ई-पी.जी. पाठशाला में भाषाविज्ञान
ई-पी.जी. पाठशाला के माध्यम से भाषाविज्ञान के महत्वपूर्ण विषयों पर पाठ फाइलें और विडियो सामग्री उपलब्ध है। इन्हें को पढ़ने और विडियो देखने के लिए इस लिंक पर जाकर Paper Name और Module Name का चयन करें-
इस लिंक पर जाने के बाद निम्नलिखित वेबपृष्ठ खुलेगा-
इसमें Paper Name और Module Name को मार्क करके दिखाया गया है। इन्हें इस प्रकार सलेक्ट करें-
Paper Name – P-05. Bhashavigyan
Module Name - M-11. Vyavartak Abhilakshan
परिचय के लिए कुछ पृष्ठ इस प्रकार हैं-
.........................................
2. प्रस्तावना
व्यावर्तक
अभिलक्षण शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है – व्यावर्तक (distinctive) और अभिलक्षण
(feature)। ‘व्यावर्तक’
शब्द का अर्थ है- ‘भेद उत्पन्न करने वाला’ तथा ‘अभिलक्षण’ का अर्थ है- ‘विशेषता’। अर्थात् किसी भी चीज में पाई जाने वाली वह
विशेषता जो उसे दूसरे से अलग करती है, व्यावर्तक अभिलक्षण
है। एक बड़े समूह की एकाधिक वस्तुओं को एक-दूसरे से अलग-करके भिन्न-भिन्न उपसमूहों
में विभाजित करने वाले अभिलक्षण व्यावर्तक अभिलक्षण हैं। इसे बाह्य संसार के एक
उदाहरण से समझा जा सकता है-
‘प्राणी’ एक बड़ा वर्ग है। इसके ‘पशु’, ‘पक्षी’, ‘मानव’, ‘कीड़े-मकोड़े’ और ‘जलीय जीव’ आदि अनेक उपवर्ग किए जा सकते हैं। अब एक प्रश्न किया जा सकता है कि यदि ‘पशु’ और ‘पक्षी’ दोनों प्राणी हैं तो दोनों एक दूसरे से अलग क्यों हैं? इसके उत्तर के रूप में उनमें पाई जाने वाली कोई भी ऐसी विशेषता बताई जा
सकती है जो ‘पशु’ और ‘पक्षी’ को एक दूसरे से अलग करती है। उदाहरण के लिए ‘पशुओं का चौपाया होना’ या ‘पक्षियों
के पास पंख होना’ आदि। इन दोनों ही कारणों से दोनों में भेद
किया जा सकता है। अत: दोनों प्रकार के प्राणियों के उपवर्ग करने के लिए व्यावर्तक
अभिलक्षण हैं।
यही
बात भाषा के संदर्भ में भी लागू होती है। एक ही भाषिक स्तर पर एक से अधिक इकाइयाँ
भिन्न-भिन्न क्यों हैं? इस प्रश्न
का उत्तर जिन लक्षणों के आधार पर दिया जाता है, वे लक्षण व्यावर्तक
अभिलक्षण कहलाएँगे। रूपिम स्तर का एक सुपरिचित उदाहरण देखा जा सकता है- हिंदी में
बद्ध रूपिम दो प्रकार के हैं- ‘उपसर्ग’
और ‘प्रत्यय’। दोनों में क्या अंतर है? इसे हम सरलतम शब्दों में कह सकते हैं कि ‘उपसर्ग’ शब्द के पूर्व ही लगते हैं और ‘प्रत्यय’ शब्द के अंत में। दोनों में अंतर करने वाला यह लक्षण व्यावर्तक अभिलक्षण
कहलाएगा। इसे सूत्र रूप में संक्षेप में इस प्रकार प्रदर्शित किया जा सकता है-
उपसर्ग = +शब्दपूर्व, -शब्दांत
प्रत्यय = -शब्दपूर्व, +शब्दांत
अतः
मूल शब्द के साथ जुड़ने वाले बद्ध रूपिम का योजन स्थान यहाँ पर एक व्यावर्तक
अभिलक्षण है। इसी प्रकार से कुछ लक्षणों का निर्धारण करते हुए स्वनिमों में भेद
किया गया है। इन्हीं लक्षणों को व्यावर्तक अभिलक्षण कहा गया है, जिसकी चर्चा आगे की जा रही है।
3. अवधारणा और स्वरूप
व्यावर्तक
अभिलक्षण वे भाषिक लक्षण हैं जिनके आधार पर एक से अधिक स्वनिमों में प्रकार्यात्मक
अंतर किया जाता है। स्वनिमविज्ञान में इन्हें स्वनिमिक संरचना की सबसे छोटी इकाई
कहा गया है। अत: व्यावर्तक अभिलक्षण सिद्धांत के अनुसार ‘स्वनिम’ भाषा की
सबसे छोटी और स्वतंत्र इकाई नहीं है बल्कि प्रत्येक स्वनिम कुछ लक्षणों का एक गुच्छ
है। इनमें एक या एकाधिक अभिलक्षणों के होने या न होने के आधार पर दो स्वनिमों में
भेद किया जाता है। इनके माध्यम से किसी स्वनिम और उस स्वनिम के वर्ग का निर्धारण
किया जाता है। इससे किसी भाषा में प्रयुक्त होने वाले सभी स्वनिमों की सूची सरलतापूर्वक
बनाई जा सकती है। इसके अलावा व्यावर्तक अभिलक्षणों का विश्लेषण करते हुए
ध्वन्यात्मक परिवर्तनों को भी रेखांकित किया जा सकता है।
व्यावर्तक
अभिलक्षणों को Neil Smith और Deirdre
Wilson (1979) द्वारा इस प्रकार से परिभाषित किया गया है-
“A set of
universal, putatively innate phonetic and phonological properties by reference
to which the speech sounds of the world’s languages are described…”
(Modern Linguistics, p. 275 : Indiana
University Press).
