साहित्य और समाज
भाषा संप्रेषण का एक माध्यम है, जिसमें वक्ता अपने विचार या संदेश श्रोता तक वाचिक या लिखित रूप में पहुँचाता
है। इसे एक चित्र के माध्यम से इस प्रकार से समझ सकते हैं-
यह भाषा व्यवहार की सामान्य स्थिति है। हम अपने
दैनंदिन व्यवहार, पठन-पाठन, ज्ञान- विज्ञान खेल-कूद और मनोरंजन गीत-संगीत आदि सभी क्षेत्रों में
एक-दूसरे के साथ इसी प्रकार से अपने विचारों, भावनाओं,
सूचनाओं और संदेशों आदि का संप्रेषण करते हैं। इनमें भाषा का
सामान्य रूप से प्रयोग किया जाता है। संदेश संप्रेषण की एक विशिष्ट विधि ‘साहित्य’ है, जिसमें भाषा का
प्रयोग उसी तरह ‘सामान्य रूप’ में नहीं
होता, जिस प्रकार हमारे दैनिक संप्रेषण या सामान्य व्यवहार
में होता है, बल्कि वह कलात्मक होता है। साहित्य अन्य भाषिक
व्यवहारों से अलग है, क्योंकि दूसरे भाषिक व्यवहारों में
कलात्मकता नहीं होती, जबकि साहित्य में कलात्मकता होती है। यहाँ
यह भी ध्यान देने वाली बात है कि साहित्य में पाई जाने वाली कलात्मकता गीत-संगीत
या नृत्य की तरह दूसरे तत्वों से नहीं उत्पन्न होती है,
बल्कि ‘भाषाई गठन’ (linguistic
construction) से ही उत्पन्न होती है। इसलिए शैलीविज्ञान उन सभी
तत्वों और उनसे संबंधित चीजों का अध्ययन करता है, जिनके
माध्यम से साहित्य में कलात्मकता आने की संभावना होती है। उनमें से एक प्रमुख तत्व
समाज है।
प्रत्येक साहित्यिक कृति समाज में जन्म लेती है।
कोई भी लेखक समाज का ही अंग होता है। साहित्यिक सर्जना करते समय उसके परिवेश में
उपस्थित सामाजिक स्थितियाँ किसी-न-किसी रूप में उसकी स्थिति पर प्रभाव डालती हैं।
अतः बिना समाज को जाने साहित्य को नहीं जाना जा सकता। समाज और साहित्य के संबंध को
समझने के दो आयाम हैं-
1. समाज
में साहित्य का अस्तित्व
2. साहित्य
में समाज की सत्ता का बोध
इन्हें संक्षेप में इस प्रकार से देख
सकते हैं-
(1) समाज में साहित्य का अस्तित्व
जैसा की अभी ऊपर उल्लेख किया गया कि
प्रत्येक लेखक समाज का ही अंग होता है, अपनी
किसी भी कृत्य की रचना करते समय लेखक को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सामाजिक
परिस्थितियाँ प्रभावित करती हैं। इसलिए कृति के विश्लेषण का एक पक्ष यह जानना भी
होता है कि ‘उस कृति की तात्कालिक समाज के संदर्भ में क्या
स्थिति है’। समाज में साहित्य की सत्ता का अध्ययन करने वाले
व्यक्ति को इस बात का अध्ययन करना होता है कि किन सामाजिक परिस्थितियों में
रचनाकार ने अपनी रचना लिखी है? जब हम इस प्रकार से समाज में
साहित्य को देखते हैं, तो हम साहित्य के बाहर खड़े होकर
साहित्य का निरीक्षण कर रहे होते हैं।
(2) साहित्य में समाज की
सत्ता का बोध
शैलीविज्ञान के अनुसार कृति को समझने और उसकी
व्याख्या के लिए कृति में निहित समाज को समझना महत्वपूर्ण है, क्योंकि कृति को पढ़ने पर हमारा सामना कृति में निहित समाज से होता है। प्रत्येक
कृति में कुछ पात्र होते हैं, कुछ घटनाएँ होती हैं और उनके
माध्यम से ही संदेश सृजित होता है। उन सभी के माध्यम से कृति के अंदर का समाज हम
देख सकते हैं। उदाहरण के लिए ‘रामचरितमानस’ या ‘महाभारत’ को ही देखा जाए, तो इनमें से प्रत्येक कृति के अंतर्गत एक स्वतंत्र समाज निहित है, जिनकी व्याख्या हजारों प्रकार से निरंतर की जाती रही है। कोई भी कृति
केवल अपने बाह्य परिवेश का अनुकरण नहीं होती, क्योंकि एक ही
काल में एक ही समाज में रहते हुए दो रचनाकारों की रचनाएँ समान नहीं होतीं या एक ही
रचनाकार की दो भिन्न-भिन्न संदेशों पर लिखी गई रचनाएँ भी समान नहीं होतीं।
संसार के सापेक्ष कहा जाता है कि ‘ईश्वर या प्रकृति’ ने बाह्य संसार की रचना की है।
इसी संसार के अंदर एक साहित्यिक लेखक या कवि अपने काव्य संसार की रचना करता है।
प्रजापति (ब्रह्मा) का उदाहरण देते हुए हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि कवि
अपने काव्य संसार की रचना करता है, जिसका प्रजापति (ब्रह्मा)
वह स्वयं होता है-
“पारे काव्य संसारे कविरेकः प्रजापति।”
इस प्रकार स्पष्ट है कि किसी भी रचना
या कृति में निहित समाज बाह्य संसार के समाज से स्वतंत्र होता है। किंतु वह
पूर्णतः स्वतंत्र नहीं होता, बल्कि कहीं-न-कहीं
रचनाकार के समाज से बँधा या संबद्ध होता है। इसके बावजूद उसमें कई ऐसे तत्व होते
हैं, जो इन सब का अतिक्रमण करते हैं। अर्थात स्थान और समय
में बंधे नहीं होते और वे मानव मात्र के लिए प्रासंगिक होते हैं। हर बड़ा रचनाकार
देश और काल की सीमा का अतिक्रमण करता है।
शैलीविज्ञान यह बताने का प्रयास करता
है कि किसी रचना में निहित कलात्मकता का कारण क्या है? अर्थात यह कार्य-कारण संबंध या वस्तुनिष्ठता (objectivity) स्थापित करता है। अच्छी-बुरी, प्रभावी या अप्रभावी
आदि सभी प्रकार की रचनाओं की सामग्री तो भाषा ही होती है तो फिर विविध प्रभाव कैसे
उत्पन्न होते हैं?
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