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https://hindivishwa.org/LOCF/Department_of_Linguistics_And_Language_Technology.pdf
प्रोफेसर, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा
Professor, Kendriya Hindi Sansthan, Agra
(Managing Director : Ms. Ragini Kumari)
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http://www.mgahv.in/pdf/gen/gen2019/BEST_practice_of_university_27_11_2019.Pdf
प्रोफेसर, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा
Professor, Kendriya Hindi Sansthan, Agra
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(1)
भाषा नियोजन क्या है? (What is
Language Planning)
(2)
स्थिति नियोजन (Status planning)
(3)
अर्जन नियोजन (Acquisition
planning)
(5) भाषा नियोजन के समस्या क्षेत्र
(6) भाषा नियोजन : समाजभाषाविज्ञान का अनुप्रयुक्त पक्ष
(7) बहुभाषिकता और भाषा नियोजन की आवश्यकता
(8) भाषा नियोजन और शिक्षा की भाषा
(9) भाषा नियोजन और कार्यालय कामकाज की भाषा
(10) भाषा नियोजन और मातृभाषा संरक्षण
(11) भाषा नियोजन पर वैश्वीकरण का प्रभाव
(12) भाषा नियोजन और मीडिया
(13) भारत में भाषा नियोजन
(14) भारत में भाषा नियोजन और हिंदी
(15) भारत में भाषा नियोजन और शिक्षा नीतियाँ
संदर्भ (References):
प्रोफेसर, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा
Professor, Kendriya Hindi Sansthan, Agra
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भाषा व्यवहार और मानकीकरण
भाषा
एक परिवर्तनशील वस्तु है। वह न केवल समय के साथ बदलती है, बल्कि स्थान के अनुसार भी बदल जाती है, क्योंकि प्रत्येक भाषा को उसके बोलने वाले लोगों की स्थानीय बोलियाँ या
मातृभाषाएँ प्रभावित करती है। इस कारण भाषा के रूप में विविधता देखने को मिलती है।
यह विविधता इतनी अधिक नहीं होती कि एक रूप बोलने वाले लोग दूसरे रूप बोलने वाले
लोगों के साथ संप्रेषण न कर पाएँ, किंतु जब उस भाषा के
द्वितीय भाषा या अन्य भाषा के रूप में शिक्षण की बात आती है,
तो वहाँ पर एक मानक रूप की आवश्यकता पड़ती है। अतः संबंधित संस्थाओं या सरकार
द्वारा समय-समय पर भाषा व्यवहार के रूपों का मानकीकरण किया जाता है।
जब किसी शब्द वाक्य प्रयोग के एक से अधिक रूप
प्रचलित हो जाते हैं तो उनमें से किसी एक रूप को मानक तथा दूसरे को अमानक घोषित कर
दिया जाता है। यही प्रक्रिया मानकीकरण की प्रक्रिया कहलाती है।
भारत सरकार तथा उसके अंतर्गत वैज्ञानिक एवं
तकनीकी शब्दावली निर्माण आयोग द्वारा हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि का मानकीकरण
समय-समय पर किया जाता है। इस मानकीकरण के अनुसार निम्नलिखित प्रयोग अमानक हैं-
§ भाषाएं
§ कमियां
§ खाएं
§ खायिये
§ आयी
§ हिन्दी
§ पम्प
§ पण्डित
इनकी जगह इन के निम्नलिखित रूपों को मानक माना
जाता है-
§ भाषाएँ
§ कमियाँ
§ खाएँ
§ खाइए
§ आई
§ हिंदी
§ पंप
§ पंडित
