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Monday, August 30, 2021

शैलीविज्ञान के अध्ययन का क्षेत्र

 शैलीविज्ञान के अध्ययन का क्षेत्र

 साहित्य का संबंध दो तत्वों के साथ है- भाषा और कला। साहित्य भाषा और कला के अनुबंधन का क्षेत्र है। न तो संपूर्ण भाषा साहित्य है और ना ही प्रत्येक कला साहित्य है। ये दोनों क्षेत्र जहाँ जुड़ते हैं वहाँ साहित्य होता है इसी कारण साहित्य को भाषिक कला कहा गया है । अतः भाषायी व्यवहार और कलाके संदर्भ में साहित्य की स्थितिकी चर्चा आगे की जा रही है। इसमें साहित्य को जो भी स्वरूप निकलकर आएगा, वही शैलीविज्ञान के अध्ययन का क्षेत्र होगा।

(1) भाषायी व्यवहार के क्षेत्र और साहित्य

भाषा का सबसे बड़ा क्षेत्र व्यवहार का क्षेत्र है। उसमें से कुछ हिस्सा ऐसा होता है, जिसे हम सुरक्षित रखते हैं और उसे बार-बार दुहराने की इच्छा रखते हैं। इस हिस्से को वाङ्मय कहा जाता है। यह दो प्रकार का होता है-

(क) उपयोगी वाङ्मय

 जिसका प्रयोग हम ज्ञान के लिए या व्यावहारिक प्रयोग के लिए करते हैं, वह उपयोगी वांग्मय कहलाता है। इसका संबंध ज्ञान और कौशल से है। ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में किया जाने वाला समस्त प्रकार का लेखन इसके अंतर्गत आता है। उदाहरण के लिए तकनीकी, मानविकी, भाषाविज्ञान, भौतिकी, रसायन विज्ञान आदि से जुड़ा कोई लेख या कोई पुस्तक उपयोगी वांङ्मय के अंतर्गत आएगा।

 (ख) ललित वाङ्मय

 जिस वाङ्मय का संबंध मनुष्य की भावनाओं के साथ होता है, वह ललित वाङ्मय कहलाता है। इसका उपयोग हम किसी लाभ के लिए नहीं करते, बल्कि केवल करने के लिए करते हैं। इसके अंतर्गत मनोरंजन, आमोद-प्रमोद आदि के लिए किया जाने वाला व्यवहार आता है। साहित्य इसी प्रकार का वाङ्मय है।

उपर्युक्त दोनों क्षेत्रों की दृष्टि से साहित्य को देखा जाए तो यह भाषा का वह अंश है, जिसे किसी समुदाय द्वारा बार-बार दोहराया जाता है, किंतु साहित्य को ज्ञान के लिए बार-बार नहीं दोहराया जाता, बल्कि इसका कारण उस साहित्य में ही होता है। उदाहरण के लिए यदि हम कोई कहानी या उपन्यास बार-बार पढ़ते हैं या किसी फिल्म को बार-बार देखते हैं तो हमारा उद्देश्य उसकी कहानी को याद करना या रखना नहीं होता, बल्कि हम उसका आनंद ले रहे होते हैं। इसकी जगह किसी परीक्षा की तैयारी के लिए उसके नोट्स को बार बार पढ़ना उद्देश्य के लिए उपयोगिता के लिए या व्यवहार के लिए होता है।

(2) कला के रूप और साहित्य

 कला की दृष्टि से भी देखा जाए तो कलाएँ भी दो प्रकार की होती हैं-

(क) उपयोगी कलाएँ

 इसके अंतर्गत वे सभी कलाएँ आती हैं, जिनका संबंध जीविकोपार्जन से है। उदाहरण के लिए मेज-कुर्सी बनाना, मूर्ति बनाना, मिट्टी के बर्तन बनाना आदि भी कला है, किंतु उपयोगी है। इसका प्रयोग हम लाभ के लिए भी करते हैं। अर्थात उस के माध्यम से धन आदि का अर्जन भी किया जा सकता है या किया जाता है।

(ख) ललित कलाएँ

 वे सभी कलाएँ जिनका व्यवहार केवल उनके सौंदर्य या आकर्षण के कारण होता है, ललित कलाएँ कहलाती हैं। उदाहरण के लिए चित्र, गीत-संगीत, मूर्तिकला, वास्तुकला आदि जो व्यवसाय के रूप में करने के बजाय, केवल कलात्मक प्रस्तुति या मनोभाव की अभिव्यक्ति के लिए किया जाता है, ललित कलाएँ हैं। वर्तमान में इनका भी व्यवसायीकरण करना अलग बात है। साहित्य भी इसी प्रकार की एक कला है।

उपर्युक्त सभी ललित कलाओं को देखा जाए, तो उनमें केवल साहित्य ही भाषिक कला है, जबकि बाकी सभी इतर कलाएँ हैं। साहित्य को परिभाषित करते हुए एजरा पाउंड (Ezra Pound) ने कहा है-

“Literature is simply language charged with meaning to the utmost possible degree.”

