़ने का कार्य भी करने लगी। स्वतंत्रता आंदोलनों के इतिहास में इसकी महत्ता को देखा जा सकता है।
देश के स्वतंत्र होने के साथ ही हिंदी को भारत की राजभाषा का स्थान मिला। इसके साथ-साथ हिंदी माध्यम से पठन-पाठन का कार्य भी आरंभ किया गया। सभी भारतीय कार्यालयों में अंग्रेजी के साथ हिंदी के व्यवहार और बाद में केवल हिंदी के प्रयोग का प्रावधान भी किया गया। किंतु तात्कालिक प्रावधानों एवं प्रयासों को भारत की बहुभाषिक स्थिति और तात्कालिक जनाआंदोलनों के कारण नुकसान हुआ और यह कभी भी भारतीय कार्यालयों में पूर्णत: अंग्रेजी का स्थान नहीं ले सकी। उच्च-शिक्षा में  पठन-पाठन की भाषा भी सामान्यत: अभी भी अंग्रेजी ही बनी हुई है।
किंतु इन सभी बातों के बावजूद हिंदी ने पिछले 50 वर्षों में बहुत तरक्की की है। कार्यालयी व्यवहार, संप्रेषण एवं संचार के माध्यमों में व्यवहार तथा प्रौद्योगिकीय साधनों में प्रयोग आदि की दृष्टि से हिंदी बहुत उन्नत हुई है। हिंदी में पठन-पाठन एवं लेखन में भी पिछले तीन-चार दशकों में व्यापक विस्तार हुआ है जो निरंतर बढ़ता जा रहा है। आज हिंदी में तकनीकी क्षेत्रों से जुड़ी अनेक छोटी-बड़ी पुस्तकें एवं पत्रिकाएँ प्राप्त की जा सकती हैं। कंप्यूटर, सॉफ्टवेयर, ऑपरेटिंग सिस्टम और प्रोग्रामिंग आदि से संबंधित हिंदी पुस्तकें प्राप्त की जा सकती हैं। इनके अतिरिक्त हिंदी में तकनीकी क्षेत्रों से जुड़ी कुछ पत्रिकाएँ भी प्रकाशित होती हैं जो अत्यंत सरल भाषा में तकनीकी साधनों के उपयोग, उनकी आंतरिक संरचना, सीमाओं और समस्याओं के बारे में अद्यतन सूचनाएँ प्रदान कर रहीं हैं।
पहले आधुनिक युग में हिंदी के विस्तार के क्षेत्र में सबसे बड़ी समस्या इसमें तकनीकी शब्दों का अभाव माना जाता था किंतु वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली निर्माण आयोग द्वारा निर्मित पारिभाषिक शब्द संग्रह इस समस्या का समाधान करता है जिसमें लाखों शब्दों का संकलन किया गया है। इसके अलावा आज हिंदी में और हिंदी के लिए अनेक सॉफ्टवेयर भी विकसित कर लिए गए हैं। अत: आधुनिक युग में हिंदी का सर्वांगीण विकास हुआ है जिससे प्रस्तुत इकाई में आपको परिचित कराया जा रहा है।
15.2 ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: आदिकाल से भारतेंदु युग तक
हिंदी भाषा के विकास के समस्त इतिहास को मुख्यत: तीन कालखण्डों में विभाजित किया जाता है: आदिकाल (1000 ई. से 1500 ई.), मध्यकाल (1500 ई. से 1850 ई.), आधुनिक काल (1850 ई. से आज तक)। आधुनिक हिंदी का वास्तविक आरंभ भारतेंदु युग में हुआ जब भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा  तात्कालिक सामाजिक परिस्तिथियों के कारण भारतीय जनमानस में भाषिक एवं साहित्यिक चेतना जगाने हेतु हिंदी को साहित्य की भाषा के रूप में स्थापित किया गया। किंतु हिंदी के भाषिक प्रयोगों के उदाहरण सन् 1000 ई. के आसपास से ही मिलने लगते हैं। अत: आधुनिक हिंदी के विकास को समझने से पूर्व इस खंड में हिंदी के विकास की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर संक्षेप में प्रकाश डाला जा रहा है, जिसे तीन उपभागों में बाँटा गया है:
15.2.1 आदिकाल
हिंदी और अन्य आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का उद्भव 1000 ई. के आसपास माना जाता है। हिंदी का आदिकालीन रूप अमीर खुसरो, कबीर, गोरखनाथ, रैदास, नामदेव, एवं रामानंद आदि की रचनाओं में प्राप्त होता है। इस समय की भाषा में तद्भव और देशज शब्दों का अधिक प्रयोग हो रहा था एवं अरबी, फ़ारसी आदि भाषाओं के शब्द अपना स्थान बना रहे थे। खड़ी बोली (या हिंदवी) का एक नमूना अमीर खुसरो की निम्नलिखित शायरी में देखा जा सकता है:
खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग।
तन मेरो मन पीउ को, दोउ भए इक रंग।
15.2.2 मध्यकाल
मध्यकाल में हिंदी के भाषा-रूपों का सर्वांगीण विकास हुआ और अनेक उन्नत ग्रंथों की रचना हुई। इस काल में खड़ी बोली हिंदी का प्रत्यक्ष विकास बहुत कम हुआ किंतु हिंदी के बोलीगत रूपों में अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना हुई। इन रूपों में ब्रजभाषा, अवधी, दक्खिनी तथा उर्दू प्रमुख हैं। भाषिक दृष्टि से अरबी, फ़ारसी, तुर्की और पश्तो के अनेक शब्द खड़ी बोली में आ चुके थे। इस काल के अंत तक अंग्रेजी, फ्रेंच, डच तथा पुर्तगाली भाषाओं के शब्द भी हिंदी में प्रवेश करने लगे थे। इस काल के प्रमुख रचनाकार नानक, दादू, गंग, मलूकदास, रहीम, आलम आदि हैं जिनकी रचनाओं में हिंदी का पर्याप्त पुट प्राप्त होता है।
15.2.3 भारतेंदु पूर्व तात्कालिक प्रयास
18वीं शताब्दी के अंत से ही हिंदी प्रयोगों और हिंदी में रचनाओं के प्रयास दिखाई पड़ने लगते हैं जिनमें आधुनिक हिंदी की नींव प्राप्त होती है। भारतेंदु पूर्व तात्कालिक प्रयासों को निम्नलिखित उपशीर्षकों में विभाजित कर समझा जा सकता है:
(क)   फोर्ट विलियम कॉलेज : सन् 1800 ई. में गवर्नर जनरल लार्ड वेलजली ने फोर्ट विलियम कॉलेज, कलकत्ता की स्थापना की। इधर 1790 ई. तक जॉन बोर्थविक गिलक्राइस्ट ने ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रशासकों को हिंदी सिखाने के लिए अंग्रेजी और हिंदुस्तानी कोश के दो भाग प्रकाशित किए। उन्होंने भारतीय भाषाओं का अध्ययन किया और उस समय की हिंदी को हिंदुस्तानी नाम देते हुए हिंदुस्तानी ग्रामर (1796-98) और ओरियेंटल लिंग्विस्ट (1798) ग्रंथों की रचना की।
