शैलीवैज्ञानिक समीक्षा और भाषाविज्ञान
शैलीविज्ञान को अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान का एक
अंग माना गया है, किंतु पिछली चर्चाओं से
स्पष्ट है कि शैलीविज्ञान ‘भाषाविज्ञान’ और ‘कलाशास्त्र’ के बीच का है|
अतः शैलीविज्ञान को अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान का अंग मानना या कहना
पक्षपातपूर्ण दिखाई पड़ता है। इसलिए आगे हम इसकी प्रकृति संबंधी सभी पक्षों पर
विचार करेंगे।
शैलीविज्ञान साहित्यिक समीक्षा का सिद्धांत और
प्रणाली है। इन दोनों ही दृष्टियों से शैलीविज्ञान की विषयवस्तु पर विचार करना
आवश्यक है-
प्रणाली की दृष्टि से
यदि किसी कृति की समीक्षा करनी हो तो तकनीकी दृष्टिकोण यह है कि ‘हम ज्ञात से अज्ञात की ओर जाते हैं’। साहित्य को
पढ़ते ही हम भाषा से टकराते हैं। अतः इसका प्रथम ज्ञात तत्व भाषा है।और विस्तार
में देखा जाए तो साहित्य के दो पक्ष हैं-
· भाषा
(अभिव्यक्ति) पक्ष
· कलात्मकता
(कथ्य) पक्ष
साहित्य पढ़ने में हम ‘भाषा’ (अभिव्यक्ति) पक्ष से होकर उसके कथ्य पक्ष (कलात्मकता)
की ओर पहुँचते हैं। इस प्रकार साहित्य में भाषा की अनिवार्यता सिद्ध हो जाती है।
रचना प्रक्रिया में सर्वप्रथम लेखक के मन में एक
विचार आता है। फिर वह उसे वाक्यों या शब्दों में व्यक्त करता है। यह प्रक्रिया कथ्य
से अभिव्यक्ति की ओर चलती है। रचनाकार की कृति तब तक साहित्य नहीं कही जा सकती, जब तक वह भाषा में ना बँध जाए।
इस प्रकार समीक्षा प्रणाली की दृष्टि
से भी स्पष्ट है कि इसमें भाषा की भूमिका आधारभूत है। समीक्षक सबसे पहले भाषा से
ही टकराता है। यह बात और है कि उसमें कलात्मकता भी होती है, किंतु वह कलात्मकता भी भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त हुई रहती है।
सिद्धांत की दृष्टि से
देखा जाए तो सबसे पहले कलाओं पर उनके दो स्तरों की दृष्टि से बात करना समुचित
होगा-
· कला
सामग्री का स्तर
· कला
माध्यम का स्तर
कला सामग्री के स्तर पर
बात करें तो साहित्य के अलावा दूसरी कलाओं में कला सामग्री के अनेक विकल्प होते
हैं। उदाहरण के लिए मूर्तिकला में कलाकार को अपनी कृति को अभिव्यक्त करने के लिए
कई विकल्प मिल जाते हैं, जैसे- मिट्टी, पत्थर, सीमेंट, प्लास्टर ऑफ
पेरिस आदि। इनमें से किसी भी सामग्री का प्रयोग करके मूर्तिकार अपनी कला को
प्रदर्शित कर सकता है या मूर्ति बना सकता है। साहित्यकार के पास इस प्रकार के
विकल्प नहीं होते। उसकी सामग्री सदैव भाषा ही होती है। अतः ‘भाषा’ साहित्य की ‘अनिवार्य कला सामग्री’ है। इसका कोई विकल्प नहीं है।
कला माध्यम
कला सामग्री का अगला स्तर है। कला सामग्री तो कलाकृति का भौतिक उपादान है। कला
माध्यम के स्तर पर ही कला का जन्म होता है। उदाहरण के लिए ताजमहल को देखना केवल
पत्थरों के ढेर को देखना नहीं है। उसमें लगाए गए पत्थर उसकी कला सामग्री हैं। उन पत्थरों या चट्टानों को मिलाकर दिया
गया ‘रूपाकार’ कला माध्यम है, जो
चट्टानों द्वारा बने हुए होने के बावजूद भी इनसे निरपेक्ष है। हम कला माध्यम या
रूपाकार को देखकर ही आनंदित होते हैं। हो सकता है कि उसमें लगे पदार्थ का हमें
ख्याल भी न आए, अतः कला माध्यम कला सामग्री या उपादान से ऊपर
