शैलीवैज्ञानिक समीक्षा प्रणाली का लक्ष्य
शैलीविज्ञान का लक्ष्य काव्यकृति में निहित
सौंदर्य को उद्घाटित करना है, जो एक कलात्मक
इंद्रिय संवेग के रूप में कृति में आदि से अंत तक उपस्थित रहता है।
वस्तुनिष्ठ दृष्टि से साहित्य की साहित्यिकता का
निर्धारण करते हुए शैलीविज्ञान के पास पूरे भाषा व्यवहार को साहित्य और साहित्येतर
में बाँटने का उपकरण नहीं है। उदाहरण के लिए ‘विज्ञापन’ आदि में भी (साहित्येतर होने के बावजूद) कलात्मकता होती है। साहित्य में
भी उपलब्ध सौंदर्य के वर्गीकरण का उपकरण शैलीविज्ञान के पास नहीं है।
अतः सौंदर्यतत्व या कलातत्व भाषा व्यवहार के कुछ
क्षेत्रों में ‘साधन’ रूप में आता
है, और कुछ स्थानों पर ‘साध्य’ रूप में। जहाँ पर सौंदर्य केवल ‘साध्य’ होता है वहाँ साहित्य होता है। इसलिए साहित्येतर क्षेत्र में कला/
सौंदर्य आता तो है, किंतु साधन के रूप में। साहित्य में ही
वह साध्य होता है।
साहित्य में निहित कलात्मक/इंद्रिय संवेग ही
रचना की विषयवस्तु को काव्यवस्तु बना देता है। जैसा कि पंडित जगन्नाथ ने कहा है-
“रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्।”
(अर्थात रस से युक्त वाक्य काव्य है)
इसकी व्याख्या हम इस प्रकार से भी कर
सकते हैं कि वाक्य को काव्य में रूपांतरित करने वाला तत्व ‘रस’ (सौंदर्य /कला) है।
रसात्मकता इंद्रियों का विषय है। उदाहरण के लिए स्वाद
(कटु/मधुर) जिह्वा का विषय है, किंतु कुछ प्रयोगों में
हम इंद्रिय अनुभवों, जैसे- मिठास,
कड़वापन आदि का विस्तार हम स्वादबोध से इतर व्यवहारों में कर देते हैं, जैसे-
उनके संबंध बहुत कटु हैं।
उनके संबंध बहुत मधुर हैं।
यहाँ स्वाद नहीं बल्कि उसकी अनुभूति
का विस्तार है। इसी प्रकार ‘सौंदर्य’ आँख के अनुभव का विस्तार है।
इस दृष्टि से सौंदर्यशास्त्र उस
इंद्रिय संवेग के अध्ययन का शास्त्र है, जो
सौंदर्य के लक्षण से नियंत्रित रहता है। इंद्रिय संवेग वे संवेग हैं, जो सौंदर्य का प्रभाव उत्पन्न करते हैं।
शैलीविज्ञान का लक्ष्य ‘कथ्य और अभिव्यक्ति’ (वाच्य और वाचक) के संबंधों की
प्रकृति के आधार पर काव्यकृति में निहित सौंदर्य का अध्ययन एवं उद्घाटन करना है।
साहित्य में सौंदर्य कथ्य और अभिव्यक्ति के संबंधों में होता है। इनके ये संबंध
भाषा में मूल रूप में (basically) यादृच्छिक होते हैं, किंतु साहित्यिक क्षेत्र में ये संबंध उस रूप में होते हैं कि कृति में
कलात्मक संवेग हो। इस प्रकार साहित्य में ये संबंध सोदेश्य होते हैं।
इंद्रिय संवेगों के अनुभव का पहला चरण
जैविक है। प्रत्येक मनुष्य में इंद्रिय संवेदनाएँ जैविक स्तर पर मौजूद होती हैं।
इन्हें अनुभव करने में प्रत्येक व्यक्ति सक्षम होता है।
अतः हमारे सामने दो संसार बन जाते हैं-
(क) यथार्थ संसार
वह संसार जो भौतिक रूप में हमें दिखाई