भाषाविज्ञान
में पारंपरिक रूप से स्वनिम को किसी भाषा की सबसे छोटी इकाई माना जाता रहा है।
स्वनिमविज्ञान के अंतर्गत इसका विश्लेषण किया जाता है। इसके लिए शब्दों, रूपिमों अथवा अन्य बड़ी भाषिक इकाइयों
को खंडित करते हुए विभिन्न स्वनिमों की सूची तैयार की जाती है और उनका वर्गीकरण
किया जाता है। पारंपरिक रूप से स्वनिमों के वर्गीकरण में उनके स्वनिक आधार ही
मुख्य रहे हैं, जैसे- उच्चारण स्थान (Place of
articulation) और उच्चारण प्रयत्न (Manner of articulation) आदि। व्यावर्तक अभिलक्षणों के अध्ययन-विश्लेषण और इनकी स्थापना के पश्चात
वर्तमान में इन्हें स्वनिमों के वर्गीकरण के मुख्य आधार के रूप में देखा जा रहा
है।
स्वनिमों
में पाए जाने वाले विशिष्ट ध्वन्यात्मक या स्वनिक लक्षण ‘व्यावर्तक अभिलक्षण’ हैं। इनके होने या न होने से दो स्वनिमों में अंतर किया जा सकता है। किसी
भी स्वनिम को उसमें पाए जाने वाले सभी व्यावर्तक अभिलक्षणों के समुच्चय के रूप
में व्याख्यायित किया जा सकता है। इसी प्रकार एकाधिक लक्षणों के एक साथ किसी
स्वनिम में होने अथवा नहीं होने के आधार पर स्वनिमों के वर्ग भी निर्धारित होते
हैं।
व्यावर्तक
अभिलक्षण निर्धारण प्रक्रिया में प्रत्येक लक्षण को एक नाम या प्रतीक दिया जाता
है। तत्पश्चात उनके मूल्य दो प्रकार से, द्विचर रूप में प्रदर्शित किए जाते हैं-
उपलब्ध अथवा अनुपलब्ध। इन दो रूपों में प्रस्तुति को द्विआधारी (binary) कहा गया है। उपलब्धता की
स्थिति को ‘+’ और ‘-’ द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। ‘+’ का अर्थ है :
लक्षण का पाया जाना, और ‘-’ का अर्थ है
: लक्षण का नहीं पाया जाना। एकाधिक स्वनों को लेकर इसी प्रकार से मूल्यों को अंकित
किया जाता है, यदि उनमें कम-से-कम एक लक्षण का अंतर पाया
जाता है तो वे दो अलग-अलग स्वनिम माने जाएँगे।
एक
और एकाधिक भाषाओं में उपलब्धता के आधार पर व्यावर्तक अभिलक्षण दो प्रकार के होते
हैं –
1. सार्वभौमिक (universal)
: वे व्यावर्तक अभिलक्षण जो सभी भाषाओं के स्वनों में पाए जाते हैं, सार्वभौमिक व्यावर्तक अभिलक्षण होते हैं।
2. भाषा-विशिष्ट (language specific) : किसी भाषा विशेष के स्वनों में पाए जाने वाले लक्षण
भाषा विशिष्ट अभिलक्षण होते हैं। कुछ ऐसे भी भाषा-विशिष्ट अभिलक्षण होते हैं, जो किसी क्षेत्र-विशेष की भाषाओं या
एक भाषा परिवार की सभी भाषाओं में पाए जाते हैं।
वैसे
तो सामान्यत: व्यावर्तक अभिलक्षण सार्वभौमिक ही होते हैं, किंतु कुछ भाषाओं में कुछ विशेष लक्षण
भी प्राप्त होते हैं जिन्हें भाषा-विशिष्ट कहा जाता है।
4. व्यावर्तक अभिलक्षणों के अध्ययन का इतिहास
व्यावर्तक