(साहित्य का अर्थ की यथासंभव या यथासाध्य कोटि तक आवेशित केवल भाषा है।)

 कला के अध्ययन का शास्त्र कलाशास्त्र (Aesthetics) है। भाषा का अध्ययन भाषाविज्ञान के अंतर्गत किया जाता है। शैली भाषा और कला दोनों से संबंधित है। अतः शैलीविज्ञान दोनों के बीच में आता है।

 भाषा और कला के बीच साहित्य की स्थिति को चित्र रूप में इस प्रकार से दिखा सकते हैं। मैं यहाँ पर कक्षा अध्ययन के दौरान 2009 में बनाए गए अपने नोट्स के चित्र को ही दे रहा हूँ, जो रवींद्रनाथ श्रीवास्तव की पुस्तक के आधार पर प्रोफेसर उमाशंकर उपाध्याय द्वारा अध्यापन के समय हम लोगों से बनवाया गया था-

जार्जस्टेनर ने साहित्य को नकारात्मक रूप से परिभाषित किया है। इसके संदर्भ में उन्होंने तीन बातें कही हैं-

(1) साहित्य का अध्ययन सूचना के लिए नहीं किया जाता।

(2) साहित्य का संदेश यथार्थ (सत्य) और मिथ्या (असत्य) के रूप में सत्यापनीय (verifiable) नहीं होता।

(3) साहित्य का पदान्नवय (paraphrase) नहीं किया जा सकता।

ये विशेषताएँ साहित्य के संदर्भ में कुछ प्रश्न खड़े करती हैं, जिनमें से मूलभूत प्रश्न इस प्रकार है-

हम साहित्य या साहित्यिकता को किस प्रकार से परिभाषित करें? साहित्यिकता को परिभाषित करने का अर्थ है- इस प्रश्न का उत्तर देना कि साहित्य क्या है?’। इसे समझने-समझाने के तीन पक्ष हैं-

(क) लेखक और कृति का संबंध

पहला पक्ष यह देखना है कि लेखक और कृति के बीच किस प्रकार का संबंध है?

 जर्मन दार्शनिक नित्से ने कहा कि गॉड इज डेड। इसी तर्क पर फ्रेंच दार्शनिक रोला बार्थ ने कहा कि राइटर ईद डेड

 हम कृति को लेखक की रचना मानते हैं, किंतु रोला बार्थ ने कहा कि कृति लेखक के मस्तिष्क से गुजरी जरूर है, लेकिन लेखक कृति का कर्ता नहीं है। रचना करने के बाद रचनाकार एक बोझ से मुक्त हो जाता है और पढ़ता है, तो झूम उठता है कि यह मैंने क्या लिखा है?’। अतः लेखकीयता (Authorship) जैसी कोई वस्तु नहीं होती। रचना की अपनी सत्ता होती है, जैसे संतान की अपनी सत्ता होती है।

(नोट- संतान की सत्ता वाले उदाहरण से ठीक से समझना अधिक समीचीन होगा। संतान और  माता-पिता के संदर्भ में पारंपरिक और वस्तुनिष्ठ दृष्टियों से यह विवाद का विषय रहा है कि बच्चे माता-पिता से ही उत्पन्न होते हैं या माता-पिता बच्चों के उत्पन्न होने के माध्यम मात्र हैं। परंपरावादी दृष्टि इस संदर्भ में आदर्शवादी व्याख्या करती है और उसके अनुसार माता पिता ही बच्चों के पैदा होने का कारण या स्रोत हैं। अतः संतान की माता-पिता के बिना कोई सत्ता नहीं है। इसके विपरीत वस्तुनिष्ठ दृष्टि कहती है कि माता-पिता संतान के पैदा होने के स्रोत नहीं हैं, बल्कि केवल माध्यम हैं। उन्होंने हमें पैदा नहीं किया है, बल्कि केवल हमारे पैदा होने का साधन या माध्यम बने हैं। कुआं जल को पैदा नहीं करता है, बल्कि जल को उत्पन्न होने का या प्राप्त होने का कारण बनता है। यही स्थिति माता-पिता की भी होती है। इसे विपरीत प्रक्रिया (reverse process) द्वारा समझाया जा सकता है। अर्थात यदि कोई बच्चा कहे कि हे माता-पिता यदि आपने हमें पैदा किया है, तो हम अभी मर जाते हैं, आप फिर से पैदा कर लीजिए, जो संभव नहीं है। इसीलिए वस्तुनिष्ठ दृष्टि कहती है कि संतान की अपनी सत्ता होती है, माता-पिता माध्यम मात्र हैं, स्रोत नहीं ।)

(ख) पाठक और कृति का संबंध

दूसरा पक्ष यह देखना है कि पाठक और कृति के बीच किस प्रकार का संबंध है?

