ई-पी.जी. पाठशाला में भाषाविज्ञान
ई-पी.जी. पाठशाला के माध्यम से भाषाविज्ञान के महत्वपूर्ण विषयों पर पाठ फाइलें और विडियो सामग्री उपलब्ध है। इन्हें को पढ़ने और विडियो देखने के लिए इस लिंक पर जाकर Paper Name और Module Name का चयन करें-
इस लिंक पर जाने के बाद निम्नलिखित वेबपृष्ठ खुलेगा-
इसमें Paper Name और Module Name को मार्क करके दिखाया गया है। इन्हें इस प्रकार सलेक्ट करें-
Paper Name – P-05. Bhashavigyan
Module Name - M-12. Roopvigyan Paribhasha Aur Swaroop
परिचय के लिए कुछ पृष्ठ इस प्रकार हैं-
.........................................
2. प्रस्तावना
प्रत्येक भाषा कुछ सीमित अर्थहीन इकाइयों का प्रयोग करती है जिनके द्वारा असंख्य अर्थपूर्ण इकाइयों की रचना की जाती है। इन सीमित अर्थहीन इकाइयों को हम सामान्य भाषा में ‘ध्वनि’ कहते हैं, जिसे भाषाविज्ञान में ‘स्वन’ नाम दिया गया है। जब ये किसी भाषा विशेष की ध्वनि व्यवस्था को गठित करते हैं, तो स्वनिम कहलाते हैं। स्वनिमों द्वारा विभिन्न स्तरों पर अर्थवान इकाइयों की रचना की जाती है। इनमें पहला स्तर ‘रूप’ (Morph) का है। इसके बाद क्रमशः शब्द, पद, पदबंध, उपवाक्य, वाक्य, और प्रोक्ति आते हैं। ‘रूप’ की संकल्पनात्मक इकाई रूपिम है। रूप, रूपिम और इनसे जुड़ी इकाइयों तथा प्रक्रियाओं का अध्ययन रूपविज्ञान में किया जाता है, जिसका विवेचन प्रस्तुत इकाई में किया जा रहा है।
3. रूपविज्ञान : स्वरूप एवं प्रकार
‘रूपविज्ञान’ भाषाविज्ञान की एक शाखा है, जिसके अध्ययन की केंद्रीय इकाई ‘रूपिम’ है। अंग्रेजी में रूपविज्ञान के लिए ‘मार्फोलॉजी’ (Morphology) शब्द का प्रयोग किया जाता है, जो ‘Morph’ और ‘logy’ दो शब्दों से मिलकर बना है। ‘मार्फ’ (Morph) के लिए हिंदी में ‘रूप’ शब्द का प्रयोग होता है और ‘लॉजी’ (logy) का अर्थ है- ‘विज्ञान’। विभिन्न भाषावेत्ताओं ने रूपविज्ञान को अनेक प्रकार से परिभाषित किया है। आगे कुछ प्रमुख भाषाविदों की परिभाषाएँ उद्धृत की जा रही हैं-
ब्लाक तथा ट्रेगर का मत है कि रूपविज्ञान शब्द-गठन का विवेचन करता है।
कैरोल के अनुसार, “रूपविज्ञान उस पद्धति अथवा प्रणाली का अध्ययन है जिसके अनुसार शब्द-निर्माण किया जाता है और निश्चय के साथ कहा जा सकता है कि रूपविज्ञान का संबंध रूपिमों की पहचान, शब्द-निर्माण में उनके क्रम, उनमें होने वाले परिवर्तन तथा विविध व्याकरणिक संरचनाओं में पाई जाने वाली व्यवस्था का अध्ययन है।”
(उद्धृत हिंदी-रूपविज्ञान, (1981) चमनलाल अग्रवाल)
इस प्रकार कहा जा सकता है कि रूपविज्ञान भाषाविज्ञान की वह शाखा है जिसमें रूपिमों के अर्थ, स्वरूप, अनुक्रम, उनकी प्रतीति और प्रकार्य आदि के आधार पर उनके भेदों का किसी भाषा विशेष की संरचना के संदर्भ में अध्ययन किया जाता है।
रूपविज्ञान के प्रकार-
(क) अध्ययन की दिशा के आधार पर-
