ई-पी.जी. पाठशाला में भाषाविज्ञान
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Paper Name – P-05. Bhashavigyan
Module Name - M-10. Swanimik Vishleshan Ke Siddhant
परिचय के लिए कुछ पृष्ठ इस प्रकार हैं-
.........................................
2. प्रस्तावना
जैसा कि पिछली इकाइयों में बताया जा चुका है कि स्वनिम
किसी भाषा की लघुतम अर्थभेदक इकाई है। अर्थात् यह भाषा की सबसे छोटी इकाई है, जिसमें दो शब्दों के अर्थ में अंतर
करने का सामर्थ्य होता है। भाषा में वाक्यों द्वारा व्यवहार और संप्रेषण संबंधी
कार्य होता है। इन वाक्यों को पदबंधों में खंडित करके विश्लेषित किया जाता है।
इसी प्रकार से पदबंधों को शब्दों में, शब्दों को रूपिमों में
फिर रूपिमों को स्वनिमों में खंडित किया जा सकता है। किंतु स्वनिम से छोटे खंड
नहीं बनाए जा सकते। इसी कारण स्वनिम को लघुतम इकाई कहा गया है। स्वनिमों का अपना
अर्थ नहीं होता किंतु वे दो रूपिमों अथवा शब्दों में अर्थभेद करने की क्षमता रखते
हैं। इस कारण उन्हें अर्थभेदक कहा गया है। इनकी सत्ता अमूर्त होती है और ये मानव मन
में होते हैं। मानव मन में स्वनिम संकल्पनात्मक रूप में रहता है और उसी के आधार पर
मनुष्य उसका उपयोग बार-बार भाषा उत्पादन (अभिव्यक्ति) और बोधन में करता है।
प्रस्तुत इकाई में स्वनिमिक विश्लेषण के
सिद्धांतों पर प्रकाश डाला जाएगा।
स्वनिम वाचिक भाषा की इकाई है। चूँकि इसका संबंध वाचिक
भाषा से है इसलिए एक स्वनिम का निर्धारण करना अपने-आप में अत्यंत जटिल कार्य है।
वाचिक भाषा बहुत ही लचीली होती है। बोलने में हम कम-से-कम एक वाक्य का प्रयोग करते
हैं, या संदर्भ विशेष में
एक शब्द का। किसी उच्चरित वाक्य से शब्दों को तो अलगाया जा सकता है, किंतु उच्चरित शब्द से स्वनों (स्वनिम की भौतिक अभिव्यक्ति) को अलगाना
बहुत ही कठिन कार्य है। कोई शब्द किसी व्यक्ति द्वारा किस प्रकार से उच्चरित किया
जाएगा इसे वक्ता की आयु, लिंग, वाक्
अंगों की बनावट, और शारीरिक तथा मानसिक स्थिति सभी चीजें
प्रभावित करती हैं। उदाहरण के लिए – काम, कमल, क्लेश कोई भी शब्द ले लिया जाए तो एक पुरुष और एक महिला के उच्चारण में
अंतर होगा। इसी प्रकार एक बालक, युवा और वृद्ध के उच्चारण
में भी अंतर होगा।
इसी प्रकार स्वनिमिक परिवेश के अंतर का भी प्रभाव पड़ता
है। इन शब्दों में ‘क्’
के बाद क्रमश: ‘आ’, ‘म्’ और ‘ल्’
स्वनिम आए हैं। अत: तीनों शब्दों में ‘क्’
का उच्चारण एक जैसा नहीं होगा। ‘काम’ बोलने पर ‘क्’ के उच्चारण के साथ
ही ‘आ’ के उच्चारण के लिए मुख-विवर खुलने
लगता है। इसी प्रकार ‘कमल’ के उच्चारण में
‘क्’ का उच्चारण पूरा होते–होते वक्ता का वाग्-तंत्र नासिक्यता की ओर चला जाता है। ‘क्लेश’ के संदर्भ में भी यह स्थिति देखी जा सकती है।
भले ही हम कानों से सुनकर इस अंतर को पूरी तरह महसूस न कर पा रहे हों, किंतु मशीन में ध्वनि-तरंगों को देखकर इसे सरलतापूर्वक समझा जा सकता है।
विश्व में अनेक ऐसी भाषाएँ हैं जिनका केवल वाचिक
व्यवहार होता है। उन भाषाओं के शब्दकोश अथवा व्याकरण निर्मित नहीं हैं। अनेक
भाषावैज्ञानिक ऐसे क्षेत्रों में जाते हैं और वहाँ के निवासियों से बोलवाकर उन
भाषाओं का डाटा एकत्र करते हैं। उस डाटा के आधार पर संबंधित भाषा की वर्णमाला, शब्दकोश
