बहिर्निष्ठ शैली
वह शैली जिसके नियंत्रक तत्व कृति बाह्य होते हैं, बहिर्निष्ठ शैली है, जैसे- किसी लेखक की शैली संस्कृतनिष्ठ हो सकती है। अर्थात वह शैली जिसमें तत्सम शब्दों, संस्कृत संधि, समास आदि का अधिक प्रयोग प्राप्त होता है। इस प्रकार का लेखन या चयन लेखक की रूचि पर आधारित होता है। कृति से उसका कोई संबंध नहीं होता है।
इसी प्रकार की एक और शैली ‘युगीन शैली’ होती है। किसी कालावधि में सभी लेखकों की रचनाओं में दूसरे कालों से मिलने वाली विशिष्टता या समानता इसके अंतर्गत आती है। इसका भी कृति से सीधा संबंध नहीं है।
किसी लेखक के लेखन की अपनी विशिष्टता को लेखक की शैली कहते हैं, जैसे- प्रसाद की शैली, पंत की शैली आदि।
विधा, जैसे- कविता, नाटक, निबंध, उपन्यास आदि पर आधारित शैली भी होती है, जिसे विधा शैली कहते हैं।
उपरोक्त आधारों पर होने वाला चयन बाह्य केंद्रिक या बहिर्निष्ठ शैली के अंतर्गत आता है।
अंतर्निष्ठ शैली
इस शैली का संबंध कृति के साथ होता है। यहाँ पर चयन कलात्मक संवेग द्वारा नियंत्रित होता है। अतः इस दृष्टि से चयन को नियंत्रित करने वाला तत्व स्वयं रचना और उसमें निहित कलात्मक संवेग है। यह शैली रचना की अपनी मांग के कारण उभरती है। अतः यह कृति की आत्मा के साथ संबंधित होती है। इस शैली में परिवृत्ति रहितता होती है। परिवृत्ति का अर्थ है- “जिसे बदला नहीं जा सकता”। पद रचना में स्थैर्य या स्थिरता का गुण होता है। अर्थात पदों को हिलाया डुलाया नहीं जा सकता।
कृति में निहित अंतर्निष्ठ तत्व कृति के अभिव्यक्ति और कथ्य के संबंधों के बीच पाया जाता है। भाषा को साहित्य और कला से जोड़ने वाले सभी तत्वों को शैली कहते हैं। कृति में अभिव्यक्ति और कथ्य के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ा तत्व अंतर्निष्ठ शैली है। इसे अलग करके नहीं देखा जा सकता है।
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