संकेतविज्ञान की दृष्टि
से भाषा
भाषा ध्वनि प्रतीकों की व्यवस्था है। ये ध्वनि प्रतीक
भाषायी संकेत होते हैं। व्यापक रूप से देखा जाए तो संकेत कई प्रकार के होते हैं।
इनके दो उपवर्ग किए जा सकते हैं- मूल और प्रगत। विभिन्न प्राणियों द्वारा अपने
स्तर पर आधारभूत (जैविक) भावों के आदान-प्रदान के लिए मूल संकेतों का प्रयोग किया
जाता है। इसके लिए वे विभिन्न प्रकार की संकेत व्यवस्थाओं का प्रयोग करते हैं, जिनमें बहुत ही सीमित संकेत होते हैं तथा
उनसे व्यक्त होने वाले भावों की संख्या भी बहुत कम होती है।
इसी प्रकार मनुष्य द्वारा कुछ अन्य जीवन क्षेत्रों, जैसे- यातायात आदि में भी सीमित संकेतों के
माध्यम से विशेष प्रकार के कार्य किए जाते हैं, जिनसे छोटी
संकेत व्यवस्थाओं का निर्माण होता है। अन्य प्राणियों मनुष्य की ऐसी संकेत
व्यवस्थाएँ एक सीमित स्तर पर संप्रेषण जरूर करती हैं, लेकिन
ये भाषा नहीं हैं। इन्हें भाषा से अलग इस प्रकार देखा जा सकता है-
इस अंतर को वनस्पति जगत के
एक चित्र के माध्यम से अधिक सुगमतापूर्वक समझ सकते हैं-
संकेतविज्ञान की दृष्टि से मानव भाषा उपर्युक्त सभी अन्य
संकेत व्यवस्थाओं में सबसे अधिक विकसित है। इसके माध्यम से प्रगत स्तर का संप्रेषण
भी किया जाता है जो अन्य संकेत व्यवस्थाओं द्वारा संभव नहीं है।
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