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Saturday, September 18, 2021

शैलीवैज्ञानिक अध्ययन के स्तर

 शैलीवैज्ञानिक अध्ययन के स्तर (Levels of Stylistic Study)

किसी पाठ या कृति का शैलीवैज्ञानिक अध्ययन तीन स्तरों पर किया जा सकता है- कला सामग्री, कला माध्यम और कला प्रतीक। इन्हें इस प्रकार से देख सकते हैं-

(1) कला-सामग्री के स्तर पर

 शैलीविज्ञान का पहला स्तर कृति में भाषा का सामग्री के रूप में अध्ययन करना है। इस स्तर पर रचना के विश्लेषण की दो दृष्टियाँ होती हैं-

() गुणात्मक (qualitative) दृष्टि

इस दृष्टि से रचना में प्रयुक्त भाषिक सामग्री का भाषा के विभिन्न स्तरों पर गुणों के आधार पर विश्लेषण या विवेचन किया जाता है। इन्हें भाषा के विविध स्तरों पर इस प्रकार देखा जा सकता है-

(i) ध्वनि स्तर - इस स्तर पर यह देखा जाता है कि किस-किस प्रकार के अक्षर, कौन-कौन से स्वर व्यंजन आदि प्रयुक्त हुए हैं।

(ii) रूप स्तर - इस स्तर पर हम यह देखते हैं कि कौन-कौन से शब्द प्रयोग किए गए हैं एवं उनका प्रकार क्या है, जैसे- संज्ञा, विशेषण, क्रिया (अकर्मक, सकर्मक) आदि। इसमें रूप निर्माण की दृष्टि से शब्दों के विभिन्न रूप, जैसे- मूल रूप या रूपसाधित रूप, सामासिक शब्द आदि भी देखे जाते हैं।

(ii) वाक्य स्तर - इसमें यह देखा जाता है कि वाक्य किन पदबंधों द्वारा निर्मित हुए हैं, जैसे- संज्ञा पदबंध, क्रिया पदबंध, विशेषण पदबंध आदि। इसी प्रकार पाठ में आए वाक्यों के प्रकार भी देखे जाते हैं, जैसे- सरल वाक्य, मिश्र वाक्य, संयुक्त वाक्य। उपवाक्य के स्तर पर भी मिश्र और संयुक्त वाक्य में आए हुए उपवाक्यों के स्वरूप एवं उनकी रचना देखी जाती है।

 इस प्रकार से गुणात्मक दृष्टि द्वारा सामग्री के रूप में भाषा का विश्लेषण किया जाता है, जिसमें पाठ में उपर्युक्त स्तरों पर आई हुई भिन्न-भिन्न प्रकार की सामग्री को अलग-अलग करने के साथ-साथ यह भी देखा जाता है। कि उनका प्रयोग क्यों और कैसे किया गया है अथवा उनके प्रयोग से साहित्यिक कृति में क्या प्रभाव उत्पन्न हो रहा है।

() परिमाणात्मक (quantitative) सृष्टि

 इस दृष्टि से किए जाने वाले विश्लेषण में भाषिक इकाइयों के प्रयोग की आवृत्ति तथा संख्या को आधार बनाया जाता है। इसमें भी भाषा के उपर्युक्त तीनों स्तर हो सकते हैं, जिन्हें इस प्रकार से समझ सकते हैं-

(i) ध्वनि स्तर - इस स्तर पर मात्रात्मक दृष्टि से देखा जाता है कि रचना में कितने स्वर, व्यंजन (घोष/ अघोष) आदि का प्रयोग किया गया है।

(ii) रूप स्तर - रूप स्तर पर गुणात्मक (qualitative) दृष्टि के अंतर्गत दी गई बातें ही आती हैं, किंतु केवल यह देखते हैं कि ये सब कितनी संख्या में आए हैं।

(iii) वाक्य स्तर - वाक्य स्तर पर भी पदबंध, उपवाक्य और वाक्य की दृष्टि से उनके विभिन्न प्रकारों को देखा जाता है, किंतु केवल प्रत्येक प्रकार के प्रयोग की संख्या पर ही बल रहता है।