(ख)  हिंदी पत्र-पत्रिकाएँ:  19वीं शताब्दी के आरंभ में भारत में अनेक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन आरंभ हुआ।  ई. उदंत मार्तंड (1825), ई. बंगदूत (1828), ई. में बनारस अखबार (1844), बुद्धि प्रकाश (1852) आदि जैसे पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन से खड़ी बोली का तीव्र विकास एवं प्रसार हुआ। इनकी भाषा बोलचाल की भाषा थी जो मिश्रित एवं ठेठ है।
(ग)    राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद एवं राजा लक्ष्मण सिंह: 1850 ई. के लगभग हिंदी के इतिहास में दो रचनाकारों का आगमन हुआ: राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद एवं राजा लक्ष्मण सिंह। राजा शिवप्रसाद ने हिंदी के साथ-साथ उर्दू के प्रयोग पर बल दिया। इधर दूसरी तरफ राजा लक्ष्मण सिंह एवं कुछ अन्य लेखकों ने शिवप्रसाद की भाषा नीति का विरोध किया। इन लोगों ने हिंदी की संस्कृतनिष्ठता पर बल दिया; अर्थात् हिंदी में संस्कृत शब्दों के अधिक-से-अधिक प्रयोग का पक्ष लिया।
(घ)    ईसाई मिशनरियाँ: इधर धर्मप्रचार के लिए ही सही किंतु ईसाई मिशनरियों ने भी खड़ी बोली में अनेक धर्म संबंधी पुस्तकों को प्रकाशित कराया। इसके अतिरिक्त इनके द्वारा अनेक स्कूल औ कॉलेज खोले गए जिनके लिए साहित्य, व्याकरण, इतिहास, भूगोल, चिकित्सा एवं विज्ञान आदि से संबंधित पाठ्य-पुस्तकें प्रकाशित की गईं।
15.3  हिंदी का आधुनिक विकास
भारतेंदु हरिश्चंद्र को आधुनिक हिंदी साहित्य का जनक कहा गया है जिन्होंने सभी साहित्यिक विधाओं में हिंदी के प्रयोग को स्थान दिलाया। इसके पश्चात् द्विवेदी युग में मानकीकरण को प्राप्त करते हुए स्वतंत्रता पूर्व तक हिंदी अधिकाधिक भारतीय जनमानस की भाषा बन जाती है। इस ऐतिहासिक विकास को निम्नलिखित तीन उपशीर्षओं के अंतर्गत समझा जा सकता है:
15.3.1 भारतेंदु युग
15.3.2 द्विवेदी युग
15.3.3 अन्य साहित्यिक गतिविधियाँ
15.3.1 भारतेंदु युग
आधुनिक हिंदी का आरंभ सन् 1850 ई. के बाद से माना जाता है जिसकी नींव भारतेंदु हरिश्चंद्र (1850-1885) ने रखी। 1873 ई. में हरिश्चंद्र मैग़जीन का प्रकाशन आरंभ हुआ जिसमें खड़ी बोली का व्यावहारिक रूप उभरकर सामने आया। हिंदी में गद्य रचना का वास्तविक आरंभ इसी काल में हुआ। कविवचन सुधा के प्रकाशन से पत्रकारिता का नया युग आरंभ हुआ। इसके अतिरिक्त हरिश्चंद्र चंद्रिका एवं बालबोधिनी आदि पत्रिकाओं में खड़ी बोली का प्रयोग सुदृढ़ हुआ। भारतेंदु ने विभिन्न साहित्यिक विधाओं जैसे: नाटक, कहानी, निबंध आदि में अनेक रचनाएँ की। उनके नाटकों में सत्य-हरिश्चंद्र, भारत-दुर्दशा, प्रेम योगिनी, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति आदि महत्वपूर्ण है। उनका निबंध भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है बहुत लोकप्रिय रहा है।
भारतेंदु हरिश्चंद्र के सहयोगियों ने काव्य को नई दिशा प्रदान की। यद्यपि भारतेंदु ने खड़ी बोली में काव्य रचनाएँ नहीं की, किंतु इस काल के अन्य कवियों ने धीरे-धीरे खड़ी बोली में काव्य रचना आरंभ की। इस संदर्भ में अयोध्या प्रसाद खत्री का खड़ी बोली का आंदोलन उल्लेखनीय है। इसी क्रम में 1887 ई. में कविताओं का एक संकलन प्रकाशित हुआ।
राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद की अरबी-फ़ारसी से युक्त हिंदी और राजा लक्ष्मण सिंह की संस्कृतनिष्ठ हिंदी दोनों का ही भारतेंदु ने प्रयोग नहीं किया और मध्यम मार्ग निकालते हुए साधु शैली का विकास किया। उनका प्रयास यही रहा कि हिंदी से हिंदीपन न जाने पाए और खड़ी बोली के संस्कृतनिष्ठ या क्लिष्ट प्रयोगों से भी हिंदी बची रहे। उन्होंने 1873 ई. में हिंदी के साधु रूप को नए चाल की हिंदी नाम दिया। उनके साहित्य में सभी प्रकार की गद्य शैलियाँ देखने को मिलती हैं।
हिंदी भाषा के विकास में भारतेंदु के योगदान का अनुमान आचार्य रामचंद्र शुक्ल के निम्नलिखित कथन से लगाया जा सकता है, “जब भारतेंदु अपनी मँजी हुई परिष्कृत भाषा सामने लाए तो हिंदी बोलने वाली जनता को गद्य के लिए खड़ी बोली का प्राकृत साहित्यिक रूप मिल गया और भाषा के स्वरूप का प्रश्न न रह गया। भाषा का स्वरूप स्थिर हो गया।”
                                                                                                (हिंदी साहित्य का इतिहास)
भारतेंदु युग में भारतेंदु के अलावा अन्य कुछ प्रमुख साहित्यकारों ने भी उनकी ही शैली को अपनाते हुए साहित्यिक रचनाएं की। इनमें श्रीनिवास दास, पं. प्रतापनारायण मिश्र, बद्रीनारायण चौधरी, राधाचरण गोस्वामी, बालकृष्ण भट्ट, देवकीनंदन खत्री, गोपालराम गहमरी एवं बालमुकुंद गुप्त आदि प्रमुख हैं। इनमें से अधिकांश लेखक पत्रकारिता से भी जुड़े हुए थे। इस काल की रचनाओं में सामान्यत: सहज एवं सरल भाषा अपनाई गई। इस कारण खड़ी बोली में ब्रजभाषा और पूर्वी हिंदी का प्रभाव पूर्णत: समाप्त नहीं हो पाया। शब्दावली की दृष्टि से अरबी-फ़ारसी के शब्दों का प्रयोग तो यथावश्यक चलता ही रहा, अंग्रेजी के शब्द भी धीरे-धीरे स्थान बना रहे थे।
19वीं शताब्बदी के अंत तक खड़ी बोली साहित्यिक भाषा के रूप में अपना स्थान बना चुकी थी। इसे हिंदी के भाषाविद् डॉ. हरदेव बाहरी के शब्दों में देखा जा सकता है,
“उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध की भाषा स्थिति का अवलोकन करने पर इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि भारतेंदु हरिश्चंद्र और उनके युग के साथी खड़ी बोली की उन्नति के लिए बहुत सक्रिय थे और उन्होंने मौलिक कृतियों तथा अनुवाद द्वारा साहित्य को समृद्ध करने का भरसक प्रयत्न किया परंतु भाषा शैली परिमार्जित नहीं हो पाई थी। अत: सामान्य रूप से भाषाक का गठन, शब्दावली प्रयोग, वर्तनी, व्याकरण तथा कथ्य की अव्यवस्था बनी रही। भारतेंदु भाषा नीति के संबंध में जागरूक अवश्य थे। उन्होंने राजा शिवप्रसाद सिंह और राजा लक्ष्मण सिंह की भाषा पद्धति में से एक बीच का मार्ग निकाला तो, परंतु प्राय: लेखकगण अपने-अपने ढ़ंग से चलते रहे।... काव्यभाषा में ब्रजभाषा का प्रयोग चलते रहने के कारण खड़ी बोली साहित्य की वेदी पर प्रतिष्ठित तो हुई परंतु एक आदर्श की स्थापना नहीं हो पाई।”