 लिख देने के पश्चात रचना स्वतंत्र हो जाती है। उसके मूल्य और महत्व के बारे में पाठक क्या अनुमान लगाएगा, यह उसके ऊपर निर्भर है। Reader Reception Theory नामक समीक्षा प्रणाली में एक पुस्तक में एक प्रश्न उठाया गया है- ‘Is there a text in the class?’ जैसे यदि एक ही पाठ को 10 लोग पढ़ रहे हैं, तो क्या सबको रचना एक ही प्रकार से समझ में आएगी? इसका उत्तर है- नहीं। प्रत्येक पाठक उसकी व्याख्या अपने-अपने ढंग से करता है। जब हम किसी कृति के बारे में कोई बात कहते हैं, तो हम अपनी व्याख्या या दृष्टिकोण को उस पर टांग रहे होते हैं। जैसा कि ओशो ने कहा था- मैं गीता की व्याख्या नहीं कर रहा हूँ, बल्कि मैं तो अपने विचार मात्र व्यक्त कर रहा हूँ। यह तो एक खूँटी मात्र है, जिस पर मैं अपने विचार टाँग रहा हूँ। अतः पाठक की दृष्टि से विचार करने पर प्रश्न उठता है कि यदि एक पाठ की 10 समीक्षाएँ हों, तो किसे सही माना जाए। अतः पाठक केंद्रित प्रणाली भी ठीक नहीं है।

(ग) बाह्य संसार (संदर्भ) और कृति का संबंध

तीसरा पक्ष यह देखना है कि बाह्य संसार (संदर्भ) और कृति के बीच किस प्रकार का संबंध है?

 बाहर के यथार्थ कई प्रकार के होते हैं, जैसे- सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि। इन्हें भी रचना की समीक्षा का उचित आधार नहीं बनाया जा सकता। यह बता पाना कठिन है कि किस प्रकार के परिवेश ने किस रूप में किस तरह से लेखक को प्रभावित किया कि लेखक से किसी कृति विशेष की रचना की।

(घ) भाषा और कृति का संबंध

चौथा पक्ष यह देखना है कि भाषा और कृति के बीच किस प्रकार का संबंध है?

 इसमें हम यह देखते हैं कि पाठ में प्रयुक्त भाषा का साहित्य के साथ क्या संबंध है? और उस भाषा की विशिष्टता को किस प्रकार से समझा जा सकता है?

 संप्रेषण के संदर्भ में भाषा की सबसे बड़ी इकाई पाठ या प्रोक्ति है। प्रत्येक कृति एक पाठ होती है। पाठ के स्तर पर आकर ही यह अर्थ से पूर्ण आवेशित (fully charged with meaning) हो पाती है। इसे समझने की दो दृष्टियाँ संभव हैं-

(1) व्यष्टिगत दृष्टि (Micro Approach) :-  इस दृष्टि से किए जाने वाले विवेचन में पाठ के सभी भाषावैज्ञानिक स्तरों पर एक-एक इकाइयों की विवेचना की जाती है। ये स्तर- स्वनिम, रूपिम, शब्द/ पद, पदबंद, उपवाक्य, वाक्य, प्रोक्ति और अर्थ होते हैं। अतः इसके केंद्र (focus) में भाषायी सामग्री का स्वरूप होता है।

(2) समष्टिगत दृष्टि (Macro Approach) :-  इसके अनुसार पाठ एक व्यक्तिगत सत्ता’ (individual entity) है और यह केवल वाक्यों या पदों आदि का समुच्चय नहीं है। इसके आगे भी है और जो आगे है, वही साहित्यिकता है। उदाहरण के लिए समग्रता के अनुसार ‘≡’ (ट्रिपल बार) का अर्थ भिन्न-भिन्न हो जाता है। इसे हम उसी नोट्स के एक चित्र से समझते हैं-

 समग्रता में हर साहित्यिक रचना एक प्रतीक बन जाती है। भाषा प्रतीकों की एक व्यवस्था है, किंतु सारे प्रतीक मिलकर एक उच्च स्तर का प्रतीक बनाते हैं, जिसे हम समझने के लिए द्वितीय स्तर का प्रतीक (second order symbol) कह सकते हैं। इस प्रकार रचना एक समग्र प्रतीक है। इसी कारण कुछ विद्वान शैलीविज्ञान को प्रतीकविज्ञान (Semiotics) का अंग मानते हैं। जब साहित्य एक प्रतीक है, तो उसके शब्द, वाक्य आदि का कोई मूल्य नहीं होता। वह संपूर्ण रूप से किसी और भाव का प्रतिनिधित्व करता है।

 सभी साहित्यिक रचनाएँ अपने आप में प्रतीक हैं। प्रतीक समय और स्थान के संदर्भ में विकासमान होते हैं।

(नोट : प्रतीक (Sign) -  प्रतीक स्वयं में कुछ नहीं होता, वह किसी के लिए किसी का प्रतिनिधित्व करता है। प्रतीकों के निर्माण/व्यवहार की प्रक्रिया को आरेख द्वारा इस प्रकार से समझा सकते हैं-

