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Monday, August 30, 2021

शैलीविज्ञान के अध्ययन का क्षेत्र

 शैलीविज्ञान के अध्ययन का क्षेत्र

 साहित्य का संबंध दो तत्वों के साथ है- भाषा और कला। साहित्य भाषा और कला के अनुबंधन का क्षेत्र है। न तो संपूर्ण भाषा साहित्य है और ना ही प्रत्येक कला साहित्य है। ये दोनों क्षेत्र जहाँ जुड़ते हैं वहाँ साहित्य होता है इसी कारण साहित्य को भाषिक कला कहा गया है । अतः भाषायी व्यवहार और कलाके संदर्भ में साहित्य की स्थितिकी चर्चा आगे की जा रही है। इसमें साहित्य को जो भी स्वरूप निकलकर आएगा, वही शैलीविज्ञान के अध्ययन का क्षेत्र होगा।

(1) भाषायी व्यवहार के क्षेत्र और साहित्य

भाषा का सबसे बड़ा क्षेत्र व्यवहार का क्षेत्र है। उसमें से कुछ हिस्सा ऐसा होता है, जिसे हम सुरक्षित रखते हैं और उसे बार-बार दुहराने की इच्छा रखते हैं। इस हिस्से को वाङ्मय कहा जाता है। यह दो प्रकार का होता है-

(क) उपयोगी वाङ्मय

 जिसका प्रयोग हम ज्ञान के लिए या व्यावहारिक प्रयोग के लिए करते हैं, वह उपयोगी वांग्मय कहलाता है। इसका संबंध ज्ञान और कौशल से है। ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में किया जाने वाला समस्त प्रकार का लेखन इसके अंतर्गत आता है। उदाहरण के लिए तकनीकी, मानविकी, भाषाविज्ञान, भौतिकी, रसायन विज्ञान आदि से जुड़ा कोई लेख या कोई पुस्तक उपयोगी वांङ्मय के अंतर्गत आएगा।

 (ख) ललित वाङ्मय

 जिस वाङ्मय का संबंध मनुष्य की भावनाओं के साथ होता है, वह ललित वाङ्मय कहलाता है। इसका उपयोग हम किसी लाभ के लिए नहीं करते, बल्कि केवल करने के लिए करते हैं। इसके अंतर्गत मनोरंजन, आमोद-प्रमोद आदि के लिए किया जाने वाला व्यवहार आता है। साहित्य इसी प्रकार का वाङ्मय है।

उपर्युक्त दोनों क्षेत्रों की दृष्टि से साहित्य को देखा जाए तो यह भाषा का वह अंश है, जिसे किसी समुदाय द्वारा बार-बार दोहराया जाता है, किंतु साहित्य को ज्ञान के लिए बार-बार नहीं दोहराया जाता, बल्कि इसका कारण उस साहित्य में ही होता है। उदाहरण के लिए यदि हम कोई कहानी या उपन्यास बार-बार पढ़ते हैं या किसी फिल्म को बार-बार देखते हैं तो हमारा उद्देश्य उसकी कहानी को याद करना या रखना नहीं होता, बल्कि हम उसका आनंद ले रहे होते हैं। इसकी जगह किसी परीक्षा की तैयारी के लिए उसके नोट्स को बार बार पढ़ना उद्देश्य के लिए उपयोगिता के लिए या व्यवहार के लिए होता है।

(2) कला के रूप और साहित्य

 कला की दृष्टि से भी देखा जाए तो कलाएँ भी दो प्रकार की होती हैं-

(क) उपयोगी कलाएँ

 इसके अंतर्गत वे सभी कलाएँ आती हैं, जिनका संबंध जीविकोपार्जन से है। उदाहरण के लिए मेज-कुर्सी बनाना, मूर्ति बनाना, मिट्टी के बर्तन बनाना आदि भी कला है, किंतु उपयोगी है। इसका प्रयोग हम लाभ के लिए भी करते हैं। अर्थात उस के माध्यम से धन आदि का अर्जन भी किया जा सकता है या किया जाता है।