इसी दौरान 1893 ई. में काशी में बाबू श्यामसुंदर दास द्वारा नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना की गई जिसका उद्देश्य साहित्यिक दृष्टि से हिंदी को अत्यधिक सबल बनाते हुए इसका अधिकाधिक प्रचार-प्रसार करना था। इस सभा से पं. मदनमोहन मालवीय, अंबिकादत्त व्यास, राधाचरण गोस्वामी, श्रीधर पाठक, बद्री नारायण चौधरी आदि संबद्ध रहे। नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा हिंदी शब्द सागर शब्दकोश का प्रकाशन किया गया जिसकी भूमिका के रूप में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहास की रचना की।
15.3.2 द्विवेदी युग
द्विवेदी युग जहाँ एक ओर हिंदी भाषा के गद्य रूप के मानकीकरण का काल है वहीं खड़ी बोली को पूर्ण रूप से काव्य-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने वाला युग भी है। काशी नागरी प्रचारिणी सभा के अनुमोदन से सन् 1900 ई. में सरस्वती पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया गया। इस पत्रिका में गद्य-पद्य की सभी विधाओं यथा नाटक, शिल्प, कथा-कौशल एवं साहित्यिक रचनाओं की समालोचना का प्रकाशन होता था। सन् 1903 ई. में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इस पत्रिका के संपादकत्व का भार संभाला एवं लगभग 20 वर्षों तक यह कार्य निष्ठापूर्वक करते रहे।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरल एवं शुद्ध भाषा के प्रयोग पर बल दिया। तद्भव शब्दों के साथ-साथ विषय एवं शैली की आवश्यकता के अनुसार वे संस्कृत और उर्दू के शब्दों का भी प्रयोग करते थे। सरस्वती पत्रिका के माध्यम से उन्होंने हिंदी भाषा का परिष्कार किया और इसे मानक बनाने में प्रयासरत रहे। इसके लिए वे लेखकों की वर्तनी एवं व्याकरण से संबंधित त्रुटियों का सुधार स्वयं करते थे। किसी भी सामग्री का संशोधन करते समय वे ध्यान रखते थे कि वह सामग्री अन्य लोगों की समझ में आ सके। इस संबंध में उनका कहना था,
“यह न देखना कि यह शब्द अरबी का है या फ़ारसी का या तुर्की का। देखना सिर्फ यह कि इस शब्द, वाक्य या लेख का आशय अधिकांश पाठक समझ लेंगे या नहीं। अल्पज्ञ होकर भी किसी पर विद्वता की झूठी छाप छापने की कोशिश मैंने कभी नहीं की।”
अपने बृहद प्रयासों से आचार्य द्विवेदी ने खड़ी बोली हिंदी के प्रत्येक अंग को परिष्कृत किया तथा इस कार्य के लिए अन्य समकालीन लेखकों को भी प्रेरित किया। उनके कार्यों से अनेक समकालीन कवि एवं रचनाकार प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हुए। मैथिलीशरण गुप्त, हरिऔध, श्रीधर पाठक, लोचनप्रसाद पाण्डेय आदि ने उनके कार्य का समर्थन करते हुए खड़ी बोली में साहित्य रचना का कार्य आरंभ किया। धीरे-धीरे अन्य रचनाकार भी इस ओर प्रवृत्त हुए और विविध विधाओं में हिंदी में रचनाएँ हुईं। हिंदी साहित्य में संस्कृत या उर्दू के शब्दों के प्रयोग, विदेशी शब्दावली का ग्रहण, एवं भाषा में स्वाभाविकता, प्रवाह तथा मानकता बनाए रखने संबंधी अनेक प्रश्न उठाए गए, उनकी प्रतिक्रिया हुई, टीका टिप्पणी हुई, पत्र-व्यवहार हुआ एवं गोष्ठियाँ हुईं। इस प्रकार खड़ी बोली हिंदी तात्कालीन जनमानस की साहित्यिक अभिव्यक्ति का पूर्णत: माध्यम बन गई तथा ब्रजभाषा साहित्य जगत से बाहर हो गई।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि इस युग ने जहाँ एक ओर साहित्यिक हिंदी के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, वहीं दूसरी ओर खड़ी बोली हिंदी को गद्य एवं पद्य दोनों ही क्षेत्रों हिंदी भाषी जनमानस की अभिव्यक्ति की भाषा बना दिया।
15.3.3 अन्य साहित्यिक गतिविधियाँ
द्विवेदी के साथ ही हिंदी का साहित्यिक और साहित्येतर क्षेत्रों में विविध प्रकार से प्रयोग होने लगे थे। उनमें से प्रमुख को चुनते हुए प्रस्तुत शीर्षक में द्विवेदी युग से स्वतंत्रता पूर्व तक के काल को समाहित किया जा रहा है जिसमें मुख्यत: हिंदी साहित्य के दो युग – छायावादी युग (1920 से 1936) एवं प्रगतिवादी युग (1936 से 1946) आते हैं। छायावादी युग को साहित्यिक खड़ी बोली हिंदी का उत्कर्ष काल कहा जा सकता है। इस युग की रचनाओं में सूक्ष्म एवं अमूर्त भावों जैसे: सुख-दुख, आशा-निराशा, प्रेम की विविध दशाओं एवं विचारों आदि को व्यक्त किया गया है। इस प्रकार, इस युग में हिंदी में अनेक भाषाई गुणों का समावेश हुआ। इस काल की रचनाओं में भावों के मूर्तीकरण एवं प्रतीकों के विधान से भाषा में मधुरता, सरसता एवं व्यापकता आई। अत: कहा जा सकता है कि इस काल ने हिंदी के परिमार्जित और श्रेष्ठ रूप को प्रस्तुत किया।
छायावाद के बाद हिंदी साहित्य के इतिहास में प्रगतिवाद और प्रयोगवाद आते हैं। प्रगतिवादी युग के साहित्यकारों की सहानुभूति निम्नवर्ग के विशाल समुदाय – गरीब किसान, पीड़ित और शोषित मजदूर और सामान्य लोगों के प्रति जगी जिसे उन्होंने जनभाषा के माध्यम से व्यक्त किया। इस काल के लेखकों की भाषा में तद्भव शब्दों का प्रयोग बढ़ा। इन लोगों ने लाक्षणिक की जगह अभिधात्मक (सीधे-सीधे कह देना) शैली को अपनाया। इस कारण इस युग की भाषा सरल और स्वाभाविक दिखाई पड़ती है।
