संज्ञान और भाषा (भाषा अर्जन, भाषा अधिगम, भाषा बोधन और भाषा उत्पादन में संज्ञान की भूमिका)
संज्ञान और भाषा के संबंध में कहा जा
सकता है कि संज्ञान वह आधारभूत इकाई है जिसमें भाषा का अस्तित्व होता है या जिसके
लिए भाषा की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार भाषा
वह माध्यम है जिसके द्वारा संज्ञान की युक्तियां
सफलतापूर्वक संचालित होती हैं। संज्ञान नामक युक्ति
सभी प्राणियों में किसी न किसी रूप में पाई जाती है। सभी प्राणी वही संसार के साथ
अपने अपने स्तर से अंतर क्रिया करते हैं, जिसके पीछे संज्ञान की शक्ति ही काम करती है। अतः
कहा जा सकता है कि उन सभी के पास उद्दीपन और अनु क्रियाओं के लिए निर्मित भाषा
जैसी संकेत व्यवस्था होती है। संकेत व्यवस्था का
सर्वोत्तम रूप मानव भाषा के रूप में निकल कर सामने आता है अतः जब हम संज्ञान और
भाषा की बात करते हैं तो मूलतः मानव संज्ञान को केंद्र
में रखकर ही करते हैं। इसमें हम यह देखने का प्रयास
करते हैं कि मानव प्राणियों में संज्ञान की युक्तियां किस प्रकार से काम करती हैं
उनमें भाषा की क्या भूमिका होती है? तथा भाषा संबंधी
क्रियाकलापों के संपादन में संज्ञान की युक्तियां किस प्रकार प्रभावी होती हैं?
भाषा के संबंध में संज्ञान की स्थिति
को 'भाषा अर्जन, भाषा अधिगम, भाषा
बोधन और भाषा उत्पादन' आदि में संज्ञान की भूमिका
की दृष्टि से देखा जा सकता है। इनमें
भाषा अर्जन की दृष्टि से संज्ञान की भूमिका पर अनेक विद्वानों द्वारा काम किया गया
है जिनमें पियाजे का नाम उल्लेखनीय है उनके द्वारा बताए गए भाषा विकास के चरणों और
संज्ञान को हम आगे देखेंगे।
भाषा अर्जन में
संज्ञानात्मक युक्तियों की विशेष भूमिका होती है। बिना संज्ञानात्मक युक्तियों का
प्रयोग किए मानव शिशु द्वारा भाषा अर्जन संभव नहीं है। एक और संज्ञान भाषा अर्जन को संभव बनाता है तो दूसरी ओर भाषा संज्ञान की
सभी युक्तियों को अपने सर्वोच्च रूप में कार्य करने के लिए संकेतों की व्यवस्था
प्रदान करती है। अतः भाषा और संज्ञान दोनों एक दूसरे
के पूरक हैं।
भाषा अधिगम की दृष्टि
से संज्ञान पर विचार किया जाए तो हम जानते हैं कि भाषा अधिगम भाषा अर्जन के बाद की
प्रक्रिया है। मानव शिशु सर्वप्रथम अपने समाज या
परिवेश से अपनी मातृभाषा का अर्जन कर लेता है और उनमें वह सुनना तथा बोलना
स्वाभाविक रूप से सीख लेता है। जब औपचारिक रूप से भाषा
शिक्षण किया जाता है तो वह अपनी मातृभाषा या प्रथम भाषा के संदर्भ में लेखन और पठन
कौशलों का विकास करता है तथा अपनी भाषा क्षमता मेंं विविध ज्ञान क्षेत्रों या
ज्ञान विज्ञान की दृष्टि से अभिवृद्धि करता है। अतः भाषा अधिगम के माध्यम से
संज्ञानात्मक युक्तियों की क्षमता का परिमार्जन होता है अर्थात वह अपने प्रारंभिक
रूप से अधिक सक्षम हो जाती हैं।
जब द्वितीय भाषा या
तृतीय भाषा या विदेशी भाषा आदि का अधिगम होता है तो उसे संज्ञान संबंधी क्षमता पर कोई बहुत अधिक प्रभाव नहीं पड़ता। संकेतों की व्यवस्था से संबंधित इकाई का परिवर्धन हो जाता है कि अपनी बात
को कहने के लिए संकेतों की एक प्रणाली के बजाए व्यक्ति के पास एक से अधिक
प्रणालियां उपलब्ध हो जाती हैं। उदाहरण के लिए यदि कोई
हिंदीभाषी व्यक्ति अंग्रेजी भी सीख लेता है तो वह संज्ञानात्मक दृष्टि से कोई नया
कौशल नहीं प्राप्त कर लेता बल्कि अपनी बात को अभिव्यक्त करने के लिए एक दूसरी
संकेत व्यवस्था भी प्राप्त कर लेता है। संज्ञान का संबंध बाह्य संसार के साथ अंतर
क्रिया से है जैसे प्यास लगने पर पानी मांगना। यदि
व्यक्ति को केवल हिंदी ही आती है तो वह केवल हिंदी में पानी मांगेगा, अंग्रेजी फ्रेंच जर्मन जापानी आदि सीख लेने पर उन भाषाओं में भी मांग
लेगा। अतः भाषा की दृष्टि से उसके पास विकल्पों में वृद्धि हो जाएगी पानी मांगने
की क्षमता में कोई वृद्धि नहीं होगी।
भाषा बोधन और भाषा
उत्पादन के संदर्भ में संज्ञान
संज्ञान का मूल संबंध
बाह्य संसार के ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से बोधन और उनके प्रति अनुक्रिया से है।
भाषा इसमें एक नई (layer) प्रदान कर
देती है जहां बाह्य संसार के अनुभव के आधार पर मन में एक अमूर्त आर्थी संसार (semantic
world) निर्मित हो जाता है। इस आर्थी संसार को हम संज्ञानात्मक
संसार (cognitive world) भी कह सकते हैं। वर्तमान में तकनीकी अनुप्रयोग के क्षेत्र में इस संसार को विश्लेषण करने
के विभिन्न प्रयास किए गए हैं जिन्हें हम ज्ञान निरूपण/ प्रतिरूपण (Knowledge
Representation) के नाम से जानते हैं।
भाषा अपने प्रतीकों की व्यवस्था और
अमूर्त संकल्पना ओं के माध्यम से जो संसार निर्मित करती है उससे हमें यह सुविधा हो
जाती है कि कोई व्यक्ति स्वयं से संबंधित अपने विचारों भाव या सूचनाओं को भाषाई
प्रतीकों की ध्वन्यात्मक व्यवस्था में बांधकर दूसरे व्यक्ति तक पहुंचा सकता है।
भाषाई प्रतीकों की व्यवस्था के इसी समस्या को संरचना की दृष्टि से वाक्य कहते हैं।
वाक्य ध्वनि प्रतीकों का वह सबसे छोटा व्यवस्थित समुच्चय है जिसमें कम से कम एक
सूचना रहती है। इस स्तर पर संज्ञान का काम ( श्रोता की दृष्टि से) उन प्रतीकों में
छुपी सूचना को डिकोड करना, और वक्ता की दृष्टि से मन
में उठने वाले विचारों, भावों या सूचनाओं को ध्वनि प्रतीकों
में इनकोड करना होता है। अतः इन दोनों में ही संज्ञान की आधारभूत भूमिका होती है।
बिना संज्ञान के इनमें से किसी भी प्रक्रिया का संपन्न होना संभव
नहीं है।
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