स्वनिमविज्ञान : परिभाषा
एवं स्वरूप
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भाषाविज्ञान
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Paper
Name – P-05. Bhashavigyan
Module Name - M-08. Swanimvigyan Paribhasha Evam Swaroop
परिचय के लिए कुछ पृष्ठ इस प्रकार हैं-
.........................................
2. प्रस्तावना
स्वनिमविज्ञान भाषाविज्ञान की एक शाखा है जिसके अध्ययन की इकाई ‘स्वनिम’ है। ‘स्वनिम-रूपिम-शब्द(पद)-पदबंध-उपवाक्य-वाक्य-प्रोक्ति’ भाषा
व्यवस्था की विभिन्न इकाइयाँ हैं जो परस्पर सहसंबंधित होकर ‘अर्थ’ के संप्रेषण का कार्य करती हैं। अत: इस खंड में जहाँ एक ओर स्वनिमविज्ञान
की केंद्रीय विषयवस्तु ‘स्वनिम’ का विवेचन
किया गया है वहीं दूसरी ओर भाषा की अन्य इकाइयों से ‘स्वनिम’ के संबंध को भी स्पष्ट करते हुए इसके तकनीकी अनुप्रयोगात्मक पक्ष को भी
उद्घाटित किया गया है।
3. परिभाषा और
स्वरूप
किसी भाषा विशेष में पाए जाने वाले स्वनिमों और उनकी व्यवस्था का अध्ययन
स्वनिमविज्ञान है। दूसरे शब्दों में स्वनिमविज्ञान भाषाविज्ञान की वह शाखा है
जिसमें भाषा की लघुतम व्यवस्थापरक इकाई ‘स्वनिम’ का अध्ययन-विश्लेषण किया जाता है। भाषाविज्ञान की विभिन्न शाखाओं में
भाषा के विभिन्न स्तरों का अध्ययन किया जाता है। उनके सापेक्ष स्वनिमविज्ञान की
स्थिति इस प्रकार है –
भाषा के स्तर (क्रमश: बढ़ते क्रम में)
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भाषाविज्ञान की शाखाएँ
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स्वनिम
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स्वनिमविज्ञान
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रूपिम
शब्द (पद)
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रूपविज्ञान
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पदबंध
उपवाक्य
वाक्य
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वाक्यविज्ञान
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प्रोक्ति
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प्रोक्ति विश्लेषण
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इनके अतिरिक्त ‘अर्थ’ पर विचार करने के लिए भाषाविज्ञान की एक शाखा ‘अर्थविज्ञान’ भी है जो भाषा संरचना के उपर्युक्त सभी स्तरों से संबद्ध होती है। रूपिम
से लेकर प्रोक्ति तक सभी भाषिक स्तरों पर अर्थ पाया जाता है और उसी के अनुरूप
विश्लेषण संबंधी कार्य किया जाता है। ‘स्वनिम’ अर्थहीन (किंतु अर्थभेदक) होते हैं। इसलिए इस स्तर पर अर्थ की कोई विशेष
भूमिका नहीं होती। इसमें अर्थ केवल बड़ी इकाइयों के निर्मित होने या न होने के
निर्धारण को प्रभावित करता है।
भाषा का मूल रूप उसका वाचिक (बोला गया) रूप है। वाचिक भाषा में मानव मुख से
उच्चरित जिन ध्वनियों का प्रयोग किया जाता है उन्हें ‘स्वन’ (Phone) कहते
हैं। किसी बोले गए वाक्य या शब्द के किए जा सकने वाले लघुतम खंड ‘स्वन’ हैं। स्वनों का अध्ययन स्वनविज्ञान में किया