रूपविज्ञान के अध्ययन की दिशा के आधार पर रूपविज्ञान के तीन प्रकार हैं-
- वर्णनात्मक रूपविज्ञान- इसमें किसी भाषा या बोली के किसी एक समय की शब्द
और/या पदरचना का अध्ययन होता है।
- ऐतिहासिक रूपविज्ञान- इसमें भाषा या बोली के विभिन्न कालों की शब्द और/या पदरचना का अध्ययन कर उसमें रूपविज्ञान का इतिहास या विकास प्रस्तुत किया जाता है।
- तुलनात्मक रूपविज्ञान- इसमें दो या अधिक भाषाओं की शब्द और/या पदरचना का तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है।
(ख) रूपिम योग की प्रक्रिया के आधार पर-
रूपिम योग की प्रक्रिया के आधार पर इसके दो भेद किए जाते हैं-
·
व्युत्पादक रूपविज्ञान (Derivational Morphology)- इसमें मुक्त रूपिम या शब्द में व्युत्पादक रूपिमों को जोड़कर नए शब्द बनाने की प्रक्रिया का अध्ययन किया जाता है।
·
रूपसाधक रूपविज्ञान (Inflectional Morphology)- इसमें शब्दों में रूपसाधक रूपिमों को जोड़कर पद बनाने की प्रक्रिया का अध्ययन किया जाता है।
4. अध्ययन की विषयवस्तु
4.1 भाषाई स्तर
जैसा कि ऊपर संकेत किया जा चुका है, भाषाविज्ञान में भाषा का अध्ययन निम्नलिखित स्तरों पर किया जाता है-
स्वन
– स्वनिम – रूपिम – शब्द – पद –पदबंध – वाक्य - प्रोक्ति
इनमें रूपविज्ञान के अध्ययन क्षेत्र का विस्तार रूपिम से लेकर शब्द/पद तक है। इसे निम्नांकित चित्र द्वारा देख सकते हैं-
रूपिम
शब्द/पद
इस चित्र में तीर का पहला निशान रूपिमों को मिलाकर शब्द और पद बनाए जाने को संकेतित करता है तथा दूसरा निशान शब्द या पद का विश्लेषण रूपिमों में किए जाने की ओर संकेतित करता है। अतः रूपविज्ञान में भाषा के रूपिम स्तर तथा शब्द/पद स्तर दोनों का अध्ययन किया जाता है।
4.2 रूप, रूपिम और उपरूप
रूपिम स्तर पर रूपविज्ञान में रूप, रूपिम और उपरूप तीनों का अध्ययन विश्लेषण किया जाता है। साथ ही इनमें परस्पर संबंध और अंतर को भी रेखांकित किया जाता है। इन तीनों की संकल्पना को संक्षेप में इस प्रकार देख सकते हैं-
रूप (Morph)
- रूप एक भौतिक इकाई है जो भाषिक कथनों में प्रयुक्त किया जाता है। किसी वाक्य में प्रयुक्त ध्वनियों का छोटा से छोटा अनुक्रम जिसका अर्थ होता है, रूप कहलाता है। संकल्पना की दृष्टि से रूप मूर्त इकाई होता है।
रूपिम
(Morpheme)- भाषा की लघुतम अर्थवान इकाई जिसे और अधिक सार्थक खंडों में विभक्त नहीं किया जा सकता है, रूपिम कहलाता है। दूसरे शब्दों में, रूपिम स्वनिमों का ऐसा सबसे छोटा अनुक्रम है जो कोशीय अथवा व्याकरणिक दृष्टि से सार्थक होता है। ब्लूमफील्ड के अनुसार, “रूपिम वह भाषाई रूप है जिसका भाषा विशेष के किसी अन्य रूप से किसी प्रकार का ध्वन्यात्मक और अर्थगत सादृश्य नहीं है”। रूपिम एक अमूर्त संकल्पना है। रूपिम को ‘{ }’ चिह्न के माध्यम से संकेतिक किया जाता है। कुछ भाषाओं में सभी रूपिम मुक्त होते हैं और अर्थ को स्थिर रखते हुए उनका पुनर्विभाजन नहीं हो सकता।