इसी दौरान प्रगतिवाद की एकरसता एवं अभिधात्मकता से अलग होकर कुछ कवि नए विषयों, नए छंदों, नए प्रतीकों एवं नई भाषा शैली की खोज करने लगे। इन्हें ही प्रयोगवादी नाम दिया गया जिनमें अज्ञेय, मुक्तिबोध, शमशेर आदि प्रमुख हैं।
इस प्रकार स्वतंत्रता पूर्व की तात्कालिक साहित्यिक गतिविधियों ने न केवल खड़ी बोली हिंदी को सूक्ष्म भावों की अभिव्यक्ति में सक्षम बनाया बल्कि उसमें सरलता, सहजता एवं स्पष्टता लाते हुए उसे आम जनमानस से भी जोड़ने का कार्य किया।
15.5 आधुनिक युग में हिंदी भाषा: विविधता एवं विस्तार
स्वतंत्रता के पश्चात् हिंदी भाषा केवल साहित्य, बातचीत और जनमानस की अभिव्यक्ति का साधन नहीं रह गई है बल्कि यह तो कार्यालयी कामकाज, पठन-पाठन, ज्ञान-विज्ञान, सिनेमा एवं दूरदर्शन, मीडिया एवं प्रौद्योगिकी सभी क्षेत्रों की भाषा बन गई है। आधुनिक युग में हिंदी के विस्तार को निम्नलिखित उपशीर्षकों के अंतर्गत व्यवस्थित रूप से समझा जा सकता है:
15.5.1 हिंदी भाषी क्षेत्र : हिंदी और इसकी बोलियाँ उत्तर एवँ मध्य भारत के विविध राज्यों में बोली जाती हैं। भारत में हिंदी भाषी राज्यों में उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तरांचल, राजस्थान, मध्यप्रदेश, हिमांचल प्रदेश, पंजाब, झारखंड, छत्तीसगढ़, एवं हरियाणा आदि मुख्य हैं। भारत और  अन्य देशों में करोड़ों लोग हिंदी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। मॉरिशस, फ़िजी, गुयाना, सूरीनाम की आधिकांश और नेपाल की कुछ जनता हिंदी बोलती है। इस प्रकार देश-विदेश में विस्तार की दृष्टि से हिंदी एक वैश्विक भाषा के रूप में अपने-आप को स्थापित करती है।
15.5.2 हिंदी की बोलियाँ : जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि सभी आधुनिक भारतीय आर्यभाषाएँ संस्कृत से विकसित हुई हैं; अत: इन भाषाओं के मातृभाषी एक दूसरे की बातों को समझ लेते हैं। सामान्यत: इन सभी के बीच संप्रेषण की औपचारिक भाषा हिंदी ही होती है। इनके मातृभाषी अपना औपचारिक कामकाज एवं उच्च शिक्षा का ग्रहण हिंदी में ही करते हैं। इस तरह से कहा जा सकता है कि हिंदी इनकी प्रतिनिधि भाषा है। इस कारण व्यापक दृष्टि अपनाते हुए इन्हें हिंदी की बोलियाँ ही कहा जाता है। हिंदी की प्रमुख बोलियों को उपभाषाओं के साथ वर्गीकृत करते हुए संक्षेप में इस प्रकार देखा जा सकता है:    
उपभाषा (अथवा बोली वर्ग)
बोलियाँ
पश्चिमी हिंदी 
कौरवी (खड़ी बोली)
हरियाणी
ब्रजभाषा
बुंदेली
कन्नौजी
पूर्वी हिंदी 
अवधी
बघेली
छत्तीसगढ़ी   
राजस्थानी
पश्चिमी राजस्थानी (मारवाड़ी)
पूर्वी राजस्थानी (जयपुरी)
उत्तरी राजस्थानी (मेवाती)
दक्षिणी राजस्थानी (मालवी)
पहाड़ी
पश्चिमी पहाड़ी
मध्यवर्ती पहाड़ी (कुमाऊँनी-गढ़वाली)
बिहारी
भोजपुरी
मगही
मैथिली
  संदर्भ (भोलानाथ तिवारी, हिंदी भाषा का इतिहास, 2010, पृ. 80)
15.5.3 हिंदी का मानकीकरण
हिंदी का मानक रूप क्या हो? क्या खड़ी बोली ही मानक हिंदी है? इस तरह के कुछ प्रश्न हैं जो आधुनिक हिंदी के संदर्भ में खड़े किए जाते हैं। जैसा कि ऊपर दिखाया जा चुका है कि हिंदी किसी स्थान या प्रदेश विशेष की भाषा नहीं है, बल्कि यह अनेक बोलियों (उपभाषाओं) की प्रतिनिधि भी है। वर्तमान में यह देश की राजभाषा है। इसके अतिरिक्त भारत के विद्यालयों, विश्वविद्यालयों, अनेक अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालयों में इसके अध्यापन की व्यवस्था है। इस कारण इसके मानकीकरण की आवश्यकता पड़ती है जिससे कि सभी स्थानों पर एक प्रकार की हिंदी का अध्ययन अध्यापन किया जा सके।
हिंदी और देवनागरी के मानकीकरण की दिशा में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से जो प्रयास हुये हैं उन्हें निम्नलिखित क्षेत्रों में विभाजित करके देखा जा सकता है:
(क) हिंदी व्याकरण का मानकीकरण : व्याकरण किसी भी भाषा का वह ढाँचा होता है जिसके आधार पर उस भाषा का वाक्यों का निर्माण किया जाता है। इसके अतिरिक्त व्याकरण के आधार पर ही किसी भाषा के वाक्यों की शुद्धता तथा अशुद्धता का निर्णय किया जाता है। हिंदी में व्याकरण लेखन 20वीं शदी के आरंभ से ही देखा जा सकता है किंतु वृहद और मानक स्तर पर इस दिशा में सबसे महत्वपूर्ण प्रयास पं. कामता प्रसाद गुरु द्वारा 1920 ई. में हिंदी व्याकरण के रूप में किया गया जो आज भी हिंदी व्याकरण निर्माण के क्षेत्र में मील का पत्थर है। इसके बाद अनेक प्रयास हुए हैं जिनमें आचार्य किशोरीदास वाजपेयी का हिंदी शब्दानुशासन सबसे अधिक उल्लेखनीय है।
हिंदी व्याकरण के मानकीकरण हेतु सरकारी प्रयासों की दृष्टि से देखा जाए तो इस दिशा में भारत सरकार ने 1954 ई. में सर्वप्रथम एक 5 सदस्यीय समिति का गठन किया। इस समिति ने आधुनिक संदर्भ में हिंदी की भूमिका को दृष्टि में रखकर हिंदी व्याकरण की रूपरेखा तैयार की। समिति के सदस्य डॉ. आर्येंद्र शर्मा ने इस रूपरेखा के आधार पर अंग्रेजी में एक व्याकरण के रूप में पुस्तक प्रस्तुत किया जिसे शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार ने 1958 ई. में ‘A Basic Grammar of a Modern Hindi’ के नाम से प्रकाशित किया।
(ख) हिंदी वर्तनी एवं देवनागरी का मानकीकरण : भारत सरकार द्वारा हिंदी वर्तनी के मानकीकरण को लेकर अनेक प्रयास किए गए हैं। मानकीकृत हिंदी वर्णमाला, परिवर्धित देवनागरी एवं मानक हिंदी वर्तनी से संबंधित चार्ट व पुस्तिकाएँ आदि प्रकाशित कर वितरित किया जाना इस प्रकार के कार्यों के अनेक उदाहरण हैं, जैसे- 1959 ई. में भारत के शिक्षामंत्रियों के सम्मेलन में मानक देवनागरी को अंतिम रूप देकर उसे केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा प्रकाशित कराया जाना।
