Total Pageviews

Monday, August 23, 2021

साहित्यिक समीक्षा की पद्धतियाँ

 साहित्यिक समीक्षा की पद्धतियाँ

 साहित्य एक संश्लिष्ट प्रक्रिया है। इसे समझने के कई मार्ग होते हैं। अर्थात किसी  साहित्यिक कृति (काव्य- पद्य या गद्य) को समझने-समझाने या उसकी व्याख्या के कई पक्ष होते हैं। इन्हें हम इस प्रकार से समझ सकते हैं-

(क) अनुकृतिमूलक समीक्षा

कुछ विद्वानों के अनुसार साहित्य एक सामाजिक उत्पाद है। कवि समाज का अंग होता है अतः कविता की व्याख्या उस सामाजिक संदर्भ में ही संभव है। इन समीक्षकों के अनुसार साहित्य समाज का दर्पण है । इस कारण इस सिद्धांत को साहित्य का दर्पणवादी सिद्धांत भी कहा गया है। इसमें मूल वस्तु समाज को माना जाता है और साहित्य को उसकी अनुकृति या बिंबात्मक प्रस्तुति माना जाता है। इसलिए इस समीक्षा पद्धति में मूल्यांकन सामाजिक स्थिति और उसके अनुरूप साहित्य की कृति में प्रस्तुति को ध्यान में रखकर किया जाता है।

(ख) निर्णयमूलक / निर्णयात्मक समीक्षा

यह समीक्षा के लिए पाठक केंद्रित दृष्टिकोण है। इसमें पाठक के अपने संस्कार, भावजगत, पृष्ठभूमि आदि भी सर्जनात्मक कृति की समीक्षा के लिए आधार बनते हैं। इसमें मूलतः हम यह देखते हैं कि पाठक पर कृति का क्या प्रभाव पड़ता है। किसी भी कृत्य के संदर्भ में पाठक की प्रतिक्रिया भिन्न-भिन्न होती है। अतः पाठक केंद्रित आलोचना भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है। इसी कारण इस आलोचना पद्धति को प्रभाववादी आलोचना या रसवादी आलोचना भी कहा गया है।

 भारतीय काव्यशास्त्रों में कहा गया है कि पाठक को सहृदय होना चाहिए। अधिकांश विद्वान यह मानते हैं कि हर कविता अधूरी होती है, वह पाठक पर जाकर ही पूरी होती है। इसलिए साहित्यिक सर्जना के क्षेत्र में पाठक को एक प्रकार से सहसंयोजक माना गया है।

 (ग) अभिव्यंजनामूलक समीक्षा

 इस साहित्यिक आलोचना की इस पद्धति के अनुसार साहित्य लेखक के जीवन के विभिन्न अनुभव पर ही आधारित होता है, या उसी की अभिव्यक्ति होता है। अतः इस पद्धति में इस बात को समीक्षा का आधार बनाया जाता है कि लेखक अपने अनुभव को अपनी कृति में कितने प्रामाणिक रूप में अभिव्यक्त कर पाया है। दूसरे शब्दों में इस समीक्षा पद्धति में कवि और उसकी सर्जनात्मक प्रतिभा को काव्यालोचन या साहित्यिक समीक्षा का आधार बनाया जाता है। अतः यह पद्धति मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण पर केंद्रित है। इसमें कवि की मानसिक स्थिति का अवलोकन करते हैं और उसी के आधार पर समीक्षा करते हैं।

(घ) सांस्कृतिक आलोचना या समीक्षा

 कुछ लोग और अधिक व्यापक रूप में साहित्य को जाति, परंपरा और सांस्कृतिक मूल्यों के साथ भी जोड़ते हैं तथा उच्च स्तर पर जाकर साहित्यिक आलोचना की बात की जाती है। अतः यह अभिव्यंजनामूलक का सांस्कृतिक पक्ष है या सांस्कृतिक विस्तार है।

 उपर्युक्त चारों पद्धतियों को कृति के सापेक्ष एक चित्र के माध्यम से इस प्रकार से समझ सकते हैं-

 


 विश्लेषण:  साहित्यिक कृति की उपयुक्त चारों प्रकार की समीक्षा या आलोचना प्रणालियों को ध्यान से देखा जाए तो इनमें कहीं भी कृति केंद्र में दिखाई नहीं पड़ रही है, जबकि एक समीक्षाक या विश्लेषक का उद्देश्य कृति की समीक्षा करना होता है। अतः उसकी प्रणाली के केंद्र में भी कृति ही होनी चाहिए। इसलिए हम आगे पांचवी समीक्षा पद्धति को देखेंगे।