उपरूप (Allomorph)-
दो या दो से अधिक ऐसे रूप जिनमें कुछ ध्वन्यात्मक विभेद होने के बावजूद उनसे एक ही अर्थ निकलता हो, तथा वे परिपूरक वितरण में हों, उपरूप कहलाते हैं। ये रूप एक ही परिवेश व संदर्भ में नहीं आते, अपितु मिलकर वे एक रूपिम के सभी संभव संदर्भों को पूरा करते हैं।
इस प्रकार कह सकते हैं कि उपरूप वे रूप हैं जो एक दूसरे का स्थान नहीं लेते हैं। यदि एक दूसरे का स्थान ले भी लेते हैं तो अर्थ में कोई परिवर्तन नहीं होता है।
4.3 वितरण (Distribution)
वितरण एक पद्धति है जिसका प्रयोग रूपिमों और उपरूपों के निर्धारण में किया जाता है। जब दो या दो से अधिक ऐसे रूप प्राप्त होते हैं जो एक दूसरे से मिलते-जुलते हैं, तो वे दो स्वतंत्र रूपिम हैं या एक ही रूपिम के उपरूप इसका निर्धारण वितरण के माध्यम से किया जाता है।
वितरण के भेद- मूल रूप से वितरण के दो भेद किए जाते हैं-
1. व्यतिरेकी वितरण (Contrastive Distribution)
2. अव्यतिरेकी वितरण (Non-contrastive Distribution)
1. व्यतिरेकी वितरण (Contrastive Distribution)- जब दो रूप
समान शाब्दिक (या पदबंधीय) परिवेश या संदर्भ में आते हैं और इनका अर्थ अलग-अलग होता है तो वे परस्पर व्यतिरेकी वितरण में होते हैं। जैसे- हँस और हंस एक ही तरह के दिखने वाले दो शब्द हैं, किंतु दोनों का अर्थ अलग-अलग है। अतः दोनों परस्पर व्यतिरेकी वितरण में हैं।
2. अव्यतिरेकी वितरण (Non-contrastive Distribution)- यह दो रूपों के परस्पर व्यतिरेकी नहीं होने की अवस्था है। इसके दो उपभेद हैं-
(क) परिपूरक वितरण (Complementary Distribution)- जब दो या दो से अधिक रूपों में कुछ ध्वन्यात्मक विभेद होता है किंतु उनका कोशीय अर्थ या व्याकरणिक प्रकार्य समान होता है तो वे आपस में परिपूरक वितरण में होते हैं। ऐसे रूपिम आपस में उपरूप होते हैं। जैसे- ‘चिड़ियाँ’ और ‘रातें’ शब्दों में बहुवचन क्रमशः ‘ँ’ और ‘एँ’ द्वारा व्यक्त होता है। उक्त ध्वन्यायत्मक विभेद के बावजूद दोनों का
प्रकार्य अर्थ एक ही है और इनमें से कोई भी एक दूसरे के परिवेश में नहीं आता। अतः दोनों आपस में परिपूरक वितरण में है।
(ख) स्वतंत्र वितरण (Free Distribution)- यह परिपूरक वितरण का ही एक प्रकार है। जब दो या दो से अधिक रूप इस प्रकार से परिपूरक वितरण में होते हैं कि दोनों का एक दूसरे के स्थान पर कहीं भी प्रयोग किया जा सकता है तो वे आपस में मुक्त वितरण में होते हैं। जैसे- ‘खराब’ और ‘ख़राब’ दोनों का अर्थ एक ही है। साथ ही किसी भी वाक्यात्मक परिवेश में दोनों का एक दूसरे की जगह प्रयोग किया जा सकता है। अतः दोनों आपस में स्वतंत्र वितरण में है।
4.4 रूपिमिक प्रक्रियाएँ