जाता है। स्वनिमविज्ञान में किसी भाषा विशेष के स्वनों का विश्लेषण करते हुए ‘स्वनिमों’ और ‘उपस्वनों’ की व्यवस्था का विश्लेषण किया जाता है। साथ ही भाषाविज्ञान की यह शाखा
स्वनिमों के प्रकार्य का विवेचन भी करती है।
स्वनिमविज्ञान के बारे में डॉ. भोलानाथ तिवारी (2007) का कहना है, “स्वनिमविज्ञान वह विज्ञान है जिसमें किसी भाषा में प्रयुक्त
स्वनिमों (ध्वनिग्रामों) तथा उनसे संबद्ध पूरी व्यवस्था पर विचार करते हैं। इसके
अंतर्गत स्वनिम (ध्वनिग्राम) तथा उपस्वन (संध्वनि) का निर्धारण, उपस्वन का वितरण, स्वर और व्यंजन स्वनिमों का उस
भाषा में प्रयुक्त संयोग एवं अनुक्रम प्राप्त खंड्येतर स्वनिमों (अनुतान, बलाघात, दीर्घता, अनुनासिकता, संहिता) की व्यवस्था के रूप में मिलने पर घटित होने वाले स्वनिमिक
परिवर्तन आदि स्वनिमिक व्यवस्था से संबद्ध सारी बातें आती हैं।” (भाषाविज्ञान
प्रवेश एवं हिंदी भाषा, पृ. 92)
भाषाविज्ञान परिभाषा कोश (खंड-1) के अनुसार ‘किसी भाषा के सार्थक स्वनों का
व्यतिरेक और विरोध के आधार पर अध्ययन तथा उनके वितरण और व्यवस्था का विश्लेषण’
स्वनिमविज्ञान है।
इसी प्रकार ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में इसे “The system of
contrastive relationships among the speech sounds that constitute the
fundamental components of a language.” बताया गया है। अर्थात यह
वाक् ध्वनियों के बीच प्राप्त व्यतिरेकी संबंधों की उस व्यवस्था का अध्ययन है, जिसके द्वारा किसी भाषा के आधारभूत घटकों का निर्माण किया जाता है।
कोलिंस इंग्लिश डिक्शनरी में संक्षेप में इसको “the study of the
sound system of a language or of languages in general” कहते हुए
परिभाषित किया गया है।” अर्थात यह किसी भाषा की ध्वनि व्यवस्था या सामान्य शब्दों
में भाषाओं की ध्वनि व्यवस्था का अध्ययन है।
4. स्वनिमविज्ञान में अध्ययन की विषयवस्तु
स्वनिमविज्ञान में निम्नलिखित विषयों पर विचार किया जाता है-
4.1 स्वनिम की अवधारणा और पहचान : स्वनिम किसी भाषा की लघुतम अर्थभेदक इकाई है। इसकी सत्ता अमूर्त होती है और
यह मानव मस्तिष्क में होता है। मानव मस्तिष्क में स्वनिम केवल संकल्पनात्मक रूप
में रहता है और उसी के आधार पर मनुष्य उसका उपयोग बार-बार भाषा उत्पादन
(अभिव्यक्ति) और बोधन में करता है। इसी कारण एक ही स्वनिम का हजारों-लाखों बार
व्यवहार संभव हो पाता है। उदाहरण के लिए हमारे मस्तिष्क में ‘क्’, ‘म्’, ‘ल्’ और ‘अ’ स्वनिम हैं। इनके
आधार पर हम निम्नलिखित शब्द निर्मित कर सकते हैं –
कमल, कलम, कल, कम, मल आदि।
इनमें ‘क्’ का प्रयोग 4 बार
हुआ है जो स्वन या ध्वनियाँ हैं। इन्हें क्1, क्2, क्3 और क्4 से व्यक्त किया जा सकता है किंतु इनके मूल में एक ही इकाई /क/ है जो इनका स्वनिम है। यही बात ‘म्’ ‘ल’ और ‘अ’ के बारे में भी
लागू होती है। स्वनिमों को दो स्लैश के बीच (‘/ /’ में) प्रदर्शित किया जाता है।
किसी नई भाषा के स्वनिमों की पहचान करना एक कठिन और श्रमसाध्य कार्य है। इसके लिए
उस भाषा के वार्तालापों या संवादों को रिकार्ड करना पड़ता है। इसक पश्चात रिकार्ड की हुइ सामग्री में से एक-एक