पड़ता है, यथार्थ संसार है। हम अपना जीवन इसी में व्यतीत करते हैं। यथार्थ संसार के
अनुभव जैविक अनुभव होते हैं, जैसे- स्पर्श, स्वाद आदि।
(ख) काव्य संसार
इसमें भाषा एक भिन्न स्तर लाकर खड़ा कर देती है, जहाँ वास्तविक अनुभूति के बजाए केवल मानसिक बोध होते हैं। वे बोध भाषायी
सामग्री (पाठ) को पढ़ने या देखने/सुनने से उत्पन्न होते हैं।
भाषा अमूर्त रूप में वास्तविक संसार के अनुभवों का अपनी तरह से प्रस्तुत करती है, जैसे- व्याकरण में sex और gender (भौतिक लिंग और व्याकरणिक लिंग) का अंतर इसी प्रकार का है। sex का अंतर जैविक होता है, किंतु gender उसका बोधात्मक रूप है। दोनों के बीच बोधात्मक अंतर हो सकता है, जैसे- ‘पत्थर’ पुल्लिंग है और
‘शिला’ स्त्रीलिंग। ये दोनों ही वस्तुएँ
वास्तविक संसार में जैविक दृष्टि से एक ही हैं, किंतु इनका
भाषा में बोधात्मक रूप अलग-अलग है।
इसी प्रकार ‘समय’ (time) और ‘काल’ (tense)भी देख सकते हैं। ‘काल’ यथार्थ से बिल्कुल भिन्न है। केवल उसका भाषाई बोध होता है, जिसका निर्धारण उक्ति के समय से किया जाता है।
इसी प्रकार साहित्य में इंद्रिय संवेग ‘जैविक इंद्रिय संवेग’ के रूप में नहीं होते, केवल बोधात्मक रूप में होते हैं। यहाँ पर संवेदनात्मक अनुभूति नहीं होती, संवेदनात्मक बोध होता है। अतः साहित्य के संदर्भ में ‘सौंदर्य’ भाषा के माध्यम से प्राप्त होने वाले
सौंदर्य का बोध है।
शैलीविज्ञान के कुछ आलोचकों के अनुसार
शैलीविज्ञान ‘सौशब्द्य’ या ‘सुशब्दता’ की खोज करता है,
किंतु भाषाविज्ञान जब सौंदर्य की बात करता है, तो यह शब्द के
स्तर पर लालित्य/ सौंदर्य की बात नहीं होती, यह तो पूरी कृति
से उभरकर आने वाली कला कोटि के सौंदर्य की बात होती है।
शैलीवैज्ञानिक दृष्टि से साहित्य का अर्थ ‘भाषा द्वारा झेला गया सौंदर्य’ या ‘भाषाबद्ध सौंदर्य’ (beauty caughten
language) होता है। इसे समझने के लिए दूसरी कलाओं के उदाहरणों में हम
‘ताजमहल’ को (beauty caughten
stone) और किसी पेंटिंग को (beauty caughten colour) कह सकते हैं।
नोट- अध्ययन में स्तर-भेद
किसी भाषिक इकाई का अध्ययन
भिन्न-भिन्न प्रसंगों में, प्रयोजन या संदर्भ में
अलग-अलग प्रकार से किया जाता है। अतः विश्लेषण में यह ध्यान रखा जाता है कि किस
स्तर के विश्लेषण की बात की जा रही है। इसी कारण शैलीवैज्ञानिक अध्ययन में स्तर-भेद
की संकल्पना की गई है। इसे ‘आ’ के
प्रयोग के एक भाषावैज्ञानिक विश्लेषण से समझ सकते हैं। इसका भाषाविज्ञान में तीन
स्तरों- ध्वनि, रूप और वाक्य पर अध्ययन इस प्रकार से किया जा
सकता है-
ध्वनि की दृष्टि से - स्वनिम, स्वर
पद /शब्दरूप की दृष्टि से - क्रियापद
वाक्य की दृष्टि से - एक वाक्य या अल्पांग वाक्य
अतः अध्ययन के स्तर दृष्टिकोण के आधार
पर किसी वस्तु का स्वरूप बदल जाता है।
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