(ङ) वस्तुमूलक समीक्षा

 इस समीक्षा प्रणाली में समीक्षा या आलोचना के केंद्र में साहित्यिक कृति ही होती है, जो उस समीक्षा की साध्य वस्तु होती है। अतः साहित्यिक समीक्षा में यदि हम कृति को केंद्र में रखकर की जाने वाली समीक्षा पद्धति की बात करें, तो वह मूलतः वस्तुमूलक समीक्षा ही है।

 इस प्रकार की समीक्षा का कार्य शैलीविज्ञान द्वारा किया जाता है। शैलीविज्ञान द्वारा की जाने वाली समीक्षा के केंद्र में न रचनाकार होता है, न पाठक होता है, न समाज होता है और न ही कोई अन्य वस्तु होती है, बल्कि वह कृति होती है जिसकी समीक्षा करनी रहती है। शैलीवैज्ञानिकों के अनुसार कृति अपने आदि से लेकर अंत तक (आद्यंत) भाषा है। चाहे वह दोहा हो, शायरी हो या महाकाव्य हो। अर्थात कृति में प्राप्त वस्तु भाषाही है।

भाषा और साहित्य के संबंध में यह ध्यान रखने वाली बात है कि भाषा का हर रूप साहित्य नहीं होता।  शैलीवैज्ञानिक यह खोजने का प्रयास करते हैं कि वे कौन से तत्व हैं, जो भाषा को साहित्य बना देते हैं। उन्हीं तत्वों को शैली नाम दिया जाता है। डॉ. रवींद्रनाथ श्रीवास्तव ने शैलीविज्ञान को परिभाषित करते हुए कहा है-

“शैलीविज्ञान साहित्य को समझने-समझाने की दृष्टि है, जो शैली के साक्ष्य पर एक ओर साहित्यिक कृति की संरचना और गठन पर प्रकाश डालती है, दूसरी ओर कृति का विश्लेषण करते हुए उसमें निहित साहित्यिकता का उद्घाटन करती है।”

 इस प्रकार स्पष्ट है कि शैलीविज्ञान कृति की आलोचना है।

 वस्तुमूलक समीक्षा की दृष्टि से शैलीविज्ञान की स्थिति और उसकी विशिष्टता को एक आरेख के माध्यम से इस प्रकार से समझ सकते हैं-



भाषिक संरचना साहित्यिकता को जन्म देती है। भाषिक संरचना को कलात्मक सौंदर्य साहित्य बनाती है।  अतः साहित्य को सूत्र रूप में इस प्रकार से प्रस्तुत कर सकते हैं-

भाषिक संरचना + कलात्मक सौंदर्य = साहित्य

कलात्मक सौंदर्य के कारण साहित्य कला भी है। प्लेटो ने कला के संबंध में कहा है-

  कला अनुकरण है। (Art is imitation.)

प्रकृति में उपलब्ध सौंदर्य को देखकर मनुष्य उसका अनुकरण करता है और उस अनुकरण के माध्यम से जब कुछ बना देता है, तो वह चीज कला बन जाती है, जैसे- चित्र, मूर्ति आदि। इस संबंध में भी प्लेटो का मत देख सकते हैं-

‘art imitates the objects and events of ordinary life.’

 मानव निर्मित प्रत्येक वस्तु एक कला है। कला में एक विशेष प्रकार की व्यवस्था या लयबद्धता होती है। वह सामान्य स्थिति से हटकर सौंदर्ययुक्त प्रस्तुति होती है। साहित्य भी भाषा के सामान्य प्रयोग से हटकर सौंदर्ययुक्त प्रयोग होता है। अतः भाषाविज्ञान के लिए साहित्य एक कला शाब्दिक कला है  साहित्यिक रचनाओं में भाषा प्रयोग की स्थिति को समझाते हुए कहा गया है कि गद्य में भाषा चलती है, कविता में वह नृत्य करती है

 साहित्य समीक्षा की अन्य प्रणालियों से उनके और साहित्य के बीच संबंधों के संदर्भ में ज्ञान होता है, जैसे-

समाज  संदर्भित अध्ययन                 समाज और साहित्य

संस्कृति संदर्भित अध्ययन                संस्कृति और साहित्य

पाठक संदर्भित अध्ययन                  पाठक और साहित्य

लेखक संदर्भित अध्ययन                  लेखक और साहित्य

कृति संदर्भित अध्ययन                    कृति और साहित्य (शैलीविज्ञान)

 

No comments:

Post a Comment