अभिलक्षणों के अध्ययन का इतिहास स्वनिम के अध्ययन विश्लेषण के इतिहास के साथ जुड़ा
हुआ है। इस संदर्भ में अप्रत्यक्ष रूप से बातें तो पोलिश विद्वान बाद्विन कुर्तने
द्वारा ‘स्वनिम’ की अवधारणा देने के बाद से ही आरंभ हो गई थीं,
किंतु इस दिशा में प्रथम संकेत एफ.डी. सस्यूर का प्राप्त होता है। उन्होंने ‘स्वनिमिक विपरीतात्मकता’ (phonological
opposition) की व्यवस्था के आधारभूत तत्वों की ओर संकेत किया। इसी
क्रम में 1930 के दशक में प्राग संप्रदाय में इस पर व्यवस्थित कार्य आरंभ हुआ।
आधुनिक व्यावर्तक अभिलक्षणों के आधारभूत तत्वों की ओर त्रुबेत्स्काय (1939)
द्वारा संकेत किया गया। यहीं पर ‘स्वनविज्ञान’ और ‘स्वनिमविज्ञान’ में स्पष्ट
रूप से भेद भी किया गया। त्रुबेत्सकाय ने विभिन्न प्रकार के स्वनिमिक विरोधों
द्वारा स्वनिमों में भेद की ओर ध्यान आकृष्ट किया।
स्वनिमिक
विरोधों को ‘व्यावर्तक अभिलक्षणों’ के रूप पर सर्वप्रथम व्यवस्थित रूप से प्राग संप्रदाय के ही सुप्रसिद्ध
भाषाविद् रोमन याकोब्सन (Roman Jakobsan) ने प्रस्तुत किया।
इनके अलावा गनर फैंट (Gunnar Fant) और मोरिस हाले (Morris
Halle) द्वारा भी इस पर कार्य किया गया है। 1942 से 1952 तक किए गए
उनके कार्यों ने अनेक व्यावर्तक अभिलक्षणों की स्पष्ट स्थापना की। उनके द्वारा
बताए गए व्यावर्तक अभिलक्षण मुख्यत: उच्चारण से ही संबंधित रहे हैं। 1956 ई. में
याकोब्सन और हाले ने रूसी भाषा के स्वनिमिक अध्ययन में सैद्धांतिक बिंदु प्रस्तुत
किए।
व्यावर्तक
अभिलक्षणों के अध्ययन विश्लेषण का विकास बाद में अन्य रूपों में होता रहा। इनमें
स्वनिमों पर प्रजनक दृष्टि से विचार भी सम्मिलित है। चॉम्स्की द्वारा प्रजनक
व्याकरण को प्रस्तावित करने के पश्चात हॉले के साथ इस दिशा में भी कार्य किया गया।
जैसा कि पिछली इकाई में बताया जा चुका है कि 1960 के दशक में चॉम्स्की, मॉरिस हॉले (Morris’ Halle), पॉल पोस्टल एवं बोथा आदि विद्वानों द्वारा इस दिशा में कार्य आरंभ किया
गया। 1968 ई. में चॉम्स्की और हॉले की महत्वपूर्ण पुस्तक ‘The Sound
Pattern of English’ (SPE) प्रकाशित हुई। वैसे इस पुस्तक से पूर्व
ही सन् 1959 में हॉले की पुस्तक ‘The Sound Pattern of Russian’ और चॉम्स्की तथा हॉले का शोधपत्र ‘Phonology in generative
grammar’ (1962, Word) प्रकाशित हो चुके थे।
इनके अलावा इस दिशा में प्रकाशित अन्य ग्रंथों में पोस्टल की ‘Aspects of
the Phonological Theory (1972), बोथा द्वारा
रचित Methodological Aspects of Transformational
Generative Phonology (1971), और शेन की Elements
of Generative Phonology आदि
प्रमुख हैं।
5.