हिंदी वर्तनी के प्रचलित विविधता को दूर कर उसमें एकरूपता स्थापित करने के उदेश्य से शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार ने 1961 ई. में आठ सदस्यीय एक मानक हिंदी वर्तनी समिति का गठन किया। 1967 ई. में शिक्षा मंत्रालय द्वारा हिंदी वर्तनी का मानकीकरण नामक पुस्तिका को प्रकाशित किया गया। इसी प्रकार 1983 ई. में केंद्रीय हिंदी निदेशालय ने देवनागरी लिपि तथा हिंदी वर्तनी का मानकीकरण नामक पुस्तिका का प्रकाशन किया जिसमें मानकीकरण से संबंधित कुछ नए बिंदु जोड़े गए। इसी तारतम्य में केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा वर्ष 2003 में देवनागरी लिपि तथा हिंदी वर्तनी के मानकीकरण के लिए अखिल भारतीय संगोष्ठी का आयोजन किया था। इस संगोष्ठी में मानक हिंदी वर्तनी के लिए निम्नलिखित नियम निर्धारित किए गए थे जिन्हें सन 2012 में आईएस/IS 16500 : 2012 के रूप में लागू किया गया है।
(ग) देवनागरी लेखन तथा टंकण में एकरूपता: भ्रमरहित देवनागरी का लेखन; जैसे: को पहले रव लिखा जाता था जिसके एवं होने का भ्रम बना रहता था। अत: नए रूप में इस प्रकार का भ्रम नहीं रहा। ऐसी ही भ्रमपूर्ण स्थिति कुछ संयुक्ताक्षरों को लेकर भी रहती है। अतः एकरूपता के लिए ऐसे वर्णों में परिवर्तन और मानकीकरण अनिवार्य है।
भारत में कंप्यूटर के प्रयोग के साथ ही हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में टाइपिंग हेतु भिन्न-भिन्न फॉन्टों का विकास किया गया। किंतु इससे एक समस्या यह उत्पन्न हो गई कि एक फॉन्ट में लिखी गई सामग्री दूसरे फॉन्ट में नहीं खुलती थी।  यूनिकोड के आ जाने से हिंदी टाइपिंग के क्षेत्र में एकरूपता का विकास हुआ है।
15.5.4 विश्वभाषा हिंदी: हिंदी विश्व में बोलने एवं समझने वालों की संख्या के आधार पर विश्व की दूसरी सबसे अधिक बोली और समझे जाने वाली भाषा है। भारत के अलावा अन्य देशों में भी हिंदी बोलने वालों और समझने वालों की संख्या करोड़ों में है। मारीशस, फिजी, गुयाना, सुरीनाम, त्रिनिडाड एवं दक्षिण अफ्रिका आदि देशों में तो बहुत पहले से हजारों भारतीय बसे हुए हैं जो हिंदी समझते हैं। डॉ. विमलेश कांति वर्मा के शब्दों में, “फिजी में तो शायद ही ऐसा कोई भारतीय या फिजीयन हो जो हिंदी न समझता हो। संभवत: इसीलिए फिजी में हिंदी को संवैधानिक मान्यता प्राप्त है।” भारत के पड़ोसी देशों; जैसे: नेपाल, भूटान, पाकिस्तान, अफगानिस्तान एवं श्रीलंका में भी हिंदी समझने वाले लोगों की संख्या बहुत अधिक है। वर्तमान में विश्व के लगभग सभी प्रमुख देशों में नौकरी, व्यापार या आजीविका की दृष्टि से भारतीय जाकर बस गए हैं जो वहाँ पर हिंदी का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार हिंदी का प्रयोग करने तथा समझने वाले सभी भारतीयों एवं प्रवासी भारतीयों की विशाल संख्या तथा विश्व के लगभग सभी प्रमुख देशों में उनका होना हिंदी को वैश्विक बना देता है और यह हिंदी को विश्वभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने में आधार का कार्य कर सकता है।
सूरीनाम में संपन्न सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन में प्रकाशित स्मारिका में डॉ. जयंती प्रसाद नौटियाल ने विश्व में हिंदी जानने वालों की सारणी प्रस्तुत की जिसमें भारत के बाहर हिंदी जानने वालों की संख्या 43 करोड़ बताई गई है। यूनेस्को में भी अन्य स्वीकृत भाषाओं के साथ-साथ हिंदी का भी प्रयोग किया जाता है। इसके संविधान में संसोधन तथा अन्य निर्णयों का हिंदी में अनुवाद किया जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा के रूप में भी हिंदी को मान्यता दिलाने के प्रयास तेजी से किए जा रहे हैं।
15.5.5 ज्ञान-विज्ञान की भाषा हिंदी
भारत में हिंदी केवल आपसी व्यवहार और कार्यालयों में प्रयोग की ही भाषा नहीं है बल्कि यह ज्ञान-विज्ञान और पठन-पाठन की भी भाषा है। सभी हिंदी भाषी राज्यों में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा का माध्यम हिंदी ही है। इसके अतिरिक्त अनेक विश्वविद्यालयों में विभिन्न विषयों, मुख्यत: सामाजिक विज्ञानों एवं शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन हिंदी में ही किया जाता है। किंतु अभी तक हिंदी प्राकृतिक विज्ञानों, जैसे: भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान आदि के उच्च शिक्षा में शिक्षण का माध्यम नहीं बन सकी है। इसके अलावा प्रौद्योगिकी से जुड़े विषयों में भी लगभग यही स्थिति है। इसका एक कारण हिंदी में इन विषयों से जुड़ी उच्च कोटी की पुस्तकों का अभाव होना भी है। इन सभी क्षेत्रों में हिंदी की जगह अंग्रेजी का वर्चस्व है।
राजभाषा समिति द्वारा सरकारी शैक्षिक एवं प्रशिक्षण संस्थानों में हिंदी में परीक्षा एवं शिक्षण से संबंधित कुछ सुझाव दिए गए जिनसे हिंदी का ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में प्रयोग सुदृढ़ किया जा सकता है। प्रशिक्षण संस्थानों से संबंधित सुझावों के दो उदाहरण इस प्रकार है:
(क) समिति ने यह सुझाव दिया है कि नेशनल डिफेंस एकेडमी जैसे प्रशिक्षण संस्थानों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही बनी रहे किंतु शिक्षा संबंधी कुछ या सभी प्रयोजनों के लिए माध्यम के रूप में हिंदी का प्रयोग शुरू करने के लिए उचित कदम उठाए जाएं। इसके अतिरिक्त अनुदेश पुस्तिकाओं इत्यादि के हिंदी प्रकाशन आदि के रूप में समुचित प्रारंभिक कार्रवाई करें, ताकि जहां भी व्यवहार्य हो शिक्षा के माध्यम के रूप में हिंदी का प्रयोग संभव हो जाए।