(ख) ललित कलाएँ

 वे सभी कलाएँ जिनका व्यवहार केवल उनके सौंदर्य या आकर्षण के कारण होता है, ललित कलाएँ कहलाती हैं। उदाहरण के लिए चित्र, गीत-संगीत, मूर्तिकला, वास्तुकला आदि जो व्यवसाय के रूप में करने के बजाय, केवल कलात्मक प्रस्तुति या मनोभाव की अभिव्यक्ति के लिए किया जाता है, ललित कलाएँ हैं। वर्तमान में इनका भी व्यवसायीकरण करना अलग बात है। साहित्य भी इसी प्रकार की एक कला है।

उपर्युक्त सभी ललित कलाओं को देखा जाए, तो उनमें केवल साहित्य ही भाषिक कला है, जबकि बाकी सभी इतर कलाएँ हैं। साहित्य को परिभाषित करते हुए एजरा पाउंड (Ezra Pound) ने कहा है-

“Literature is simply language charged with meaning to the utmost possible degree.”

(साहित्य का अर्थ की यथासंभव या यथासाध्य कोटि तक आवेशित केवल भाषा है।)

 कला के अध्ययन का शास्त्र कलाशास्त्र (Aesthetics) है। भाषा का अध्ययन भाषाविज्ञान के अंतर्गत किया जाता है। शैली भाषा और कला दोनों से संबंधित है। अतः शैलीविज्ञान दोनों के बीच में आता है।

 भाषा और कला के बीच साहित्य की स्थिति को चित्र रूप में इस प्रकार से दिखा सकते हैं। मैं यहाँ पर कक्षा अध्ययन के दौरान 2009 में बनाए गए अपने नोट्स के चित्र को ही दे रहा हूँ, जो रवींद्रनाथ श्रीवास्तव की पुस्तक के आधार पर प्रोफेसर उमाशंकर उपाध्याय द्वारा अध्यापन के समय हम लोगों से बनवाया गया था-

जार्जस्टेनर ने साहित्य को नकारात्मक रूप से परिभाषित किया है। इसके संदर्भ में उन्होंने तीन बातें कही हैं-

(1) साहित्य का अध्ययन सूचना के लिए नहीं किया जाता।

(2) साहित्य का संदेश यथार्थ (सत्य) और मिथ्या (असत्य) के रूप में सत्यापनीय (verifiable) नहीं होता।

(3) साहित्य का पदान्नवय (paraphrase) नहीं किया जा सकता।

ये विशेषताएँ साहित्य के संदर्भ में कुछ प्रश्न खड़े करती हैं, जिनमें से मूलभूत प्रश्न इस प्रकार है-

हम साहित्य या साहित्यिकता को किस प्रकार से परिभाषित करें? साहित्यिकता को परिभाषित करने का अर्थ है- इस प्रश्न का उत्तर देना कि साहित्य क्या है?’। इसे समझने-समझाने के तीन पक्ष हैं-

(क) लेखक और कृति का संबंध

पहला पक्ष यह देखना है कि लेखक और कृति के बीच किस प्रकार का संबंध है?

 जर्मन दार्शनिक नित्से ने कहा कि गॉड इज डेड। इसी तर्क पर फ्रेंच दार्शनिक रोला बार्थ ने कहा कि राइटर ईद डेड

 हम कृति को लेखक की रचना मानते हैं, किंतु रोला बार्थ ने कहा कि कृति लेखक के मस्तिष्क से गुजरी जरूर है, लेकिन लेखक कृति का कर्ता नहीं है। रचना करने के बाद रचनाकार एक बोझ से मुक्त हो जाता है और पढ़ता है, तो झूम उठता है कि यह मैंने क्या लिखा है?’। अतः लेखकीयता (Authorship) जैसी कोई वस्तु नहीं होती। रचना की अपनी सत्ता होती है, जैसे संतान की अपनी सत्ता होती है।

