शैलीविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में साहित्य (Literature with respect to Stylistics)
साहित्य और साहित्येतर का अंतर साहित्यशास्त्र बताता है। इसके साथ ही वह यह भी
बताता है कि वह कौन सा तत्व है जो साहित्य को साहित्य बनाता है। संस्कृत के आचार्य
भामह ने कहा है-
शब्दार्थौसहितौकाव्यं।
इस परिभाषा में आया हुआ ‘काव्य’ शब्द ‘आदिसाहित्य’ का वाचक है। इसके ‘सहितौ’ से साहित्य शब्द की उत्पत्ति हुई है। ‘सहितौ’ शब्द का अर्थ है- ‘सहितता’ (साथ-साथ चलना/बराबर का महत्व रखते हुए चलना)। जिसमें सहितता हो, उसे साहित्य कहते हैं। यह ‘सहितता’ शब्द और अर्थ की दृष्टि से होती है।
इस परिभाषा के आलोचकों का कहना है कि ‘शब्द’ और ‘अर्थ’ तो हमेशा साथ-साथ होते हैं। ये परस्पर एक-दूसरे
के साथ जुड़कर ही आते हैं। शब्द एक प्रकार के ‘पात्र’ (container) जैसा है जिसमें अर्थ
भरा हुआ रहता है। शब्द ‘अर्थ’ को उद्भूत या जागृत करता है। अतः भामह की परिभाषा में अतिव्यापकता का दोष
दिखता है, जो विचारणीय है। अतः आगे सक्षेप में इस पर विचार करते
हैं।
शब्द और अर्थ के संदर्भ में तीन बातें
उल्लेखनीय हैं-
(1) हमारे दैनिक व्यवहार जैसे- बोलचाल
या वार्ता आदि में ‘अर्थ’ महत्वपूर्ण होता है, शब्द नहीं। यदि किसी के घर में
आग लग जाए और फायर ब्रिगेड को फोन करे तो फायर ब्रिगेड वाले को आग लगने की सूचना देने
के लिए क्या कहा- आग, अग्नि, फायर आदि, इनका शुद्ध-शुद्ध उच्चारण और व्याकरणिक प्रयोग किया या नहीं,इन बातों पर ध्यान नहीं जाता, बल्कि केवल अर्थ का
संप्रेषण हो जाना चाहिए, इसी पर ध्यान रहता है। अतः जहां
अर्थ ही ‘साध्य’ है, वहां ‘काव्य’ नहीं है।
वह सामान्य व्यवहार, सामान्य वार्ता या वाक्य है। इसमें शब्द
गौण होता है।
(2) मंत्रों आदि में शब्द महत्वपूर्ण होते हैं, अर्थ नहीं। यदि मंत्रों का जाप करें तो शक्ति या सिद्धि
प्राप्त हो जाती है। यहां अर्थ को ध्यान नहीं दिया जाता। गलत उच्चारण दुष्प्रभाव
भी ला सकता है।
आधुनिक परिप्रेक्ष्य में शास्त्र या विज्ञान में भी शब्द महत्वपूर्ण होते हैं
अर्थ नहीं। इनमें प्रयुक्त शब्दों के अर्थ सुनिश्चित, सुपरिभाषित और एकार्थी होते हैं। यदि हम
ठीक पारिभाषिक शब्द का प्रयोग करें तो अर्थ आ ही जाएगा। अतः शास्त्र या विज्ञान
में अर्थ ‘शब्द’ का अनुसरण करता है, जिसके कारण इसे साहित्य नहीं कहा जा सकता।
नोट- सूचना में आत्मीयता (Subjectivity) की भावना होती है।
या विषय मानविकी का है। सूचना बहुत कम तटस्थ होती है। इसमें शब्द चयन को ही विशेष
महत्व दिया जाता है।
उपरोक्त दोनों स्थितियों को भामह की परिभाषा के अनुसार काव्य नहीं कह सकते।
(3) तीसरा क्षेत्र काव्य का है, जिसमें शब्द और अर्थ दोनों महत्वपूर्ण होते हैं और दोनों एक दूसरे को
पुष्ट करते हैं। अतः भाषा की समग्र क्षमता काव्य में उद्घाटित होती है। शब्द और
अर्थ सहित (सोद्देश्य/ किसी विशेष उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए चयनित) होते हैं।
इसी कारण काव्य का भावानुवाद (paraphrasing) नहीं होता। अर्थात उसे हम दूसरे शब्दों में नहीं कह सकते।
वार्ता में एक ही बात कई ढंगों से कही जा सकती है। विज्ञान या शास्त्र में
प्रत्येक संकल्पना के लिए एक सुनिश्चित पारिभाषिक शब्द होता है। ‘काव्य’ में पूरी की
पूरी अभिव्यक्ति परिभाषित होती है। उसमें थोड़ा सा भी परिवर्तन उस अभिव्यक्ति को
हानि पहुंचा सकता है। शब्द या वाक्य संरचना में परिवर्तन का अर्थ है- ‘काव्यार्थ में परिवर्तन’। जैसे मैथिलीशरण गुप्त की यह
कविता देखते हैं-
अबला जीवन हाय तुम्हारी
यही कहानी
आंचल में है दूध,
आंखों में है पानी।
इसमें यदि ‘अबला’ का ‘नारी’ या ‘पानी’ का ‘आंसू’ कर दिया जाए, तो भाषा की दृष्टि से अर्थ में कोई परिवर्तन नहीं होगा, किंतु साहित्य और शैली की दृष्टि से अर्थ वही नहीं रह जाएगा, जो मूल कविता में है। बल्कि इस रचना का पूरा स्वरूप और प्रभाव बिगड़
जाएगा-
नारी जीवन हाय तुम्हारी
यही कहानी
आंचल में है दूध, आंखों में है आँसू।
किसी साहित्यिक रचना में विराम, कोमा आदि भी महत्वपूर्ण होते हैं। अतः कृति
के कथ्य में गहरे उतरने के लिए पाठक को एक-एक शब्द के साथ जूझना पड़ता है।
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