 प्रयोक्ता                संकेत                प्रयोग

 प्रयोग                  (Sign)             ग्रहण

(text)

 प्रतीक प्रयोक्ताओं (users) के बीच ही अपने महत्व (significance) को प्राप्त करता है।)

 साहित्यिक भाषा में सौंदर्य होता है। सौंदर्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह उपयोगी नहीं होता, उसका कोई प्रयोजन नहीं होता। उसमें केवल रस या आनंद मिलता है। यह भी जीवन की एक मूलभूत आवश्यकता है।

Wednesday, August 25, 2021

MGAHV : PHD प्रवेश 2021


 

साहित्य और समाज

 साहित्य और समाज

भाषा संप्रेषण का एक माध्यम है, जिसमें वक्ता अपने विचार या संदेश श्रोता तक वाचिक या लिखित रूप में पहुँचाता है। इसे एक चित्र के माध्यम से इस प्रकार से समझ सकते हैं-

   


यह भाषा व्यवहार की सामान्य स्थिति है। हम अपने दैनंदिन व्यवहार, पठन-पाठन, ज्ञान- विज्ञान खेल-कूद और मनोरंजन गीत-संगीत आदि सभी क्षेत्रों में एक-दूसरे के साथ इसी प्रकार से अपने विचारों, भावनाओं, सूचनाओं और संदेशों आदि का संप्रेषण करते हैं। इनमें भाषा का सामान्य रूप से प्रयोग किया जाता है। संदेश संप्रेषण की एक विशिष्ट विधि साहित्य है, जिसमें भाषा का प्रयोग उसी तरह सामान्य रूप में नहीं होता, जिस प्रकार हमारे दैनिक संप्रेषण या सामान्य व्यवहार में होता है, बल्कि वह कलात्मक होता है। साहित्य अन्य भाषिक व्यवहारों से अलग है, क्योंकि दूसरे भाषिक व्यवहारों में कलात्मकता नहीं होती, जबकि साहित्य में कलात्मकता होती है। यहाँ यह भी ध्यान देने वाली बात है कि साहित्य में पाई जाने वाली कलात्मकता गीत-संगीत या नृत्य की तरह दूसरे तत्वों से नहीं उत्पन्न होती है, बल्कि भाषाई गठन (linguistic construction) से ही उत्पन्न होती है। इसलिए शैलीविज्ञान उन सभी तत्वों और उनसे संबंधित चीजों का अध्ययन करता है, जिनके माध्यम से साहित्य में कलात्मकता आने की संभावना होती है। उनमें से एक प्रमुख तत्व समाज है।

 प्रत्येक साहित्यिक कृति समाज में जन्म लेती है। कोई भी लेखक समाज का ही अंग होता है। साहित्यिक सर्जना करते समय उसके परिवेश में उपस्थित सामाजिक स्थितियाँ किसी-न-किसी रूप में उसकी स्थिति पर प्रभाव डालती हैं। अतः बिना समाज को जाने साहित्य को नहीं जाना जा सकता। समाज और साहित्य के संबंध को समझने के दो आयाम हैं-

1.     समाज में साहित्य का अस्तित्व

2.     साहित्य में समाज की सत्ता का बोध

इन्हें संक्षेप में इस प्रकार से देख सकते हैं-

 (1) समाज में साहित्य का अस्तित्व

जैसा की अभी ऊपर उल्लेख किया गया कि प्रत्येक लेखक समाज का ही अंग होता है, अपनी किसी भी कृत्य की रचना करते समय लेखक को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सामाजिक परिस्थितियाँ प्रभावित करती हैं। इसलिए कृति के विश्लेषण का एक पक्ष यह जानना भी होता है कि उस कृति की तात्कालिक समाज के संदर्भ में क्या स्थिति है। समाज में साहित्य की सत्ता का अध्ययन करने वाले व्यक्ति को इस बात का अध्ययन करना होता है कि किन सामाजिक परिस्थितियों में रचनाकार ने अपनी रचना लिखी है? जब हम इस प्रकार से समाज में साहित्य को देखते हैं, तो हम साहित्य के बाहर खड़े होकर साहित्य का निरीक्षण कर रहे होते हैं।

(2) साहित्य में समाज की सत्ता का बोध

 शैलीविज्ञान के अनुसार कृति को समझने और उसकी व्याख्या के लिए कृति में निहित समाज को समझना महत्वपूर्ण है, क्योंकि कृति को पढ़ने पर हमारा सामना कृति में निहित समाज से होता है। प्रत्येक कृति में कुछ पात्र होते हैं, कुछ घटनाएँ होती हैं और उनके माध्यम से ही संदेश सृजित होता है। उन सभी के माध्यम से कृति के अंदर का समाज हम देख सकते हैं। उदाहरण के लिए रामचरितमानस या महाभारत को ही देखा जाए, तो इनमें से प्रत्येक कृति के अंतर्गत एक स्वतंत्र समाज निहित है, जिनकी व्याख्या हजारों प्रकार से निरंतर की जाती रही है। कोई भी कृति केवल अपने बाह्य परिवेश का अनुकरण नहीं होती, क्योंकि एक ही काल में एक ही समाज में रहते हुए दो रचनाकारों की रचनाएँ समान नहीं होतीं या एक ही रचनाकार की दो भिन्न-भिन्न संदेशों पर लिखी गई रचनाएँ भी समान नहीं होतीं।