प्रमुख व्यावर्तक अभिलक्षण
विभिन्न विद्वानों द्वारा वर्णित प्रमुख व्यावर्तक
अभिलक्षण इस प्रकार हैं –
1.
पूर्ववर्ती
और अपूर्ववर्ती (Anterior and
Posterior) : जिन
स्वनों का उच्चारण मुखविवर के तालुवर्त्स्य क्षेत्र तथा उसके आगे के भाग में वायु
प्रवाह में अवरोध करके किया जाता है,
वे पूर्ववर्ती कहलाते हैं। इस क्षेत्र के पीछे से उच्चरित किए जाने वाले स्वन
अपूर्ववर्ती कहलाते हैं।
2.
उच्च और अनुच्च (High/ Non-high) : जिन स्वनों का उच्चारण जिह्वा की सामान्य
स्थिति से ऊपर उठने के बाद किया जाता है, वे उच्च होते हैं। ऐसी स्थिति के बिना उच्चरित स्वन अनुच्च होते हैं।
3. निम्न और अनिम्न (Low and Non-low) : जिन स्वनों का उच्चारण जिह्वा की तटस्थ
स्थिति से नीचे लाने पर होता है उन्हें निम्न कहते हैं और जिनके उच्चारण में नीचे
लाने की आवश्यकता नहीं पड़ती, वे अनिम्न कहलाते हैं।
नोट : ‘उच्च
और अनुच्च’ तथा ‘निम्न और अनिम्न’ का निर्णय जिह्वा की सामान्य स्थिति से ऊपर जाने और नीचे जाने के आधार पर
होता है। ये दोनों अलग-अलग स्थितियाँ हैं।
4. पश्च और अपश्च (Back and Non-back) : जिन स्वनों के उच्चारण में जिह्वा की
अवस्था आंकुचित (Retracted) होती है उन्हें पश्च कहते हैं और जिनके
उच्चारण में आंकुचित नहीं होती, उन्हें अपश्च कहते हैं।
5. जिह्वाफलकीय और अजिह्वाफलकीय (Coronal and Non-coronal) : जिन स्वनों के उच्चारण में जिह्वा फलक
अपनी तटस्थ स्थिति से ऊपर उठता है उन्हें
जिह्वाफलकीय कहते हैं और जिनके उच्चारण में तटस्थ अवस्था में रहता है, उन्हें अजिह्वाफलकीय कहते हैं।
6. नासिक्य और अनासिक्य (Nasal and Non-Nasal) : जिन स्वनों के उच्चारण में अलिजिह्वा के नीचे होने के
कारण वायु-प्रवाह नासिका विवर से होता है उन्हें नासिक्य कहते हैं और जिनका
उच्चारण केवल मुख-विवर से होता है, उन्हें अनासिक्य कहते हैं।
7. पार्श्विक और अपार्श्विक (Lateral and Non-Lateral) : वे स्वन जिनके उच्चारण में जिह्वा के
मध्य भाग के दोनों या एक पार्श्व को नीचे करने पर वायु-प्रवाह पार्श्व से निकलता
है वे पार्श्विक कहलाते हैं और जिनके उच्चारण में पार्श्व मार्ग नहीं खुलता, वे अपार्श्विक कहलाते हैं।
8. वृत्ताकार और अवृत्ताकार (Rounded and Un-rounded) : इस विभाजन का आधार होठों की स्थिति है। वे स्वन जिनके
उच्चारण में होठ गोलाकार हो जाते हैं वे वृत्ताकार होते हैं और जिनके उच्चारण में
होठ गोलाकार नहीं होते, वे
अवृत्ताकार होते हैं।
9. दृढ़ और शिथिल (Tense and Lax) : इन अभिलक्षणों का संबंध जिह्वा में संकुचन या खिंचाव
की अवस्था से है। जिन स्वनों के उच्चारण में जिह्वा में संकुचन होता है उन्हें दृढ़
कहते हैं और जिनके उच्चारण में संकुचन कम होता है, उन्हें अदृढ़ कहते हैं।
10. रुक्ष और अरुक्ष (Strident and Non-Strident) : जिन स्वनों में अधिक कर्कशता या
तीक्ष्णता अधिक हो वे रुक्ष कहलाते हैं और जिनके उच्चारण में कम हो, वे अरुक्ष कहलाते हैं।
11. वितरित और अवितरित (Distributed and Non-distributed) : जिन स्वनों के उच्चारण में संकोचन
वायुप्रवाह की दिशा के साथ-साथ अधिक दूरी तक व्याप्त होता है उन्हें वितरित कहते
हैं और कम दूरी तक व्याप्ति होने पर उच्चरित ध्वनि अवितरित कहलाती हैं।