अतः स्पष्ट है कि परिमाणात्मक दृष्टि से किए जाने वाले अध्ययन या विश्लेषण से रचना के बारे में कुछ अधिक पता नहीं चलता, बल्कि इसमें प्रयोगों के स्वरूप एवं उनकी आवृत्ति का ही ज्ञान हो पाता है। इसी कारण इसे पूर्वशैलीविज्ञान (Pre-Stylistics) या शैलीमापक्रमी (Stylometry) कहा गया है। इससे स्वरूप के बारे में पता नहीं चलने को हम इस प्रकार से समझ सकते हैं कि मान लीजिए प्रेम शब्द की आवृत्ति यदि किसी रचना में 100 बार हो, तो उसे प्रेम की महान रचना नहीं माना जा सकता। हो सकता है कि प्रेम की महान कविता में प्रेम शब्द एक बार भी न आया हो।

शैलीमापक्रमी (Stylometry) मूलतः संदिग्ध रचना के लेखक का पता लगाने में उपयोगी होता है। शैलीविज्ञान के इस स्तर को भाषावैज्ञानिक शैलीविज्ञान (Linguistic Stylistics) भी कहा गया है। सामान्य भाषावैज्ञानिक अध्ययन और भाषावैज्ञानिक शैलीविज्ञान के अध्ययन में यह अंतर होता है कि सामान्य भाषाविज्ञान में सामान्य भाषा व्यवहार का और भाषावैज्ञानिक शैलीविज्ञान में साहित्यिक कृति का अध्ययन किया जाता है।

 भाषावैज्ञानिक अध्ययन और पूर्वशैलीवैज्ञानिक अध्ययन (pre-stylistic study) दोनों के विश्लेषण की सबसे बड़ी इकाई वाक्य है। इस दृष्टि से अर्थ के स्तर पर जो कला सामग्री के रूप में मिलता है, उसे शब्दार्थ या संकेतार्थ (denotative meaning) कहते हैं, जैसे-

 यह एक गाय है।

 इस वाक्य में गाय का संदर्भ एक पशु विशेष से है जो इस शब्द का अभिधार्थ/ वाच्यार्थ या संकेतार्थ है।

 जहाँ पर गाय शब्द का अभिधार्थ बाधित हो और उसके गुणों, जैसे- सरलता, सादगी आदि का बोध होने लगे, तो उसे संपृक्तार्थ (connotation) कहते हैं, किंतु यह कला सामग्री से ऊपर की चीज है। इसे निम्नलिखित उदाहरण से समझ सकते हैं-

 मेरी बहू एक गाय है।

 यहाँ पर गाय शब्द का अर्थ उसका मुख्य अर्थ उस पशु विशेष से नहीं लिया जाएगा, बल्कि उसका संपृक्तार्थ या लक्षणार्थ लिया जाएगा। शैलीवैज्ञानिक दृष्टि से यह स्तर आवश्यक है, किंतु केवल इतना ही अध्ययन करना पर्याप्त नहीं है।

(2) कला माध्यम के स्तर पर

 यहाँ पर भाषा (कला सामग्री) वही होती है, किंतु विश्लेषण के इस स्तर पर कला माध्यम का रूप ले लेती है। यहाँ पर भाषा के माध्यम से उन कला मूर्तियों का जन्म होता है, जिन्हें हम रस, छंद, अलंकार, कथानक, बिंब, पात्र आदि के रूप में देखते हैं। ये सभी साहित्य रूपी कला के माध्यम हैं। यहाँ पर अध्ययन की इकाई वाक्य के ऊपर की इकाई पाठ या प्रोक्ति (text/discourse) होती है। ये इकाइयाँ एक से अधिक वाक्यों से बनती हैं, जैसे- एक पात्र के लिए एक से अधिक वाक्यों के संवाद की आवश्यकता होती है। इसे समझने के लिए एक उदाहरण दर्शनीय है-