संसार के सापेक्ष कहा जाता है कि ईश्वर या प्रकृति ने बाह्य संसार की रचना की है। इसी संसार के अंदर एक साहित्यिक लेखक या कवि अपने काव्य संसार की रचना करता है। प्रजापति (ब्रह्मा) का उदाहरण देते हुए हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि कवि अपने काव्य संसार की रचना करता है, जिसका प्रजापति (ब्रह्मा) वह स्वयं होता है-

“पारे काव्य संसारे कविरेकः प्रजापति।”

इस प्रकार स्पष्ट है कि किसी भी रचना या कृति में निहित समाज बाह्य संसार के समाज से स्वतंत्र होता है। किंतु वह पूर्णतः स्वतंत्र नहीं होता, बल्कि कहीं-न-कहीं रचनाकार के समाज से बँधा या संबद्ध होता है। इसके बावजूद उसमें कई ऐसे तत्व होते हैं, जो इन सब का अतिक्रमण करते हैं। अर्थात स्थान और समय में बंधे नहीं होते और वे मानव मात्र के लिए प्रासंगिक होते हैं। हर बड़ा रचनाकार देश और काल की सीमा का अतिक्रमण करता है।

शैलीविज्ञान यह बताने का प्रयास करता है कि किसी रचना में निहित कलात्मकता का कारण क्या है? अर्थात यह कार्य-कारण संबंध या वस्तुनिष्ठता (objectivity) स्थापित करता है। अच्छी-बुरी, प्रभावी या अप्रभावी आदि सभी प्रकार की रचनाओं की सामग्री तो भाषा ही होती है तो फिर विविध प्रभाव कैसे उत्पन्न होते हैं?

शैलीमापक्रमी (Stylometry)

 शैलीमापक्रमी (Stylometry)

साहित्य में भाषा और शैली के अध्ययन के दो पक्ष हैं-

 (1) शैलीवैज्ञानिक अध्ययन

 (2) शैलीमापक्रमी अध्ययन

 इनमें से शैलीवैज्ञानिक अध्ययन गहन प्रकार का अध्ययन है, जो यह विश्लेषित करता है कि किसी साहित्यिक रचना में वे कौन से तत्व हैं, जो उसे सामान्य भाषा व्यवहार से अलग साहित्य बना देते हैं। उन सभी तत्वों की वह शैली के रूप में खोज करता है।

 शैलीमापक्रमी अध्ययन उस प्रकार का गहन अध्ययन नहीं है, बल्कि यह एक प्रकार का सांख्यिकीय अध्ययन है। इसमें किसी रचना में कितने तरह के शैलीवैज्ञानिक प्रयोग हुए हैं और प्रत्येक प्रकार का प्रयोग कितनी बार हुआ है? इन सबको देखा जाता है। उदाहरण के लिए हम शैलीविज्ञान के अंतर्गत अग्रप्रस्तुति और शैली चिन्हक की बात करते हैं। अग्र प्रस्तुति के चार प्रतिमान हैं-

विचलन, समानांतरता, विपथन और विरलता

किसी कृति में लेखक द्वारा कहाँ-कहाँ, किस प्रकार से और क्यों? इन प्रतिमानों का प्रयोग किया गया है? इसका अध्ययन शैलीविज्ञान करता है, किंतु कहाँ-कहाँ और कितनी बार प्रयोग किया गया है? यदि यह देखना हो तो वह काम शैलीमापक्रमी अध्ययन के अंतर्गत आता है।

 संदिग्ध रचनाओं के असली लेखक को ज्ञात करने के लिए शैलीमापक्रमी अध्ययन अत्यंत उपयोगी होता है। इस विधि में उन सभी लेखकों की प्रामाणिक रचनाओं का अध्ययन करते हुए उनकी विशेषताओं को ज्ञात किया जाता है, जिनकी वह संदिग्ध रचना हो सकती है। फिर संदिग्ध रचना की विशेषताओं का अध्ययन किया जाता है। जिस लेखक की रचनाओं की विशेषताएँ  उस कृति में सबसे अधिक समान रूप से पाई जाती हैं, उस लेखक की वह कृति मान ली जाती है।

 इसका कारण यह है कि वाक्य रचना व शब्द चयन आदि के लिए हर रचनाकार की शैली और दृष्टि अलग-अलग होती है। इसी आधार पर यह निर्णय लिया जाता है।