12. प्रवाही और अप्रवाही (Continuant and Non-Continuant) : वे स्वन जिनके उच्चारण में मुख-विवर
में ध्वनि-प्रवाह पूरी तरह बाधित या अवरुद्ध नहीं होता, प्रवाही कहलाते हैं जबकि अप्रवाही
स्वनों के उच्चारण में ध्वनि का प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है।
13. तात्कालिक मोचन और विलंबित मोचन (Instantaneous release and Delayed release) : कुछ स्वनों (जैसे – स्पर्श स्वन) के
उच्चारण में ध्वनि-प्रवाह को बाधित करने के उपरांत तुरंत छोड़ दिया जाता है, जिससे वायु प्रवाह बिना किसी संघर्ष
के बाहर आ जाता है। यह स्थिति तात्कालिक मोचन कहलाती है। इसके विपरीत कुछ स्वनों
(जैसे- स्पर्श संघर्षी स्वन) के उच्चारण में मोचन की स्थिति देर तक बनी रहती है, इसे विलंबित मोचन कहते हैं।
14. आक्षरिक और अनाक्षरिक (Syllabic and
Non-syllabic) : आक्षरिक स्वन वे स्वन हैं जिनमें एक
निनादिता शिखर (sonority peak) होता है, अर्थात जिनके उच्चारण में एक श्वासाघात की आवश्यकता पड़ती है। सभी स्वर
आक्षरिक होते हैं। अनाक्षरिक स्वनों में निनादिता शिखर नहीं होता।
15. घोष और अघोष (Voiced /
Voiceless) : जिन स्वनों के उच्चारण में स्वरतंत्रियों में कंपन की
मात्रा अधिक होती है, वे
घोष होते हैं और जिनके उच्चारण में स्वरतंत्रियों में कंपन की मात्रा कम होती है, वे अघोष होते हैं।
16. व्यंजनात्मक और अव्यंजनात्मक (Consonantal /
Non-consonantal) : व्यंजनात्मक स्वन वे हैं जिनके उच्चारण
में वायु-प्रवाह को मुख-विवर में कहीं-न-कहीं बाधित किया जाता है, जबकि अव्यंजनात्मक स्वनों के उच्चारण
में वायु-प्रवाह मुख विवर में कहीं भी बाधित नहीं होता। सभी स्वर अव्यंजनात्मक
होते हैं।
17. ओष्ठ्य और अनोष्ठ्य (Labial /
Non-labial) : ओष्ठ्य स्वनों का उच्चारण होठों की
स्थिति में परिवर्तन करके किया जाता है, जबकि अनोष्ठ्य स्वनों के उच्चारण का संबंध होठों की स्थिति से नहीं
होता।
18.
ऊष्म और अनूष्म
(Sibilant / Non-sibilant) : ऊष्म
स्वन वे स्वन हैं जिनकी आवृत्ति (frequency) बहुत अधिक होती है। अनूष्म स्वनों
की आवृत्ति कम होती है। आवृत्ति ध्वनि तरंग (sound wave) की
भौतिक विशेषता है, जिसका अध्ययन भौतिक स्वनविज्ञान (acoustics)
में किया जाता है।
व्यावर्तक
अभिलक्षणों को उच्चारण-स्थान, भौतिक तरंगीय स्थिति आदि आधारों पर वर्गीकृत भी किया गया है। किंतु कुछ
को प्रकट करने के लिए उनकी तरंगीय स्थिति और उच्चारण-स्थान दोनों को भी देखना पड़
सकता है। इस कारण यहाँ बिना वर्गीकरण के केवल सूची दी गई है।
6. व्यावर्तक अभिलक्षण और स्वनिमिक विश्लेषण
स्वनिमिक विश्लेषण
स्वनिमविज्ञान के अंतर्गत किया जाने वाला केंद्रीय कार्य है। स्वनिमिक विश्लेषण
के अंतर्गत किसी भाषा के सभी स्वनिमों की सूची तैयार की जाती है। विभिन्न प्रकार
के स्रोतों से स्वनिमों का संचय करने के उपरांत स्वनिमों का वर्गीकरण भी किया जाता
है। वर्गीकरण की इस प्रक्रिया में एक वर्गीकरण व्यवस्था भी प्रदान करने का प्रयास
किया जाता है। वर्गीकरण और व्यवस्था के निर्धारण में व्यावर्तक अभिलक्षण आधार
निर्धारण के स्तंभ की भूमिका निभाते हैं।
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. (पूरा पढ़ने के लिए ऊपर बताए गए लिंक पर जाएँ)
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