(ख) समिति ने सुझाव दिया कि प्रशिक्षण संस्थानों में प्रवेश के लिए, अंग्रेजी और हिंदी दोनों ही परीक्षा के माध्यम हों, किंतु परिक्षार्थियों का यह विकल्प रहे कि वे सब या कुछ परीक्षा पत्रों के लिए उनमें से किसी एक भाषा को चुन लें और एक विशेष समिति यह जांच करने के लिए नियुक्त की जाए कि नियत कोटा प्रणाली अपनाए बिना प्रादेशिक भाषाओं का प्रयोग परीक्षा के माध्यम के रूप में कहां तक शुरू किया जा सकता है।
इसी प्रकार सभी सरकारी तथा अर्धसरकारी संस्थानों से संबंधित सुझाव भी हैं जिनमें यदि प्रवेश परीक्षा एवं शिक्षण के माध्यम के रूप में हिंदी का प्रयोग किया जाए तो निश्चय ही अध्ययन-अध्यापन की भाषा के रूप में हिंदी सुदृढ़ होगी।
जहाँ तक हिंदी में विज्ञान की मानक पुस्तकों का प्रश्न है, स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् इस दिशा में प्रयास आरंभ हो गए। किंतु इस दिशा में प्रभावी कदम 1960 के बाद से दिखाई पड़ते हैं। इसी क्रम में सुझाव आया कि अंग्रेजी के मानक ग्रंथों का हिंदी में अनुवाद कर लिया जाए। इसी प्रयास को आगे बढ़ाते हुए 1965 ई. में हिंदी भाषी क्षेत्रों के विश्वविद्यालयों के कुलपतियों का सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में सुनिश्चित किया गया कि वैज्ञानिक एवं तकनीकी विषयों में भी हिंदी माध्यम को अपनाने के लिए अपेक्षित पाठ्य-पुस्तकों का यथाशीघ्र निर्माण किया जाए। 1968-69 में केंद्र सरकार ने अंग्रेजी पुस्तकों के हिंदीकरण का राज्य सरकारों को आदेश दिया। इसके अलावा 1970 में यह भी माँग प्रबल रूप से उठी कि कृषि, पशु एवं चिकित्सा आदि विषयों में स्नातक स्तर तक की शिक्षा हिंदी माध्यम से आरंभ कर दी जाए। इसी प्रयास को आगे बढ़ाते हुए 1983 में तृतीय विश्व हिंदी सम्मेलन के अवसर पर वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (C.S.I.R) ने हिंदी वैज्ञानिक और तकनीकी प्रकाशन निदेशिका प्रकाशित की जिसमें 1966 से 1980 तक हिंदी में प्रकाशित वैज्ञानिक एवं तकनीकी पुस्तकों का विवरण दिया गया है।
इसके बाद तो व्यापक स्तर पर सरकारी एवं गैरसरकारी संस्थानों तथा व्यक्तिगत प्रयास किए गए हैं। भारत सरकार के अनेक संस्थान इस दिशा में सक्रिय हैं जिनमें हिंदी में कोश निर्माण, पुस्तक एवं साहित्य संकलन तथा प्रकाशन एवं हिंदी माध्यम से पठन-पाठन के विभिन्न कार्यक्रम चलाए जा रहे है। इन संस्थानों में केंद्रीय हिंदी निदेशालय (नई दिल्ली), केंद्रीय हिंदी संस्थान (आगरा), महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय (वर्धा), दक्षिण हिंदी प्रचार सभा आदि प्रमुख हैं जिनमें हिंदी माध्यम से विभिन्न पाठ्यक्रम चलाए जा रहे हैं। इनमें से महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय (वर्धा) में तो भाषा-प्रौद्योगिकी (Language Technology), अनुवाद प्रौद्योगिकी (Translation Technology), ‘कंप्यूटेशनल भाषाविज्ञान’ (Computational Linguistics), जनसंचार’ (Mass Communication) एवं फिल्म अध्ययन (Film Study) जैसे तकनीकी विषयों में एम.ए., एम.फिल. एवं पी-एच. डी. के नियमित पाठ्यक्रम हिंदी माध्यम से चलाए जाते हैं।
15.5.6 आधुनिक हिंदी और संचार माध्यम
स्वतंत्रता के पश्चात् जनसंचार के माध्यमों में भी हिंदी का प्रयोग धीरे-धीरे सुदृढ़ हुआ है। आज अनेक समाचार पत्र हिंदी में प्रकाशित होते हैं जिन्हें लगभग संपूर्ण भारत में प्राप्त किया जा सकता है। इनके पाठकों की संख्या भी बहुत अधिक है। उदाहरणस्वरूप हिंदी दैनिक दैनिक जागरण के पाठकों की संख्या भारत में प्रकाशित होने वाले सभी अंग्रेजी समाचार पत्रों के कुल पाठकों से भी अधिक है। अत: हिंदी समाचार पत्रों की संख्या बहुत अधिक होने के साथ-साथ इनके पाठक भी सर्वाधिक हैं।
इसी प्रकार रेडियो और टी.वी. की दृष्टि से विचार किया जाए तो हिंदी के ही प्रसारण केंद्र तथा चैनल सबसे अधिक हैं जिन पर हर समय विविध प्रकार के कार्यक्रम प्रकाशित होते रहते हैं। रेडियो में चाहें मिडियम वेब के प्रादेशिक प्रसारण केंद्र हों या शार्ट वेब के प्रसारण केंद्र, सभी की लोकप्रियता बहुत अधिक है। उदाहरणस्वरूप हिंदी के शार्ट वेब प्रसारण केंद्र विविध भारती से कौन व्यक्ति परिचित नहीं होगा। वर्तमान में एफ.एम. चैनलों की भरमार देखी जा सकती है इनमें भी सर्वाधिक संख्या हिंदी केंद्रों की ही है। टी.वी. के क्षेत्र में भी दूरदर्शन की लोकप्रियता अभी भी दूरदराज के क्षेत्रों में है। जहाँ तक प्राइवेट चैनलों का सवाल है तो इधर भी हिंदी के प्राइवेट चैनलों की भरमार है। कुछ मानक एवं उपयोगी चैनल, जैसे: नेशनल जिओग्राफिकल एवं डिस्कवरी पर भी बहुत अधिक संख्या में हिंदी में डब या अनूदित कार्यक्रम ही प्रसारित होते रहते हैं।
इंटरनेट आधुनिक संचार का सबसे शक्तिशाली माध्यम है। यहाँ पर भी हिंदी ने प्रभावशाली दस्तकत दी है। आज हिंदी के लाखों  ब्लॉग एवं वेबसाइटें हैं। पहले देवनागरी में वेबपेज निर्माण में कुछ कठिनाइयाँ आती थीं किंतु यूनिकोड के आने से यह समस्या भी दूर हो गई है। ब्लॉग एवं वेबसाइटों के अतिरिक्त धीरे-धीरे हिंदी के बहुत सारे भाषिक टूल भी इंटरनेट पर ऑनलाइन उपलब्ध हो गए है; जैसे: हिंदी के ई-कोश, हिंदी शब्द-तंत्र (Hindi WordNet) एवं हिंदी साहित्य तथा ज्ञान विज्ञान से संबंधित ई-लाइब्रेरी आदि। इन सभी की उपलब्धता आधुनिक युग में हिंदी को नई ऊँचाई प्रदान कर रही है।
अत: संचार के क्षेत्र में हिंदी का पारंपरिक संचार माध्यमों से लेकर आधुनिक तक सभी में महत्वपूर्ण स्थान है। इन साधनों का न केवल दिन प्रतिदिन विस्तार हो रहा है बल्कि भविष्य में और अधिक क्षेत्रों में हिंदी प्रयोग की संभावनाएँ प्रबल होती जा रही हैं।