Monday, August 23, 2021

साहित्यिक समीक्षा की पद्धतियाँ

 साहित्यिक समीक्षा की पद्धतियाँ

 साहित्य एक संश्लिष्ट प्रक्रिया है। इसे समझने के कई मार्ग होते हैं। अर्थात किसी  साहित्यिक कृति (काव्य- पद्य या गद्य) को समझने-समझाने या उसकी व्याख्या के कई पक्ष होते हैं। इन्हें हम इस प्रकार से समझ सकते हैं-

(क) अनुकृतिमूलक समीक्षा

कुछ विद्वानों के अनुसार साहित्य एक सामाजिक उत्पाद है। कवि समाज का अंग होता है अतः कविता की व्याख्या उस सामाजिक संदर्भ में ही संभव है। इन समीक्षकों के अनुसार साहित्य समाज का दर्पण है । इस कारण इस सिद्धांत को साहित्य का दर्पणवादी सिद्धांत भी कहा गया है। इसमें मूल वस्तु समाज को माना जाता है और साहित्य को उसकी अनुकृति या बिंबात्मक प्रस्तुति माना जाता है। इसलिए इस समीक्षा पद्धति में मूल्यांकन सामाजिक स्थिति और उसके अनुरूप साहित्य की कृति में प्रस्तुति को ध्यान में रखकर किया जाता है।

(ख) निर्णयमूलक / निर्णयात्मक समीक्षा

यह समीक्षा के लिए पाठक केंद्रित दृष्टिकोण है। इसमें पाठक के अपने संस्कार, भावजगत, पृष्ठभूमि आदि भी सर्जनात्मक कृति की समीक्षा के लिए आधार बनते हैं। इसमें मूलतः हम यह देखते हैं कि पाठक पर कृति का क्या प्रभाव पड़ता है। किसी भी कृत्य के संदर्भ में पाठक की प्रतिक्रिया भिन्न-भिन्न होती है। अतः पाठक केंद्रित आलोचना भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है। इसी कारण इस आलोचना पद्धति को प्रभाववादी आलोचना या रसवादी आलोचना भी कहा गया है।

 भारतीय काव्यशास्त्रों में कहा गया है कि पाठक को सहृदय होना चाहिए। अधिकांश विद्वान यह मानते हैं कि हर कविता अधूरी होती है, वह पाठक पर जाकर ही पूरी होती है। इसलिए साहित्यिक सर्जना के क्षेत्र में पाठक को एक प्रकार से सहसंयोजक माना गया है।

 (ग) अभिव्यंजनामूलक समीक्षा

 इस साहित्यिक आलोचना की इस पद्धति के अनुसार साहित्य लेखक के जीवन के विभिन्न अनुभव पर ही आधारित होता है, या उसी की अभिव्यक्ति होता है। अतः इस पद्धति में इस बात को समीक्षा का आधार बनाया जाता है कि लेखक अपने अनुभव को अपनी कृति में कितने प्रामाणिक रूप में अभिव्यक्त कर पाया है। दूसरे शब्दों में इस समीक्षा पद्धति में कवि और उसकी सर्जनात्मक प्रतिभा को काव्यालोचन या साहित्यिक समीक्षा का आधार बनाया जाता है। अतः यह पद्धति मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण पर केंद्रित है। इसमें कवि की मानसिक स्थिति का अवलोकन करते हैं और उसी के आधार पर समीक्षा करते हैं।

(घ) सांस्कृतिक आलोचना या समीक्षा

 कुछ लोग और अधिक व्यापक रूप में साहित्य को जाति, परंपरा और सांस्कृतिक मूल्यों के साथ भी जोड़ते हैं तथा उच्च स्तर पर जाकर साहित्यिक आलोचना की बात की जाती है। अतः यह अभिव्यंजनामूलक का सांस्कृतिक पक्ष है या सांस्कृतिक विस्तार है।

 उपर्युक्त चारों पद्धतियों को कृति के सापेक्ष एक चित्र के माध्यम से इस प्रकार से समझ सकते हैं-

 


 विश्लेषण:  साहित्यिक कृति की उपयुक्त चारों प्रकार की समीक्षा या आलोचना प्रणालियों को ध्यान से देखा जाए तो इनमें कहीं भी कृति केंद्र में दिखाई नहीं पड़ रही है, जबकि एक समीक्षाक या विश्लेषक का उद्देश्य कृति की समीक्षा करना होता है। अतः उसकी प्रणाली के केंद्र में भी कृति ही होनी चाहिए। इसलिए हम आगे पांचवी समीक्षा पद्धति को देखेंगे।

(ङ) वस्तुमूलक समीक्षा

 इस समीक्षा प्रणाली में समीक्षा या आलोचना के केंद्र में साहित्यिक कृति ही होती है, जो उस समीक्षा की साध्य वस्तु होती है। अतः साहित्यिक समीक्षा में यदि हम कृति को केंद्र में रखकर की जाने वाली समीक्षा पद्धति की बात करें, तो वह मूलतः वस्तुमूलक समीक्षा ही है।