की चीज है।
साहित्य के क्षेत्र में कला माध्यम के स्तर
पर भी ‘भाषा’
मौजूद रहती है, जैसे- छंद, अलंकार, बिंब के रूप में भी भाषा ही होती है। साहित्यकार पात्रों को जीवंत बना
देता है, किंतु सब कुछ भाषा के भीतर ही होता है। इसी कारण
साहित्यिक क्षेत्र से भाषा का क्षेत्र अधिक विस्तृत होता है। भाषा सामग्री या कला
सामग्री के स्तर पर कृति का विश्लेषण इतनी ध्वनियाँ, इतने
शब्द, इतने वाक्य आदि के रूप में किया जाता है। कला माध्यम
के स्तर पर ही भाषा साहित्य से जुड़ती है। कला माध्यम के स्तर पर रस, छंद, अलंकार में भी भाषा उपस्थित रहती है। छंद, अलंकार आदि की व्यवस्था सामग्री के ऊपर आरोपित एक अलग चीज है, जिसके कारण वह कृति अपने सौंदर्य को प्राप्त होती है। कला सामग्री (भाषा)
का पात्रों, बिंबो, चरित्रों आदि के
रूप में जब संयोजन किया जाता है, तब वे साहित्य (कला) के
माध्यम के रूप में खड़े हो जाते हैं।
अन्य कलाओं की कला सामग्रियाँ कला के
साथ उतनी घनिष्ठ रूप में संबंधित नहीं होती हैं,
जितनी की भाषा साहित्य के साथ होती है। कला माध्यम के रूप में भी भाषा अनिवार्य और
विकल्पहीन है। अन्य कला सामग्रियों में कला माध्यम बनने की क्षमता नहीं होती। यह
भाषा की अपनी प्रकृतिगत विशेषता होती है कि वह कला सामग्री भी है और कला माध्यम भी
।
कला माध्यम बनने के कारण
(1) भाषा अपनी प्रकृति से सक्रिय, सजीव और गत्यात्मक होती है। इसके कारण वह प्रवृत्तयात्मक भी होती है।
प्रवृत्तयात्मक होने के कारण भाषा एक दिशा में ले जाती है। भाषा रूपों का प्रयोग
करते समय साहित्यकार को विचार करना पड़ता है कि किस शब्द,
वाक्य का प्रयोग करूँ। दूसरी कलाओं की सामग्री, जैसे- लकड़ी
आदि में ऐसा नहीं है। अन्य सामग्रियाँ अपने प्रयोक्ता पर इस तरह का दबाव नहीं डाल
पातीं।
(2) भाषा संस्कृति का एक उपकरण है। यह
परंपरा की परिचालिका या संवाहिका है। अतः यह जड़ वस्तु नहीं है।
(3) भाषा एक सामाजिक वस्तु है, किंतु इसके साथ ही भाषा न केवल एक सामाजिक वस्तु है बल्कि एक संकलनात्मक
बोध भी है। अतः इसका एक मनोवैज्ञानिक पक्ष भी है। इसी कारण साहित्य में जो कला का
बोध होता है, वह भाषा के बिना नहीं हो सकता। अर्थात साहित्य
की कला संरचना भाषा संरचना के गर्भ से ही उत्पन्न होती है,
जबकि अन्य कलाओं में कला माध्यम कला सामग्री से स्वतंत्र होता है, किंतु कला सामग्री कला माध्यम से अलग होकर स्वतंत्र रूप से सक्रिय नहीं
हो सकती, जैसे- पत्थर के टुकड़े का अपना कोई सांस्कृतिक
मूल्य नहीं होता, किंतु उसी से जब किसी मूर्ति का निर्माण
करते हैं तो वह पत्थर के गुणों से मुक्त हो जाती है। मूर्ति के बाहर पत्थर का कोई
मूल्य नहीं होता।
इस प्रकार हम देखते हैं कि साहित्य की साहित्यिक
या शाब्दिक कला में कला सामग्री, कला माध्यम और कला/काव्य
की संरचना सब कुछ भाषा से प्रभावित है। अतः सैद्धांतिक रूप से शैलीविज्ञान ‘भाषाविज्ञान’ का क्षेत्र है, न
कि कला शास्त्र का।
दूसरी ओर शैलीविज्ञान एक प्रणाली भी
है। इस प्रणाली में पाठक की यात्रा अभिव्यक्ति से आरंभ होकर कथ्य पर समाप्त हो
जाती है, किंतु रचनाकार की प्रक्रिया विपरीत होती है पहले वह कथ्य को अनुभव करता