15.6 हिंदी की संवैधानिक स्थिति : हिंदी की संवैधानिक स्थिति को निम्नलिखित उपशीर्षकों के अंतर्गत समझ सकते हैं-
15.6.1 राजभाषा : संवैधानिक दृष्टि से हिंदी भारत की राजभाषा है। महात्मा गांधी ने 1917 में गुजरात शैक्षिक सम्मेलन में अपने अध्यक्षीय भाषण में राष्ट्रभाषा की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा था कि भारतीय भाषाओं में केवल हिंदी ही एक ऐसी भाषा है जिसे राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाया जा सकता है।
(क) अनुच्छेद 343 (1) संघ की राजभाषा
संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी, संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप भारतीय अंकों का अंतरराष्ट्रीय रूप होगा।
खंड (1) में किसी बात के होते हुए भी, इस संविधान के प्रारंभ से पंद्रह वर्ष की अवधि तक संघ के उन सभी शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा जिनके लिए उसका ऐसे प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था, परन्तु राष्ट्रपति उक्त अवधि के दौरान, आदेश द्वारा, संघ के शासकीय प्रयोजनों में से किसी के लिए अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त हिंदी भाषा का और भारतीय अंकों के अंतर्राष्ट्रीय रूप के अतिरिक्त देवनागरी रूप का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगा।
इस अनुच्छेद में किसी बात के होते हुए भी, अनुच्छेद 343 (3) के अनुसार संसद उक्त पंद्रह वर्ष की अवधि के पश्चात्‌, विधि द्वारा
(क) अंग्रेजी भाषा का, या (ख) अंकों के देवनागरी रूप का, ऐसे प्रयोजनों के लिए प्रयोग उपबंधित कर सकेगी जो ऐसी विधि में विनिर्दिष्ट किए जाएँ।
(ख) अनुच्छेद 344 में राजभाषा के लिए आयोग बनाने का प्रावधान किया गया है। इसके अनुसार संविधान के प्रारंभ से 5 के बाद तत्पश्चात 10 वर्ष के बाद आदेश द्वारा राष्ट्रपति एक आयोग गठित करेगा जो निम्नलिखित मामलों में अपनी सिफारिशें प्रेषित करेगा-
(क) संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए हिंदी भाषा के उत्तरोत्तर अधिक प्रयोग के विषय में।
(ख) संघ के राजकीय प्रयोजनों में ये सब या किसी एक के लिए अंग्रेजी भाषा के प्रयोग-प्रतिबंध के विषय में।
(ग) उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय की कार्यवाहियों में प्रयुक्त होने वाली भाषा के विषय में।
(घ) संघ के किसी एक या अधिक उल्लिखित प्रयोजनों के लिए प्रयोग किए जाने वाले अंकों के विषय में।
(ङ) संघ की राजभाषा तथा संघ और किसी राज्य के बीच अथवा एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच संचार की भाषा तथा उनके प्रयोग के बारे में राष्ट्रपति द्वारा आयोग से पृच्छा किए हुए किसी अन्य विषय पर।
(ग) अनुच्छेद 351 में हिंदी भाषा के विकास के लिए निदेश दिया गया है जिसके अनुसार संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्थानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहां आवश्यक या वांछनीय हो वहां उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे।
(घ) राजभाषा संकल्प, 1968
भारतीय संसद के दोनों सदनों (राज्यसभा और लोकसभा) ने 1968 में 'राजभाषा संकल्प' के नाम से निम्नलिखित संकल्प लिए-
1. जबकि संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार संघ की राजभाषा हिंदी रहेगी और उसके अनुच्छेद 351 के अनुसार हिंदी भाषा का प्रसार, वृद्धि करना और उसका विकास करना ताकि वह भारत की सामासिक संस्कृति के सब तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम हो सके, संघ का कर्तव्य है :
यह सभा संकल्प करती है कि हिंदी के प्रसार एंव विकास की गति बढ़ाने के हेतु तथा संघ के विभिन्न राजकीय प्रयोजनों के लिए उत्तरोत्तर इसके प्रयोग हेतु भारत सरकार द्वारा एक अधिक गहन एवं व्यापक कार्यक्रम तैयार किया जाएगा और उसे कार्यान्वित किया जाएगा और किए जाने वाले उपायों एवं की जाने वाली प्रगति की विस्तृत वार्षिक मूल्यांकन रिपोर्ट संसद की दोनों सभाओं के पटल पर रखी जाएगी और सब राज्य सरकारों को भेजी जाएगी ।
2. जबकि संविधान की आठवीं अनुसूची में हिंदी के अतिरिक्त भारत की 21 मुख्य भाषाओं का उल्लेख किया गया है , और देश की शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक उन्नति के लिए यह आवश्यक है कि इन भाषाओं के पूर्ण विकास हेतु सामूहिक उपाए किए जाने चाहिए :
यह सभा संकल्प करती है कि हिंदी के साथ-साथ इन सब भाषाओं के समन्वित विकास हेतु भारत सरकार द्वारा राज्य सरकारों के सहयोग से एक कार्यक्रम तैयार किया जाएगा और उसे कार्यान्वित किया जाएगा ताकि वे शीघ्र समृद्ध हों और आधुनिक ज्ञान के संचार का प्रभावी माध्यम बनें ।
3. जबकि एकता की भावना के संवर्धन तथा देश के विभिन्न भागों में जनता में संचार की सुविधा हेतु यह आवश्यक है कि भारत सरकार द्वारा राज्य सरकारों के परामर्श से तैयार किए गए त्रि-भाषा सूत्र को सभी राज्यों में पूर्णत कार्यान्वित करने के लिए प्रभावी किया जाना चाहिए :
यह सभा संकल्प करती है कि हिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी तथा अंग्रेजी के अतिरिक्त एक आधुनिक भारतीय भाषा के, दक्षिण भारत की भाषाओं में से किसी एक को तरजीह देते हुए, और अहिंदी भाषी क्षेत्रों में प्रादेशिक भाषाओं एवं अंग्रेजी के साथ साथ हिंदी के अध्ययन के लिए उस सूत्र के अनुसार प्रबन्ध किया जाना चाहिए ।
4. और जबकि यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि संघ की लोक सेवाओं के विषय में देश के विभिन्न भागों के लोगों के न्यायोचित दावों और हितों का पूर्ण परित्राण किया जाए