प्रोफेसर, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा
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हिंदी और मानकीकरण के विविध संदर्भ
जब
किसी शब्द वाक्य प्रयोग के एक से अधिक रूप प्रचलित हो जाते हैं तो उनमें से किसी
एक रूप को मानक तथा दूसरे को अमानक घोषित कर दिया जाता है। यही प्रक्रिया मानकीकरण
की प्रक्रिया कहलाती है।
भारत सरकार तथा उसके अंतर्गत वैज्ञानिक एवं
तकनीकी शब्दावली निर्माण आयोग द्वारा हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि का मानकीकरण
समय-समय पर किया जाता है। इस मानकीकरण के अनुसार निम्नलिखित प्रयोग अमानक हैं-
§ भाषाएं
§ कमियां
§ खाएं
§ खायिये
§ आयी
§ हिन्दी
§ पम्प
§ पण्डित
इनकी जगह इन के निम्नलिखित रूपों को मानक माना
जाता है-
§ भाषाएँ
§ कमियाँ
§ खाएँ
§ खाइए
§ आई
§ हिंदी
§ पंप
§ पंडित
2016 में प्रकाशित मानक हिंदी वर्तनी संबंधी
पुस्तिका को इस लिंक पर देख सकते हैं-
https://lgandlt.blogspot.com/2020/08/2016.html
निम्नलिखित
लिंक पर ‘15.5.3 हिंदी का
मानकीकरण’ शीर्षक के अंतर्गत इससे संबंधित और
जानकारी प्राप्त की जा सकती है-
प्रोफेसर, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा
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वैश्वीकरण के दौर में हिंदी
निम्नलिखित
लिंक पर ‘15.5.4 विश्वभाषा
हिंदी’ शीर्षक के अंतर्गत इससे संबंधित और जानकारी
प्राप्त की जा सकती है-
हिंदी का अधुनिक विकास
और संवैधानिक स्थिति
और अधिक
जानकारी के लिए निम्नलिखित लिंक पर जाकर पृष्ठ 371 से ‘हिंदी का वैश्विक रूप’
शीर्षक इकाई की सामग्री देखें-
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Professor, Kendriya Hindi Sansthan, Agra
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बहुभाषिकता के विविध आयाम
किसी
एक भाषायी समाज में एक से अधिक भाषाओं का प्रचलन होना बहुभाषिकता कहलाता है।
उदाहरण के लिए मराठी भाषी समाज में मराठी, हिंदी और अंग्रेजी तीनों भाषाओं के व्यवहार के स्थिति का पाया जाना
बहुभाषिकता है। बहुभाषिकता के अंतर्गत द्विभाषिकता की स्थिति भी आती है जिसका
संबंध किसी भाषा ही समाज में दो भाषाओं के व्यवहार से है। उदाहरण के लिए हिंदी
भाषी समाज में हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं का व्यवहार होना द्विभाषिकता है, जो बहुभाषिकता का ही एक प्रकार है।
जब किसी समाज में एक से अधिक भाषाओं का व्यवहार
होता है, तो संप्रेषण और
अनुप्रयोग की दृष्टि से कुछ विचारणीय पक्ष उपस्थित हो जाते हैं। ये पक्ष या आयाम
भाषावैज्ञानिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक विविध प्रकार के होते हैं। इनमें से कुछ प्रमुख को निम्नलिखित
प्रकार से देख सकते हैं-
1. भाषा और बोली के संदर्भ में
बहुभाषिकता
कुछ ऐसी भाषाएँ भी देखने को मिलती हैं, जो किसी अपने से बड़ी भाषा की बोली होती हैं।
ऐसी स्थिति में यह निर्धारित करना एक महत्वपूर्ण आयाम होता है कि उस स्थिति को