और व्याकरण आदि का निश्चय किया जाता है।
इसमें स्वनिमिक विश्लेषण की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
किसी भाषा के पहली बार विश्लेषण और व्याकरण निर्माण
में सबसे कठिन कार्य स्वनिमिक विश्लेषण ही है। इसके लिए भाषावैज्ञानिक उसी
भाषायी समाज में रहकर भाषाभाषियों के वार्तालापों की रिकार्डिंग करते हैं। ये
वार्तालाप भिन्न–भिन्न परिवेशों में अलग-अलग विषयों के होते हैं, जिससे एकत्रित की जा रही वाचिक
सामग्री में सभी प्रकार के शब्द आ सकें। जब विशाल मात्रा में भाषा की वाचिक
सामग्री का संकलन हो जाता है, तो वाक्यों और शब्दों को
अलग-अलग चिन्हित किया है। इसके बाद स्वनिमिक विश्लेषणका कार्य आरंभ होता है।
एक-एक शब्द को लेकर उसके स्वनिमों को अलगाया जाता है और दूसरे शब्द में आए स्वनिमों
से मिलान किया जाता है। यदि नए शब्द के स्वनिम पूर्व में आ चुके हों तो उन्हें
छोड़ दिया जाता है और यदि कोई नया स्वनिम प्राप्त होता है तो उसे सूची में जोड़
लिया जाता है। यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक उस भाषा की स्वानिमिक व्यवस्था
प्राप्त नहीं हो जाती। इस कार्य में बीच में कुछ ऐसे स्वनिम भी होते हैं, जिनके बारे में यह निश्चित करना कठिन हो जाता है कि इन्हें स्वतंत्र स्वनिम
माना जाए, या किसी स्वनिम का उपस्वन। ऐसी कठिन
परिस्थितियों में निर्णय लेने के लिए ही स्वनिमिक विश्लेषण के कुछ सिद्धांतों की
स्थापना उन भाषावैज्ञानिकों द्वारा की गई है, जिन्होंने इस
क्षेत्र मे कार्य किया है। उदाहरण के लिए ही सी.एफ. हॉकेट की रचना ‘Manual
of Phonology’ (1955) में इन पर विस्तृत चर्चा देखी जा सकती है।
भाषावैज्ञानिकों द्वारा स्वनिमिक विश्लेषण करते हुए
स्वनिमों के निर्धारण संबंधी दिए गए कुछ सिद्धांतों को संक्षेप में आगे दिया जा
रहा है।
3. स्वनिमिक विश्लेषण के प्रमुख सिद्धांत
स्वनिमिक विश्लेषण किसी भाषा में पाए जाने वाले
स्वनिमों और उनके उपस्वनों के निर्धारण की प्रक्रिया है, जिसके द्वारा उस भाषा की स्वनिमिक
व्यवस्था का निरूपण किया जाता है। इसके लिए भाषावैज्ञानिकों द्वारा दिए गए प्रमुख
सिद्धातों को निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत समझा जा सकता है-
3.1 स्वनिक सादृश्य (Phonetic
Similarity)
3.2 परिपूरक वितरण (Complimentary
Distribution)
3.3 अभिरचना अन्विति (Pattern
Congruity)
3.4 लाघव (Economy)
इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-
3.1 स्वनिक सादृश्य (Phonetic Similarity)
किसी भी ध्वनि का जब अन्य ध्वनियों के साथ उच्चारण
होता है तो उसके स्वरूप में कुछ-न-कुछ परिवर्तन आ ही जाता है। उदाहरण के लिए ‘काम’, ‘कुल’ तथा ‘कोमल’ शब्दों में ‘क्’ का उच्चारण
बिल्कुल एक जैसा नहीं है। ‘क्’ के बाद
आई ध्वनियाँ ‘आ’, ‘उ’ तथा ‘ओ’ का भी इसके उच्चारण में थोड़ा बहुत प्रभाव पड़ता है। इसे मशीनी ग्राफों में
स्पष्ट देखा जा सकता है। किंतु यह प्रभाव उतना अधिक नहीं होता कि ‘क्’ को पहचाना न जा सके। ऐसी ध्वनियाँ उच्चारण स्थान
तथा उच्चारण प्रत्यत्न की दृष्टि से सदैव समान होती हैं। इसलिए इनके उच्चारण में
भी पर्याप्त ध्वनिक समानता प्राप्त होती है, जिसे स्वनिक
सादृश्य कहते हैं। ऐसी स्थिति रखने वाले सभी स्वनों का स्वनिम एक ही होता है।