यह सभा संकल्प करती है कि-
(क) कि उन विशेष सेवाओं अथवा पदों को छोड़कर जिनके लिए ऐसी किसी सेवा अथवा पद के कर्त्तव्यों के संतोषजनक निष्पादन हेतु केवल अंग्रेजी अथवा केवल हिंदी अथवा दोनों जैसी कि स्थिति हो, का उच्च स्तर का ज्ञान आवश्यक समझा जाए, संघ सेवाओं अथवा पदों के लिए भर्ती करने हेतु उम्मीदवारों के चयन के समय हिंदी अथवा अंग्रेजी में से किसी एक का ज्ञान अनिवार्यत होगा; और
(ख) कि परीक्षाओं की भावी योजना, प्रक्रिया संबंधी पहलुओं एवं समय के विषय में संघ लोक सेवा आयोग के विचार जानने के पश्चात अखिल भारतीय एवं उच्चतर केंद्रीय सेवाओं संबंधी परीक्षाओं के लिए संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित सभी भाषाओं तथा अंग्रेजी को वैकल्पिक माध्यम के रूप में रखने की अनुमति होगी ।
15.6.2 संपर्क भाषा: औपचारिक और व्यावहारिक दोनों ही दृष्टियों से हिंदी भारत की संपर्क भाषा है। अधिकांश भारतीयों द्वारा परस्पर संप्रेषण का कार्य हिंदी में ही किया जाता है, मुख्यत: तब जब दो भिन्न-भिन्न भारतीय भाषओं के मातृभाषी मिलते हैं। संवैधानिक दृष्टि से भारत सरकार ने हिंदी (राजभाषा नियम 1976) के अनुसार भारत को तीन क्षेत्रों में बाँटा है: क क्षेत्र, ख क्षेत्र और ग क्षेत्र, जो निम्नलिखित हैं:
क वर्ग के क्षेत्र - इसमें उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ तथा हरियाणा आते हैं, संविधान के अनुसार केन्द्र सरकार द्वारा इन प्रदेशों से संबंधित सारा काम सिर्फ हिंदी में ही किए जाएँ, यदि किसी को अंग्रेजी में पत्र भेजा जाए तो उसका हिंदी अनुवाद भी भेजा जाए।
ख वर्ग के क्षेत्र – इसमें महाराष्ट्र, गुजरात, अरुणाचल प्रदेश, पंजाब, जैसे क्षेत्र हैं, जहाँ हिंदी का कोई विरोध नहीं है, संविधान के अनुसार इन प्रदेशों से संबंधित सारा काम केन्द्र सरकार को सामान्यत: हिंदी में करना चाहिए पर मूल पत्रों के साथ अंग्रेजी अनुवाद भी राज्य विशेष के माँगने पर उपलब्ध करवाया जाए।
ग वर्ग के क्षेत्र – इसमें बाकी सारे राज्य आते हैं जिनमें अंग्रेजी में ही व्यवहार किया जाता है।
औपचारिक दृष्टि से कार्यालयों में आपसी पत्र-व्यवहार से संबंधित कार्य इस विभाजन में किया गया है जो हिंदी को कार्यालयी संपर्क की भाषा के रूप में भी स्थापित करता है।
15.6.3 कुछ अन्य महत्वपूर्ण बिंदु
·         1977 : श्री अटल बिहारी वाजपेयी, तत्कालीन विदेश मंत्री ने पहली बार संयुक्त राष्ट्र की आम सभा को हिंदी में संबोधित किया।
·         1981 : केंद्रीय सचिवालय राजभाषा सेवा संवर्ग का गठन किया गया।
·         1983 : केंद्रीय सरकार के मंत्रालयों, विभागों, सरकारी उपक्रमों, राष्ट्रीयकृत बैंकों में यांत्रिक और इलेक्ट्रानिक उपकरणों द्वारा हिंदी में कार्य को बढ़ावा देने तथा उपलब्ध द्विभाषी उपकरणों के प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से राजभाषा विभाग में तकनीकी कक्ष की स्थापना की गई।
·         1985 : केंद्रीय हिंदी प्रशिक्षण संस्थान का गठन कर्मचारियों/अधिकारियों को हिंदी भाषा, हिंदी टंकण और हिंदी आशुलिपि के पूर्णकालिक गहन प्रशिक्षण सुविधा उपलब्ध कराने के लिए किया गया।
·         1986 : कोठारी शिक्षा आयोग की रिपोर्ट। उच्च शिक्षा के माध्यम के संबंध में नई शिक्षा नीति (1986) के कार्यान्वयन कार्यक्रम में कहा गया – “स्कूल स्तर पर आधुनिक भारतीय भाषाएँ पहले ही शिक्षण माध्यम के रूप में प्रयुक्त हो रही हैं। आवश्यकता इस बात की है कि विश्वविद्यालय के स्तर पर भी इन्हें उत्तरोत्तर माध्यम के रूप में अपना लिया जाए। इसके लिए अपेक्षा यह है कि राज्य सरकारें, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से परामर्श करके, सभी विषयों में और सभी स्तरों पर शिक्षण माध्यम के रूप में उत्तरोत्तर आधुनिक भारतीय भाषाओं को अपनाएँ।”
·         2002 : संसदीय राजभाषा समिति के प्रतिवेदन का सातवाँ खंड राष्ट्रपति जी को प्रस्तुत किया गया। इस खंड में समिति ने सरकारी काम-काज में मूल रूप से हिंदी में लेखन कार्य, विधि संबंधी कार्यों में राजभाषा हिंदी की स्थिति, सरकारी कामकाज में राजभाषा के प्रयोग हेतु प्रचार-प्रसार, प्रशासनिक और वित्तीय कार्यों से जुड़े प्रकाशनों की हिंदी में उपलब्धता, राज्यों में राजभाषा हिंदी की स्थिति, वैश्वीकरण और हिंदी, कंप्यूटरीकरण एक चुनौती इत्यादि विषयों को समाहित कर संघ सरकार में हिंदी के प्रयोग की वर्तमान स्थिति के संबंध में अपनी सिफारिशें प्रस्तुत की।
·         2003 : कंप्यूटर की सहायता से हिंदी स्वयं सीखने के लिए राजभाषा विभाग ने कंप्यूटर प्रोग्राम (लीला हिंदी प्रबोध, लीला हिंदी प्रवीण, लीला हिंदी प्राज्ञ) सर्व साधारण द्वारा निशुल्क प्रयोग हेतु राजभाषा विभाग की वेबसाइट पर उपलब्ध कराया गया।

·         2004 : मातृभाषा विकास परिषद् द्वारा दायर जनहित याचिका पर उच्चतम न्यायालय ने निर्देश दिया कि वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग द्वारा बनाई गई तकनीकी शब्दावली ही भारत सरकार के अंतर्गत एन.सी.ई.आर.टी तथा इसी प्रकार की अन्य संस्थाओं द्वारा तैयार की जा रही पाठय पुस्तकों में प्रयोग में लाई जाए।
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और पढ़ने के लिए इस लिंक (दूर शिक्षा निदेशालय, म.गा.अं.हिं.वि., वर्धा) पर जाकर पृ. सं. 297 पर जाएँ-
http://www.mgahv.in/Pdf/Dist/gen/MAHD_15_hindi_bhasha_ka_vikas_evam_nagari_lipi.pdf


2 comments:

  1. कृपया हिंदी भाषा में प्रबंधन युग के बारे जानकारी मिल सकती है?

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