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Saturday, September 18, 2021

शैली और चयन (Style and choice)

 शैली और चयन (Style and choice)

भाषा हर स्तर पर अनेक विकल्प देती है और साहित्यकार हर स्तर पर चयन करता है। इसी कारण कहा गया है-

“शैली चयन है।” (style is choice)

 किंतु चयन तभी किया जा सकता है जब एक से अधिक  विकल्प उपलब्ध हों। चयन को कई बातें या चीजें प्रभावित या निर्धारित करती हैं। इस आधार पर शैली के दो भेद किए गए हैं-

·       बहिर्निष्ठ शैली

·       अंतर्निष्ठ शैली

बहिर्निष्ठ शैली

 वह शैली जिसके नियंत्रक तत्व कृति बाह्य होते हैं, बहिर्निष्ठ शैली है, जैसे- किसी लेखक की शैली संस्कृतनिष्ठ हो सकती है। अर्थात वह शैली जिसमें तत्सम शब्दों, संस्कृत संधि, समास आदि का अधिक प्रयोग प्राप्त होता है। इस प्रकार का लेखन या चयन लेखक की रूचि पर आधारित होता है। कृति से उसका कोई संबंध नहीं होता है।

 इसी प्रकार की एक और शैली युगीन शैली होती है। किसी कालावधि में सभी लेखकों की रचनाओं में दूसरे कालों से मिलने वाली विशिष्टता या समानता इसके अंतर्गत आती है। इसका भी कृति से सीधा संबंध नहीं है।

 किसी लेखक के लेखन की अपनी विशिष्टता को लेखक की शैली कहते हैं, जैसे- प्रसाद की शैली, पंत की शैली आदि।

विधा, जैसे- कविता, नाटक, निबंध, उपन्यास आदि पर आधारित शैली भी होती है, जिसे विधा शैली कहते हैं।

 उपरोक्त आधारों पर होने वाला चयन बाह्य केंद्रिक या बहिर्निष्ठ शैली के अंतर्गत आता है।

 अंतर्निष्ठ शैली

इस शैली का संबंध कृति के साथ होता है। यहाँ पर चयन कलात्मक संवेग द्वारा नियंत्रित होता है। अतः इस दृष्टि से चयन को नियंत्रित करने वाला तत्व स्वयं रचना और उसमें निहित कलात्मक संवेग है। यह शैली रचना की अपनी मांग के कारण उभरती है। अतः यह कृति की आत्मा के साथ संबंधित होती है। इस शैली में परिवृत्ति रहितता होती है। परिवृत्ति का अर्थ है- “जिसे बदला नहीं जा सकता”। पद रचना में स्थैर्य या स्थिरता का गुण होता है। अर्थात पदों को हिलाया डुलाया नहीं जा सकता।

 कृति में निहित अंतर्निष्ठ तत्व कृति के अभिव्यक्ति और कथ्य के संबंधों के बीच पाया जाता है। भाषा को साहित्य और कला से जोड़ने वाले सभी तत्वों को शैली कहते हैं। कृति में अभिव्यक्ति और कथ्य के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ा तत्व अंतर्निष्ठ शैली है। इसे अलग करके नहीं देखा जा सकता है।

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साहित्य के संदर्भ में भाषिक प्रकार्य

शैलीविज्ञान साहित्य को प्रकार्य की दृष्टि से भी देखता है। संप्रेषण की दृष्टि से भी शैलीवैज्ञानिक समीक्षा होती है, जिसमें यह देखा जाता है कि भाषिक संरचना होने के कारण कृति मूलतः एक संप्रेषण का साधन है। चाहे वह वक्ता - श्रोता के बीच हो या लेखक - पाठक के बीच, क्योंकि भाषा का प्रकार्य मूलतः संप्रेषण है।

सुप्रसिद्ध प्रकार्यवादी भाषावैज्ञानिक रोमन याकोब्सन द्वारा बताए गए भाषा के प्रकार्यों को साहित्य के संदर्भ में इस प्रकार से देख सकते हैं-

§  अभिव्यंजनात्मक (वक्ता)- यह प्रकार्य साहित्य के संदर्भ में गीतों/ गीत काव्यों में मिलता है।

§  निदेशपरक (श्रोता)- यह प्रकार्य साहित्य के संदर्भ में नाटक में अधिक मिलता है क्योंकि उसके केंद्र में कार्य (action) होता है।

§  संदर्भपरक (विषय)- साहित्य के संदर्भ में यह उपन्यास में मिलता है। इसमें दी जाने वाली सूचनाएँ सच भी हो सकती हैं और मिथ्या भी।

§  कलात्मक/ काव्यात्मक (संदेश)- रोमन याकोब्सन ने इसे Aesthetic/poetic प्रकार्य कहा है। साहित्य में कलात्मक या काव्यात्मक प्रकार्य ही मुख्य होता है।

§  तर्कपरक/  अभिधात्मक  (भाषिक विधान-code)- साहित्य में कहीं कहीं यह प्रकार्य देखने को मिलता है।

§  संबंधात्मक संपर्कपरक (सरणि-channel)-  यह वक्ता और श्रोता के बीच एक भौतिक और मानसिक स्थिति बनाने का प्रकार्य है, जिससे कि संप्रेषण हो सके या निर्बाध रूप से होता रहे।

 सामान्य संप्रेषण और साहित्यिक संप्रेषण में अंतर यह होता है कि सामान्य संप्रेषण का वक्ता (वास्तविक वक्ता) और साहित्यिक संप्रेषण का पात्र वक्ता एक नहीं होते। पात्र श्रोता भी बाह्य संसार का नहीं होता। संदेश वक्ता - श्रोता के कार्यकलापों से भी होकर निकलता है। इन सबके माध्यम से भी लेखक पाठक को संदेश देता है।

नोट :

§  पाठ भाषाविज्ञान (text linguistics) में कहा गया है- साहित्यिक पाठ पाठों का ऐसा वर्ग है, जिसका कथ्य संसार नियमतः यथार्थ संसार के साथ वैकल्पिकता की स्थिति में रहता है।

§  मार्शल मैक्लुहान (जनसंचार के गुरु) ने कहा है- Medium is message.

§  देरिदा- कोड (code), जिसे हम एक प्रकार से ठोस समझते हैं, उसका ठोसपन भी सुनिश्चित नहीं है। यह ‘play of signs.’ है। इनमें से किसी के साथ भी हम निश्चित लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकते। (Text is gas) संदर्भ के अनुसार इसके अनेक अर्थ होते हैं।

§  किसी भी प्रतीक के अर्थ को रैखिक (linear) और vertical रूप में आ सकने वाले शब्द जो अनुपस्थित भी होते हैं, प्रभावित करते हैं।

इस प्रकार, उपरोक्त सभी प्रकार्यों में देखा जाए, तो भाषा का वह प्रकार्य जहाँ संदेश ही केंद्र में होता है, काव्यात्मक प्रकार्य कहलाता है। साहित्य में यही प्रकार्य प्रमुख रूप से पाया जाता है। शैलीविज्ञान द्वारा इस बात की खोज की जाती है कि वे कौन-से कारक या तत्व हैं, जिनके कारण अन्य पाँचों को छोड़कर भाषा का यही प्रकार्य केंद्र में आ जाता है। शैलीवैज्ञानिकों द्वारा इस संबंध में अग्रप्रस्तुति और शैली चिन्हक की बात की गई है।

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