· व्युत्पादन (Derivation)- किसी मूल शब्द के साथ अन्य रूपिमों को जोड़कर नए कोशीय शब्द बनाने की प्रक्रिया को ‘व्युत्पादन’ कहते हैं। यह एक खुली प्रक्रिया है जिसमें किसी व्युत्पादित शब्द में और प्रत्यय जोड़कर नए-नए शब्द निर्मित किए जाते हैं। मुख्य रूप से इसके अंतर्गत प्रत्यय योग (पूर्व प्रत्यय/ मध्य प्रत्यय/ अंत प्रत्यय जोड़ना), समासीकरण (और संधीकरण) पुनरुक्त शब्द निर्माण आदि आते हैं। इसके कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं-
अ + ज्ञान = अज्ञान (उपसर्ग/पूर्व प्रत्यय योग)
लूट (क्रिया) + एरा = लुटेरा (संज्ञा)
दान (संज्ञा) + ई =
दानी (विशेषण)
सुंदर (विशेषण) + ई
= सुंदरी (संज्ञा)
लड़का (सज्ञा) + पन = लड़कपन (भाववाचक संज्ञा)
· रूपसाधन (Inflection)- शब्दों में प्रत्ययों को जोड़कर ‘पद’ व्याकरणिक शब्द बनाने की प्रक्रिया रूपसाधन कहलाती है। हिंदी में रूपसाधन को पदरचना प्रक्रिया भी कहा गया है। प्रत्ययों को जोड़कर शब्द के रूपपरिवर्तन की यह प्रक्रिया व्याकरणिक कोटियों के आधार पर होती है। यह एक बंद प्रक्रिया है, अर्थात किसी शब्द के साथ रूपसाधक प्रत्यय लग जाने के बाद उसमें और कोई प्रत्यय नहीं जोड़ा जा सकता है। जैसे- लड़की + याँ = लड़कियाँ, भाषा + एँ = भाषाएँ आदि।
इन उदाहरणों में मूल शब्द के साथ रूपसाधक प्रत्ययों को जोड़कर एकवचन से बहुवचन बनाया गया है। रूपसाधन द्वारा पदों (व्याकरणिक शब्दों) का निर्माण किया जाता है इसलिए कुछ विद्वानों द्वारा इसे पदनिर्माण या पदसाधन भी कहा गया है।
उपर्युक्त दोनों प्रक्रियाओं को जिन प्रत्ययों द्वारा संपन्न किया जाता है, उन्हें व्युत्पादक और रूपसाधक प्रत्यय कहते हैं। इनमें निम्नलिखित अंतर हैं-
व्युत्पादक रूपिम
1. व्युत्पादक प्रत्यय लगने के बाद बना शब्द स्वतंत्र शब्द की भाँति भाषा में प्रयुक्त हो सकता हैं।
2. व्युत्पादक प्रत्ययों के लगने से बने शब्द नए शब्द होते हैं। प्रायः उनका शब्द-वर्ग बदल जाता है।
3. व्युत्पादक प्रत्यय लगकर बने शब्दों में पुनः व्युत्पादक प्रत्यय लगाकर नए शब्द बनाए जा सकते हैं।
4.भाषा में व्युत्पादक प्रत्ययों की संख्या अधिक पाई जाती है।
|
रूपसाधक प्रत्यय
1.
रूपसाधक प्रत्यय लगकर बना शब्द स्वतंत्र शब्द की भाँति प्रयुक्त नहीं हो सकता है।
2. रूपसाधक प्रत्यय लगाकर नया शब्द नहीं अपितु शब्द
के
विभिन्न व्याकरणिक रूप प्राप्त होते हैं।
3. रूपसाधक प्रत्यय लग जाने के बाद फिर उस शब्द में कोई व्युत्पादक प्रत्यय नहीं लग सकता है।
4.
रूपसाधक प्रत्यय प्रायः कम संख्या में होते है।
|
4.5
रूप विश्लेषण
किसी पद (व्याकरणिक शब्द) के निर्माण में लगे मुक्त और बद्ध रूपिमों और उनकी व्यवस्था को प्राप्त करना रूप विश्लेषण है। इस संदर्भ में सुप्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक सी. एफ. हॉकेट (C. F.
Hockett) के
‘Two
models of grammatical description’ (1954) में निम्नलिखित दो प्रतिदर्शों की चर्चा की गई है-
1. मद और विन्यास (Item
and Arrangement)
.
.
.
.
. (पूरा पढ़ने के लिए ऊपर बताए गए लिंक पर जाएँ)
No comments:
Post a Comment