शब्दो को अलग-अलग चिह्नित किया जाता है। तदुपरांत प्रत्येक शब्द को भिन्न-भिन्न संदर्भों
में बार-बार सुनकर उसमें प्रयुक्त स्वनिमों
का अनुमान लगाया जाता है। फिर उन स्वनिमों का दूसरे शब्दों में प्रयोग किस प्रकार प्रयोग
हुआ है ? इसका परीक्षण किया जाता है। इस प्रकार के विस्तृत
अध्ययन द्वारा स्वनिमों की पहचान की जाती है।
4.2 स्वनिमों का वर्गीकरण : स्वनिमविज्ञान में स्वनिमों का अध्ययन विश्लेषण करने के पश्चात विभिन्न
आधारों पर उनका वर्गीकरण भी किया जाता है। स्वनिमों में दो वर्ग किए गए हैं खंडात्मक
और अधिखंडात्मक।
4.2.1 खंडात्मक : खंडात्मक स्वनिम वे स्वनिम
हैं जो खंडों के रूप में एक के बाद एक रेखीय क्रम में आते हैं- जैसे – क्+अ+ल् (कल)। ऐसे स्वनिमों की स्वतंत्र
सत्ता होती है। अर्थात उन्हें अभिव्यक्ति में खंडित करके देखा जा सकता है। खंडात्मक
स्वनिमों के मुख्यत; दो भेद किए गए हैं – स्वर और व्यंजन।
सभी स्वर और व्यंजन खंडात्मक स्वनिम हैं। भाषा व्यवहार में अर्थ संप्रेषण का मूल कार्य
खंडात्मक स्वनिमों द्वारा ही किया जाता है। लिपि के माध्यम से इन्हें लिखा भी
जाता है जिसमें प्रत्येक स्वनिम के लिए एक लिपि चिह्न निर्धारित होता है।
4.2.2 अधिखंडात्मक : स्वनिमों का भाषा
व्यवहार में प्रयोग करते समय उनके साथ कुछ ऐसे भाषिक तत्व भी आ जाते हैं जो स्वयं ‘स्वन’ या ‘ध्वनि’ नहीं होते, किंतु शब्द या वाक्य पर उनका प्रभाव स्पष्ट
दिखाई पड़ता है। ऐसे भाषिक अभिलक्षणों को ‘अधिखंडात्मक
अभिलक्षण’ या ‘स्वनगुण’ (Prosody) कहा जाता है। भाषा व्यवहार में ये
अभिलक्षण शब्दों और वाक्यों के साथ जुड़कर आते हैं और अभिव्यक्ति को प्रभावित करते
हैं या अभिव्यक्ति के अर्थ को परिवर्तित कर देते हैं। इस प्रकार के कुछ प्रमुख अधिखंडात्मक
अभिलक्षण निम्नलिखित हैं – मात्रा (Length), बलाघात (Stress), सुर और अनुतान (Pitch and Intonation), संहिता (Juncture)।
खंडात्मक और अधिखंडात्मक स्वनिमों की विस्तृत चर्चा आगे ‘स्वनिम की अवधारणा : स्वनिम, उपस्वन और
स्वन’ में की जाएगी।
4.3 स्वन, स्वनिम और सहस्वन में
अंतर
स्वनिम और स्वन : भाषा में उच्चारण की सबसे
छोटी भौतिक इकाई ‘स्वन’ है जिसे ध्वनि
और अक्षर के रूप में देखा और विश्लेषित किया जा सकता है। किंतु स्वनों के उत्पादित
होने की मूल संकल्पनात्मक इकाई ‘स्वनिम’ है। स्वनिम भाषा की व्यवस्था में पाए जाते हैं। किसी भाषा में पाई जाने
वाली अर्थेभेदक और सबसे छोटी इकाई ‘स्वनिम’ होती है। स्वनिमों को जोड़कर रूपिम और शब्द आदि बड़ी भाषिक इकाइयों का
निर्माण किया जाता है। ऊपर ‘स्वनिम की अवधारणा और पहचान’ उपशीर्षक में दिए गए उदाहरण से इन दोनों के अंतर को समझा जा सकता है, जिसमें ‘क्’, ‘म्’ ‘ल्’
और ‘अ’ चार स्वनिमों का प्रयोग हुआ है-
कमल्, कलम्, कल्, कम्, मल्
इसमें तीनों व्यंजन स्वनिमों का चार-चार बार और ‘अ’ स्वर स्वनिम का 7 बार प्रयोग
होने से कुल ‘19’ स्वन हो गए हैं
जिन्हें इस प्रकार देखा जा सकता है-
/क्/ [क्1, क्2, क्3, क्4]
/म्/ [म्1, म्2, म्3, म्4]
/ल्/ [ल्1, ल्2, ल्3, ल्4]
/अ/ [अ1, अ2, अ3, अ4, अ5, अ6, अ7]