कभी-कभी उच्चारण स्थान या उच्चारण प्रयत्न में थोड़ा-बहुत अंतर होता है।
इसे हिंदी के ‘ड’ तथा ‘ड़’ स्वनों में देखा जा सकता है। इन स्वनों में उच्चारण की दृष्टि से
पर्याप्त समानता है, जैसे- दोनों ही स्वनों का उच्चारण स्थान
मूर्धा है तथा इनके उच्चारण में जिह्वा की स्थिति प्रतिवेष्ठित रहती है। दोनों में
अंतर केवल यह है कि ‘ड’ स्पर्श है जबकि
‘ड़’ उत्क्षिप्त। अत: स्वनिक सादृश्य
के आधार पर दोनों एक एक स्वनिम के उपस्वन हो सकते हैं, किंतु प् और स् स्वनिक
सादृश्य न होने के कारण भिन्न स्वनिमों का गठन करते हैं और एक स्वनिम के उपस्वन
नहीं हो सकते।
3.2 परिपूरक वितरण (Complimentary Distribution)
जैसा कि पिछली इकाई में बताया गया है कि स्वनिमों के
अध्ययन-विश्लेषण में उनके परिपूरक वितरण को भी देखा जाता है, जो स्वनिम और संस्वन निर्धारण हेतु
अत्यंत महत्वपूर्ण कसौटी है। दो अलग-अलग स्वनिमों की पहचान या एकाधिक स्वनों के
आपस में संस्वन होने की स्थितियों का निर्णय उनके वितरण के आधार पर ही किया जाता
है। इसमें विभिन्न शब्दों में स्वनों के प्रयोग की विभिन्न स्थितियों को ज्ञात
किया जाता है, यथा- शब्द के आदि में, मध्य में या अंत में आदि। जैसा कि पिछली
इकाई में बताया जा चुका है कि वितरण दो प्रकार के होते हैं- व्यतिरेकी वितरण और
परिपूरक वितरण। दो भिन्न-भिन्न स्वनिम आपस में व्यतिरेकी वितरण में होते हैं, जबकि किसी स्वनिम के विभिन्न उपस्वन आपस में परिपूरक वितरण में होते
हैं।
परिपूरक वितरण का एक प्रकार ‘मुक्त वितरण’ है।
स्वनिमों के निर्धारण और विश्लेषण में वितरण का बहुत
अधिक योगदान होता है। पिछले पाठ में /ड/ और ‘ड़’ के संबंध में किया
गया विवेचन शब्दों में प्रयोग की दृष्टि से वितरण को ही दर्शाता है। इस कारण
इन्हें एक ही स्वनिम के संस्वन मानने में कठिनाई नहीं होती। केवल उच्चारण स्थान और
उच्चारण प्रयत्न देखने की बात होती तो ये दो स्वनिम भी हो सकते थे। किंतु पर्याप्त
स्वनिक सादृश्य के अलावा इनके आपस में परिपूरक वितरण होने के कारण, अर्थात् शब्द
के आदि में द्वित्व तथा नासिक्य व्यंजन के बाद केवल (ड) और स्वरों के बीच तथा
शब्द के अंत में केवल (ड़) का प्रयोग होने के कारण इन्हें एक ही स्वनिम के दो उपस्वन
माना गया है।
3.3 अभिरचना अन्विति (Pattern Congruity)
भाषा विभिन्न स्तरों (स्वनिम से लेकर प्रोक्ति तक) की
इकाइयों की आपसी सहसंबद्ध व्यवस्था से निर्मित है। इनमें से प्रत्येक इकाई
किसी-न-किसी रूप में दूसरी इकाई को प्रभावित करती है। इसलिए किसी भी स्तर पर
संपूर्ण व्यवस्था का निर्धारण करते समय यह देखना आवश्यक होता है कि कोई भी इकाई
अव्यवस्था न उत्पन्न करती हो। अत: स्वनिमों के निर्धारण के समय यह ध्यान रखना
आवश्यक होता है कि जिन स्वनिमों का निरूपण हो वे भाषा की ध्वनि व्यवस्था के
अनुरूप ही हों। इसके अलावा उनमें आपस में सहसंबंध भी किसी-न-किसी रूप में बनता हो।
सहसंबंधों की यह स्थिति ‘अभिरचना’ है। स्वनिमों की व्यवस्था में निहित सहसंबंध के अनुरूप स्वनिमों का
व्यवस्थित समूह निर्माण तथा उनके वितरण का निर्धारण अभिरचना अन्विति है।
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. (पूरा पढ़ने के लिए ऊपर बताए गए लिंक पर जाएँ)
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