(नोट- संतान की सत्ता वाले उदाहरण से ठीक से समझना अधिक समीचीन होगा। संतान और  माता-पिता के संदर्भ में पारंपरिक और वस्तुनिष्ठ दृष्टियों से यह विवाद का विषय रहा है कि बच्चे माता-पिता से ही उत्पन्न होते हैं या माता-पिता बच्चों के उत्पन्न होने के माध्यम मात्र हैं। परंपरावादी दृष्टि इस संदर्भ में आदर्शवादी व्याख्या करती है और उसके अनुसार माता पिता ही बच्चों के पैदा होने का कारण या स्रोत हैं। अतः संतान की माता-पिता के बिना कोई सत्ता नहीं है। इसके विपरीत वस्तुनिष्ठ दृष्टि कहती है कि माता-पिता संतान के पैदा होने के स्रोत नहीं हैं, बल्कि केवल माध्यम हैं। उन्होंने हमें पैदा नहीं किया है, बल्कि केवल हमारे पैदा होने का साधन या माध्यम बने हैं। कुआं जल को पैदा नहीं करता है, बल्कि जल को उत्पन्न होने का या प्राप्त होने का कारण बनता है। यही स्थिति माता-पिता की भी होती है। इसे विपरीत प्रक्रिया (reverse process) द्वारा समझाया जा सकता है। अर्थात यदि कोई बच्चा कहे कि हे माता-पिता यदि आपने हमें पैदा किया है, तो हम अभी मर जाते हैं, आप फिर से पैदा कर लीजिए, जो संभव नहीं है। इसीलिए वस्तुनिष्ठ दृष्टि कहती है कि संतान की अपनी सत्ता होती है, माता-पिता माध्यम मात्र हैं, स्रोत नहीं ।)

(ख) पाठक और कृति का संबंध

दूसरा पक्ष यह देखना है कि पाठक और कृति के बीच किस प्रकार का संबंध है?

 लिख देने के पश्चात रचना स्वतंत्र हो जाती है। उसके मूल्य और महत्व के बारे में पाठक क्या अनुमान लगाएगा, यह उसके ऊपर निर्भर है। Reader Reception Theory नामक समीक्षा प्रणाली में एक पुस्तक में एक प्रश्न उठाया गया है- ‘Is there a text in the class?’ जैसे यदि एक ही पाठ को 10 लोग पढ़ रहे हैं, तो क्या सबको रचना एक ही प्रकार से समझ में आएगी? इसका उत्तर है- नहीं। प्रत्येक पाठक उसकी व्याख्या अपने-अपने ढंग से करता है। जब हम किसी कृति के बारे में कोई बात कहते हैं, तो हम अपनी व्याख्या या दृष्टिकोण को उस पर टांग रहे होते हैं। जैसा कि ओशो ने कहा था- मैं गीता की व्याख्या नहीं कर रहा हूँ, बल्कि मैं तो अपने विचार मात्र व्यक्त कर रहा हूँ। यह तो एक खूँटी मात्र है, जिस पर मैं अपने विचार टाँग रहा हूँ। अतः पाठक की दृष्टि से विचार करने पर प्रश्न उठता है कि यदि एक पाठ की 10 समीक्षाएँ हों, तो किसे सही माना जाए। अतः पाठक केंद्रित प्रणाली भी ठीक नहीं है।

(ग) बाह्य संसार (संदर्भ) और कृति का संबंध

तीसरा पक्ष यह देखना है कि बाह्य संसार (संदर्भ) और कृति के बीच किस प्रकार का संबंध है?