है फिर उसकी अभिव्यक्ति करता है। इसे आरेख द्वारा इस प्रकार से समझ सकते हैं-
पाठक = अभिव्यक्ति à कथ्य
लेखक = कथ्य à अभिव्यक्ति
एक समीक्षक के अनुसार, अच्छे उपन्यास में भाषा नहीं होती। इसका तात्पर्य यह है कि भाषा इतनी सरल
होनी चाहिए कि पाठक का भाषा पर ध्यान ही ना जाए।
इस प्रकार साहित्य की भाषा काँच की
तरह होती है, जो यदि सरल (साफ) हो, तो सीधे कला बोध (पार की वस्तु) दिखाई पड़ती है और भाषा का ध्यान ही नहीं
आता। जब कठिनाई होती है, तब भाषा का ध्यान आता है।
परंतु उपरोक्त बातों के साथ-साथ कुछ समस्याएँ भी
हैं, जैसे- साहित्य की कुछ विशेषताओं के विश्लेषण के लिए भाषाविज्ञान के पास
उपकरण नहीं हैं, जैसे- कथावस्तु, पात्र, बिंब आदि। ये कला माध्यम हैं। इनके विश्लेषण के लिए उपकरण नहीं होने के
कारण वह प्रतीकविज्ञान से सहायता लेता है, प्रतीकविज्ञान या
संकेतविज्ञान इतना व्यापक है कि भाषाविज्ञान और कलाशास्त्र दोनों ही इसके अंग है।
इसी कारण कुछ विद्वान यह भी कहते हैं कि भाषाविज्ञान
और कला शास्त्र के संधि स्थल (अनुबंधन क्षेत्र) पर स्थित शैलीविज्ञान संयुक्त रूप
में संकेतविज्ञान की एक शाखा है।
अतः शैलीविज्ञान के संदर्भ में दो
पक्ष है-
(1) अनुप्रयुक्त
भाषाविज्ञान की शाखा के रूप में
(2) भाषाविज्ञान
और कला शास्त्र के संधि-स्थल (अनुबंधन क्षेत्र) में स्थित प्रतीकविज्ञान की शाखा
के रूप में
शैलीविज्ञान के प्रकार
कुछ विद्वान शैलीविज्ञान को भी वर्गीकृत करते
हैं। जब हम किसी रचना का शुद्ध भाषावैज्ञानिक विश्लेषण करते हैं, तो हम केवल कला सामग्री का विश्लेषण करते हैं, जैसे
रचना में कितने वाक्य, उपवाक्य, स्वर, व्यंजन आदि प्रयुक्त हुए हैं ? को देखना। इस प्रकार
के अध्ययन को भाषावैज्ञानिक शैलीविज्ञान (Linguistic Stylistics)कहते हैं।
दूसरे स्तर पर जब कला माध्यम के रूप में हम
अलंकार, छंद, बिंब
आदि द्वारा साहित्य या रचना का विश्लेषण करते हैं, तो इसे
साहित्यिक शैलीविज्ञान (Literary Stylistics) कहते हैं।
किंतु बात यहीं समाप्त नहीं होती, क्योंकि कला माध्यम अपने आप में बीच में होने का प्रतीक है। रचनाकार का
उद्देश्य केवल पात्र खड़े करना नहीं होता है, वह केवल एक
कहानी ही नहीं सुनाता, बल्कि उसका एक उद्देश्य होता है। यहाँ
पर पूरी रचना एक प्रतीक बन जाती है। जब तक हम उस प्रतीक के अर्थ तक नहीं पहुँच
जाते, तब तक हमारा अध्ययन पूरा नहीं होता, जैसे- ‘शिवलिंग’ को देखकर हम ‘पत्थर’ की बात छोड़ भी दें, तो
केवल ‘शिवलिंग के रूपाकार’ को नहीं
देखते, बल्कि उसको प्रतीक मानकर उसके अर्थ (भगवान शिव) तक पहुँचते
हैं।
किसी कला को सुंदर या अच्छा मानने का दृष्टिकोण
व्यक्ति को समाज और संस्कृति द्वारा प्राप्त होता है। यह भाषा के द्वारा ही संभव
हो पाता है। उदाहरण के लिए भारत में लंबे बाल रखना स्त्रियों के लिए सुंदरता का
प्रतीक है, जबकि कोरिया आदि में छोटे बाल रखना
सुंदरता का प्रतीक है। यह हमारी सांस्कृतिक विरासत द्वारा निर्मित है। साहित्य में
भी इस प्रकार के कुछ प्रतिमान बनाए जाते हैं, जो भाषा द्वारा
निर्मित होते हैं। इसका कारण है कि भाषा केवल संस्कृत की परिचारिका नहीं है, बल्कि एक संकल्पनात्मक बोध भी है।
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