सुनी एक भी बात तुमने ना मेरी

 सुनी मैंने सारे जमाने की बातें

 इसमें काव्यात्मकता या साहित्यिकता किसी एक पंक्ति में नहीं है। यह दोनों के बीच से निकलती है। इनमें अनुप्रास तक नहीं है फिर भी एक लय (rhythm) है। पाठ या प्रोक्ति में किसी-न-किसी युक्ति से सभी वाक्य एक दूसरे से जुड़े होते हैं, जैसे- उपरोक्त उदाहरण में सुनी शब्द की आवृत्ति और अर्थ का विरोधाभासनामक युक्तियाँ हैं। इसी माध्यम से ये दोनों ही वाक्य परस्पर जुड़कर उक्ति को साहित्य का रूप दे रहे हैं। अतः यहाँ पर कला सामग्री अर्थात दोनों वाक्यों का समुच्चय कला माध्यम के रूप में आ गया है।

 यहाँ पर दोनों वाक्यों में संसक्ति है। अर्थ की दृष्टि से यहाँ केवल अभिधार्थ नहीं है। प्रथम वाक्य में सुनी शब्द का अर्थ मानने से है।

(3) कला प्रतीक के स्तर पर

 शैलीविज्ञान प्रोक्ति को कला प्रतीक मानता है। यहाँ पाठ समग्र रूप से एक प्रतीक का रूप ले लेता है। अर्थात इसमें पूरा पाठ अपनी सभी इकाइयों के साथ एक इकाई के रूप में विलीन हो जाता है। यहाँ पर कृति में आंगिकता  होती है। अंगों के योग के कारण अतिरिक्त रूप में जो नया आ जाता है, वहीं इसमें अध्ययन का विषय होता है।

(नोट- आंगिकता या अंगांगी भाव

अंगी के अंग होते हैं, किंतु केवल अंगों का योग नहीं होता है। वह इनके अतिरिक्त भी कुछ होता है। उदाहरण के लिए रसायनिक क्रिया होने के बाद दो तत्वों से जो तीसरी चीज बनकर आती है, वह मात्र उनका मिश्रण नहीं रह जाती, जैसे-  पानी केवल ‘h2’ और ‘o’ को मिलाने पर बनने वाला ‘h2o’ ही नहीं है, बल्कि इसके अतिरिक्त भी कुछ है। सामान्य पदार्थों में भी देखा जा सकता है, जैसे- खिचड़ी केवल चावल, दाल का योग नहीं है, बल्कि इनकी संपूर्णता से निर्मित कुछ अतिरिक्त भी है। यही बात साहित्य कृति पर भी लागू होती है।)

कला प्रतीक के स्तर पर अध्ययन करने पर अर्थ की दृष्टि से प्रतीक के रूप में जो मिलता है। उसे व्यंजनात्मक प्रतीक या अर्थ कहते हैं। इस संदर्भ में निम्नलिखित बातें उल्लेखनीय हैं-

(i) पूर्णता का बोध

 कला प्रतीक के स्तर के बिना कोई रचना पूर्ण नहीं होती है। इस प्रकार कला माध्यम के रूप में मिलने वाली इकाइयों के सम्मिलन से कृति कला प्रतीक के रूप में पूर्णता को प्राप्त होती है।

(ii) स्वायत्तता

 कला प्रतीक के रूप में रचना में स्वायत्तता का गुण होता है। अर्थात कला प्रतीक के रूप में कलाकृति सर्वनिष्ठ होती है। सर्वनिष्ठ का अर्थ है- कृति का अपनी व्याख्या के लिए किसी दूसरे के संदर्भ पर निर्भर ना होना। उदाहरण के लिए भाषा में कला सामग्रीके स्तर पर पद की व्याख्या वाक्य के संदर्भ में, कला माध्यम के स्तर पर वाक्य की व्याख्या प्रोक्ति के संदर्भ में की जाती है, किंतु कला प्रतीक के स्तर पर कृति अपनी व्याख्या के लिए  स्वयं पर निर्भर होती है।

 इस प्रकार अध्ययन स्तर, उनके अध्ययन की इकाई और बनने वाले शैलीविज्ञान के प्रकारों को सूची रूप में इस प्रकार से देख सकते हैं-

  अध्ययन स्तर                अध्ययन इकाई            नाम

 कला सामग्री                         वाक्य                        भाषावैज्ञानिक शैलीविज्ञान

 कला माध्यम                      पाठ्य प्रोक्ति                  पाठशैलीविज्ञान

 कला प्रतीक                        संपूर्ण कृति                   संरचनात्मक शैलीविज्ञान

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