 इस प्रकार की समीक्षा का कार्य शैलीविज्ञान द्वारा किया जाता है। शैलीविज्ञान द्वारा की जाने वाली समीक्षा के केंद्र में न रचनाकार होता है, न पाठक होता है, न समाज होता है और न ही कोई अन्य वस्तु होती है, बल्कि वह कृति होती है जिसकी समीक्षा करनी रहती है। शैलीवैज्ञानिकों के अनुसार कृति अपने आदि से लेकर अंत तक (आद्यंत) भाषा है। चाहे वह दोहा हो, शायरी हो या महाकाव्य हो। अर्थात कृति में प्राप्त वस्तु भाषाही है।

भाषा और साहित्य के संबंध में यह ध्यान रखने वाली बात है कि भाषा का हर रूप साहित्य नहीं होता।  शैलीवैज्ञानिक यह खोजने का प्रयास करते हैं कि वे कौन से तत्व हैं, जो भाषा को साहित्य बना देते हैं। उन्हीं तत्वों को शैली नाम दिया जाता है। डॉ. रवींद्रनाथ श्रीवास्तव ने शैलीविज्ञान को परिभाषित करते हुए कहा है-

“शैलीविज्ञान साहित्य को समझने-समझाने की दृष्टि है, जो शैली के साक्ष्य पर एक ओर साहित्यिक कृति की संरचना और गठन पर प्रकाश डालती है, दूसरी ओर कृति का विश्लेषण करते हुए उसमें निहित साहित्यिकता का उद्घाटन करती है।”

 इस प्रकार स्पष्ट है कि शैलीविज्ञान कृति की आलोचना है।

 वस्तुमूलक समीक्षा की दृष्टि से शैलीविज्ञान की स्थिति और उसकी विशिष्टता को एक आरेख के माध्यम से इस प्रकार से समझ सकते हैं-



भाषिक संरचना साहित्यिकता को जन्म देती है। भाषिक संरचना को कलात्मक सौंदर्य साहित्य बनाती है।  अतः साहित्य को सूत्र रूप में इस प्रकार से प्रस्तुत कर सकते हैं-

भाषिक संरचना + कलात्मक सौंदर्य = साहित्य

कलात्मक सौंदर्य के कारण साहित्य कला भी है। प्लेटो ने कला के संबंध में कहा है-

  कला अनुकरण है। (Art is imitation.)

प्रकृति में उपलब्ध सौंदर्य को देखकर मनुष्य उसका अनुकरण करता है और उस अनुकरण के माध्यम से जब कुछ बना देता है, तो वह चीज कला बन जाती है, जैसे- चित्र, मूर्ति आदि। इस संबंध में भी प्लेटो का मत देख सकते हैं-

‘art imitates the objects and events of ordinary life.’

 मानव निर्मित प्रत्येक वस्तु एक कला है। कला में एक विशेष प्रकार की व्यवस्था या लयबद्धता होती है। वह सामान्य स्थिति से हटकर सौंदर्ययुक्त प्रस्तुति होती है। साहित्य भी भाषा के सामान्य प्रयोग से हटकर सौंदर्ययुक्त प्रयोग होता है। अतः भाषाविज्ञान के लिए साहित्य एक कला शाब्दिक कला है  साहित्यिक रचनाओं में भाषा प्रयोग की स्थिति को समझाते हुए कहा गया है कि गद्य में भाषा चलती है, कविता में वह नृत्य करती है

 साहित्य समीक्षा की अन्य प्रणालियों से उनके और साहित्य के बीच संबंधों के संदर्भ में ज्ञान होता है, जैसे-

समाज  संदर्भित अध्ययन                 समाज और साहित्य

संस्कृति संदर्भित अध्ययन                संस्कृति और साहित्य

पाठक संदर्भित अध्ययन                  पाठक और साहित्य

लेखक संदर्भित अध्ययन                  लेखक और साहित्य

कृति संदर्भित अध्ययन                    कृति और साहित्य (शैलीविज्ञान)

 

Sunday, August 22, 2021

शैलीविज्ञान और काव्यभाषा

शैलीविज्ञान और काव्यभाषा

प्रयोग के स्वरूप के आधार पर भाषायी व्यवहार के क्षेत्रों को दो वर्गों में बाँट सकते हैं-

·           सामान्य भाषायी व्यवहार

·           सर्जनात्मक भाषायी व्यवहार

इनमें से सामान्य भाषायी व्यवहार हमारी दैनिक दिनचर्या से संबंधित है, जबकि सर्जनात्मक भाषायी व्यवहार सर्जना (creativity) से। हम भाषा के माध्यम से अपने दैनिक क्रियाकलापों को संपन्न करते हैं, सूचनाओं का आदान-प्रदान भी करते हैं। उद्देश्यपूर्ण और विशिष्ट सूचनाओं का विशाल संकलन ज्ञान होता है, जिसे विविध शाखाओं में बाँटकर हम अध्ययन-अध्यापन करते हैं। प्रविधि के आधार पर उनके दो वर्ग हैं- विज्ञान और मानविकी। ये भी व्यापक रूप में हमारे सामान्य भाषायी व्यवहार का अंग हैं।