 बाहर के यथार्थ कई प्रकार के होते हैं, जैसे- सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि। इन्हें भी रचना की समीक्षा का उचित आधार नहीं बनाया जा सकता। यह बता पाना कठिन है कि किस प्रकार के परिवेश ने किस रूप में किस तरह से लेखक को प्रभावित किया कि लेखक से किसी कृति विशेष की रचना की।

(घ) भाषा और कृति का संबंध

चौथा पक्ष यह देखना है कि भाषा और कृति के बीच किस प्रकार का संबंध है?

 इसमें हम यह देखते हैं कि पाठ में प्रयुक्त भाषा का साहित्य के साथ क्या संबंध है? और उस भाषा की विशिष्टता को किस प्रकार से समझा जा सकता है?

 संप्रेषण के संदर्भ में भाषा की सबसे बड़ी इकाई पाठ या प्रोक्ति है। प्रत्येक कृति एक पाठ होती है। पाठ के स्तर पर आकर ही यह अर्थ से पूर्ण आवेशित (fully charged with meaning) हो पाती है। इसे समझने की दो दृष्टियाँ संभव हैं-

(1) व्यष्टिगत दृष्टि (Micro Approach) :-  इस दृष्टि से किए जाने वाले विवेचन में पाठ के सभी भाषावैज्ञानिक स्तरों पर एक-एक इकाइयों की विवेचना की जाती है। ये स्तर- स्वनिम, रूपिम, शब्द/ पद, पदबंद, उपवाक्य, वाक्य, प्रोक्ति और अर्थ होते हैं। अतः इसके केंद्र (focus) में भाषायी सामग्री का स्वरूप होता है।

(2) समष्टिगत दृष्टि (Macro Approach) :-  इसके अनुसार पाठ एक व्यक्तिगत सत्ता’ (individual entity) है और यह केवल वाक्यों या पदों आदि का समुच्चय नहीं है। इसके आगे भी है और जो आगे है, वही साहित्यिकता है। उदाहरण के लिए समग्रता के अनुसार ‘≡’ (ट्रिपल बार) का अर्थ भिन्न-भिन्न हो जाता है। इसे हम उसी नोट्स के एक चित्र से समझते हैं-

 समग्रता में हर साहित्यिक रचना एक प्रतीक बन जाती है। भाषा प्रतीकों की एक व्यवस्था है, किंतु सारे प्रतीक मिलकर एक उच्च स्तर का प्रतीक बनाते हैं, जिसे हम समझने के लिए द्वितीय स्तर का प्रतीक (second order symbol) कह सकते हैं। इस प्रकार रचना एक समग्र प्रतीक है। इसी कारण कुछ विद्वान शैलीविज्ञान को प्रतीकविज्ञान (Semiotics) का अंग मानते हैं। जब साहित्य एक प्रतीक है, तो उसके शब्द, वाक्य आदि का कोई मूल्य नहीं होता। वह संपूर्ण रूप से किसी और भाव का प्रतिनिधित्व करता है।

 सभी साहित्यिक रचनाएँ अपने आप में प्रतीक हैं। प्रतीक समय और स्थान के संदर्भ में विकासमान होते हैं।

(नोट : प्रतीक (Sign) -  प्रतीक स्वयं में कुछ नहीं होता, वह किसी के लिए किसी का प्रतिनिधित्व करता है। प्रतीकों के निर्माण/व्यवहार की प्रक्रिया को आरेख द्वारा इस प्रकार से समझा सकते हैं-

 प्रयोक्ता                संकेत                प्रयोग

 प्रयोग                  (Sign)             ग्रहण

(text)

 प्रतीक प्रयोक्ताओं (users) के बीच ही अपने महत्व (significance) को प्राप्त करता है।)

 साहित्यिक भाषा में सौंदर्य होता है। सौंदर्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह उपयोगी नहीं होता, उसका कोई प्रयोजन नहीं होता। उसमें केवल रस या आनंद मिलता है। यह भी जीवन की एक मूलभूत आवश्यकता है।

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