स्वनिम अमूर्त होते हैं, जबकि स्वन
मूर्त होते हैं।
स्वनिम और उपस्वन : किसी स्वनिम विशेष का वह
ध्वन्यात्मक विभेद जो किसी ध्वन्यात्मक परिवेश में उस स्वनिम के स्थान पर
प्रयुक्त होता है, ‘उपस्वन’ कहलाता है। उपस्वन स्वनिम का वह विभेद है जिसका प्रयोग संबंधित स्वनिम
के अन्य विभेद या सहस्वन के स्थान पर करने पर शब्द का अर्थ नहीं बदलता है।
स्वनिम के विभिन्न सहस्वन एक ही प्रकार्य संपन्न करते हैं। उनके प्रयोग की
स्थितियाँ अलग-अलग होती हैं। किसी स्थिति विशेष में एक प्रयुक्त होता है तो किसी
दूसरी स्थिति में दूसरा। विभेदों में जो अधिक प्रयुक्त होता है उसी से स्वनिम को व्यक्त किया जाता है। उदाहरण के लिए
हिंदी में ‘ढ’ स्वनिम के दो उपस्वन ‘ढ’ और ‘ढ़’ हैं। इन्हें इस प्रकार व्यक्त किया जाता है-
/ढ/ [ढ]~[ढ़]
4.4 व्यतिरेकी और परिपूरक वितरण : वितरण दो ध्वनियों
का एक ही स्थान पर प्रयोग होने या नहीं होने को देखने की व्यवस्था है। एक ही
परिवेश में दो ध्वनियों का प्रयोग होने की अवस्था को ‘व्यतिरेकी वितरण’ और नहीं होने की अवस्था
को ‘परिपूरक वितरण’ कहा जाता है, जैसे –
कल - खल डाक – कड़ा
उपर्युक्त शब्दयुग्मों में पहले शब्दयुग्म के प्रथम स्वनिम आपस में व्यतिरेकी
वितरण में हैं, क्योंकि ‘क’ की जगह ‘ख’ का प्रयोग होने से
दोनों शब्दों का अर्थ बिल्कुल अलग-अलग हो जाता है। ‘कल’ का अर्थ ‘पिछला या आने वाला दिन’ है तो ‘खल’ का अर्थ ‘दुष्ट’ है। अत: ‘क’ और ‘ख’ व्यतिरेकी वितरण में
हैं। इसके विपरीत अगले शब्दयुग्म में ‘ड’ की जगह ‘ड़’ का प्रयोग या
‘ड़’ की जगह ‘ड’ का प्रयोग संभव नहीं है, अत: इनके बीच
परिपूरक वितरण है।
स्वनिमों के बीच इन दोनों के अलावा ‘मुक्त
वितरण’ भी पाया जाता है, जो परिपूरक
वितरण का ही एक प्रकार है। जब दो स्वनिम किसी भाषा में इस तरह प्रयुक्त होते हैं
कि पहले के स्थान पर दूसरे और दूसरे के स्थान पर पहले का प्रयोग करने से अर्थ में
कोई अंतर नहीं आता तो दोनों स्वनिम परस्पर मुक्त वितरण में होते हैं। आगे इसकी
विस्तृत चर्चा ‘स्वनिमिक विश्लेषण के सिद्धांत’ में की जाएगी।
4.5 व्यावर्तक अभिलक्षण
व्यावर्तक अभिलक्षण वे उच्चारणात्मक अभिलक्षण हैं जिनके आधार पर एक से अधिक
स्वनिमों में प्रकार्यात्मक अंतर किया जाता है, जैसे-
+घोषअघोष, +महाप्राणमहाप्राण, +नासिक्य/-नासिक्य आदि। व्यावर्तक अभिलक्षण सिद्धांत के अनुसार ‘स्वनिम’ भाषा की सबसे छोटी और व्यावर्तक इकाई नहीं
है बल्कि प्रत्येक स्वनिम कुछ अभिलक्षणों का एक गुच्छ है। इनमें एक या एकाधिक
लक्षणों के होने या न होने के आधार पर दो स्वनिमों में भेद किया जाता है। इनके
माध्यम से किसी स्वनिम और उस स्वनिम के वर्ग का निर्धारण किया जाता है। इससे किसी
भाषा में प्रयुक्त होने वाले सभी स्वनिमों की सूची सरलतापूर्वक बनाई जा सकती है।
इसके अलावा व्यावर्तक अभिलक्षणों का विश्लेषण करते हुए ध्वन्यात्मक परिवर्तनों को
भी सरलतापूर्वक नियमबद्ध किया जा सकता है।
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. (पूरा पढ़ने के लिए ऊपर बताए गए लिंक पर जाएँ)
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