इनके अलावा भाषायी व्यवहार का एक दूसरा पक्ष है- सर्जना का पक्ष। अर्थात भाषा का ही प्रयोग करते हुए कुछ ऐसा लिख देना जिसका अपना संसार होता है, तथा जिसे पढ़कर पाठक की संवेदनाएँ स्पंदित होती हैं या जिसे बार-बार पढ़ने (देखने-सुनने) का मन करता है। इसे ही साहित्य कहते हैं। अतः साहित्य को सूत्र रूप में इस प्रकार से प्रस्तुत कर सकते हैं-

भाषा + सर्जना = साहित्य

साहित्य भी भाषा ही है, उसमें कुछ सर्जनात्मक तत्व आ जाते हैं। वे तत्व कला (art) के रूप में होते हैं। अर्थात कलात्मक तत्व होते हैं। अतः हम साहित्य को तत्वों की दृष्टि से दो भागों में बाँटकर देखते हैं, जिसे पुनः सूत्ररूप में इस प्रकार से दिखा सकते हैं -

भाषा + कला = साहित्य

अतः साहित्य भी भाषा ही है, केवल उसमें कुछ कलात्मक तत्वों का समावेश हो जाता है। इसे आरेख के माध्यम से इस प्रकार से दर्शा सकते हैं-

 

शैलीविज्ञान

एक शैलीवैज्ञानिक के लिए साहित्यभी भाषाही है, किंतु वह भाषा विशेष प्रकार के कलात्मक तत्वों से युक्त होती है। शैलीविज्ञान उन्हीं कलात्मक तत्वों की खोज शैली के रूप में करता है, जो सामान्य भाषा को साहित्य बनाते हैं ।

काव्यभाषा

काव्यभाषा का अर्थ है- साहित्य की भाषा । इसमें गद्य और पद्य दोनों आ जाते हैं। इसके अध्ययन का शास्त्र काव्यशास्त्र कहलाता है। यह भी उन तत्वों की खोज करता है, जो सामान्य भाषा को साहित्य बनाते हैं।

अतः जब शैलीविज्ञान और काव्यशास्त्र दोनों एक ही उद्देश्य के लिए काम करते हैं तो यह जानना आवश्यक है कि दोनों में अंतर क्या है?

शैलीविज्ञान और काव्यशास्त्र में अंतर

इन दोनों विषयों में अंतर इनकी दृष्टि का है। शैलीविज्ञान की दृष्टि भाषावैज्ञानिक होती है, जबकि काव्यशास्त्र की साहित्यिक या साहित्यशास्त्रीय। इसलिए दोनों अपनी-अपनी विश्लेषण पद्धतियों में अलग-अलग प्रतिमानों या उपकरणों का प्रयोग करते हैं।

शैलीविज्ञान में विश्लेषण के प्रतिमान या उपादान

शैलीविज्ञान यह देखता है कि साहित्य बनाने के लिए भाषा में ही किस प्रकार के परिवर्तन किए गए हैं। इसके लिए वह निम्नलिखित प्रतिमानों का प्रयोग करता है-

(क) अग्रप्रस्तुति (Foregrounding)

·      विचलन (Deviation)

·      समानांतरता (Parallelism)

·      विपथन (Deflection)

·      विरलता (Rareness)

(ख) शैलीचिह्नक (Style marker)

काव्यशास्त्र में विश्लेषण के प्रतिमान या उपादान

काव्यशास्त्र यह देखता है कि साहित्य बनाने के लिए किन भाषेतर या कलात्मक तत्वों या उपादानों का प्रयोग किया गया है। इसके लिए वह निम्नलिखित उपादानों का प्रयोग करता है-

चित्र, बिंब, प्रतीक, अलंकार, छंद 


Saturday, August 14, 2021

प्रवेश सूचना : MGAHV 2021







 

Friday, August 13, 2021

भोलानाथ तिवारी

        भोलानाथ तिवारी द्वारा लिखित 'भाषाविज्ञान' पुस्तक सरल शब्दों में भाषाविज्ञान का परिचयात्मक ज्ञान प्रस्तुत करती है इसे भाषाविज्ञान की पृष्ठभूमि नहीं रखने वाले विद्यार्थी भी सरलता पूर्वक समझ सकते हैं। इस पुस्तक के अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं और ई-पुस्तकालय डॉट कॉम पर यह पुस्तक डाउनलोड हेतु निशुल्क उपलब्ध है।





 संपूर्ण पुस्तक डाउनलोड करने का लिंक इस प्रकार है -


https://ia801605.us.archive.org/31/items/in.ernet.dli.2015.541422/2015.541422.Bhasha-Vigyan.pdf