बहुभाषिकता माना जाए या न माना जाए। उदाहरण के लिए भोजपुरी भाषी समाज में ‘भोजपुरी और हिंदी’ का प्रचलन होना बहुभाषिकता या
द्विभाषिकता है या नहीं है, का निर्धारण एक महत्वपूर्ण पक्ष
है। सामाजिक, राजनीतिक दृष्टि से भोजपुरी हिंदी की एक बोली
है, जबकि भाषावैज्ञानिक दृष्टि से यह एक स्वतंत्र भाषा है।
भाषावैज्ञानिक दृष्टि से यहाँ बहुभाषिकता है, जबकि सामाजिक, राजनीतिक दृष्टि से निर्धारित मानदंडों के अनुसार बहुभाषिकता नहीं है।
2. एक से अधिक भाषाओं के प्रचलन की
स्थिति में प्रथम भाषा, द्वितीय भाषा और तृतीय भाषा का
निर्धारण
जब किसी भाषायी समाज में एक से अधिक भाषाएँ
प्रचलित होती हैं, तो कई बार यह निर्धारित करना कठिन हो जाता है कि
उस भाषायी समाज में द्वितीय भाषा और तृतीय भाषा किसे माना जाए। उदाहरण के लिए
कन्नड़ भाषी समाज में कन्नड़ प्रथम भाषा
है, किंतु उसके अलावा ‘हिंदी और
अंग्रेजी’ का वहाँ व्यवहार होता है। ऐसी स्थिति में
राष्ट्रीय जुड़ाव के संदर्भ में ‘हिंदी’ द्वितीय भाषा होगी और अंग्रेजी तृतीय भाषा, जबकि
वास्तविक व्यवहार की दृष्टि से अंग्रेजी वहाँ द्वितीय भाषा है तथा हिंदी तृतीय
भाषा है। कई मामलों में मराठी भाषी समाज में भी अंग्रेजी द्वितीय भाषा तथा हिंदी
तृतीय भाषा के रूप में दिखाई पड़ती है, किंतु सामाजिक, सांस्कृतिक दृष्टि से हिंदी द्वितीय भाषा और अंग्रेजी तृतीय भाषा मानी
जाएगी।
3.
विदेशी भाषा का द्वितीय भाषा के रूप में प्रचलन
विदेशी भाषा वह भाषा होती है, जो उस देश के किसी भी भाषायी समाज की भाषा
नहीं होती किंतु ऐतिहासिक पृष्ठभूमि या विभिन्न कारणों से वह भाषा किसी दूसरे देश
की भाषायी समाज में इतनी अधिक घुलमिल जाती है कि वह वहाँ की द्वितीय भाषा बन बैठती
है। भारत में अंग्रेजी की ऐसी ही स्थिति है ।
4.
भाषाओं की व्यवहारिक स्थिति का निर्धारण
जब किसी भाषायी समाज में एक से अधिक भाषाएँ
प्रचलित हो जाती हैं तो किस परिवेश में या किस प्रयोजन के लिए कौन-सी भाषा का
प्रयोग करना होगा? इसका निर्धारण भी एक
महत्वपूर्ण पक्ष बन जाता है।
...
बहुभाषिकता के संदर्भ में इसी प्रकार के कुछ आयाम विचारणीय होते हैं।
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भाषा और कोड (Language and code)
जब
किसी वस्तु या कार्य को अभिव्यक्त करने के लिए उसके स्थान पर किसी सूचक चिह्न का
प्रयोग किया जाता है, तो सूचक चिह्न को उस वस्तु
का कोड कहते हैं। उदाहरण-
§ दौड़ प्रतियोगिता में – ‘3,2,1, गो बोलना या बंदूक से फायर करना’ एक कोड है, जिसके बाद धावक स्वयं दौड़ने लगते हैं।
§ यातायात चौराहों पर लाल, पीली, हरी बत्तियाँ या
दाएँ-बाएँ, ब्रेकर आदि के निशान।
§ सेना में किसी कार्य के लिए पहले से
निर्धारित संकेत।
§ सामान्य व्यवहार में भी एक-दूसरे को
किए जाने वाले इशारे। आदि।
ध्वनि
प्रतीकों से निर्मित भाषा रूप (language
form) भी इसी प्रकार का एक कोड है। यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि
भाषा दो प्रकार की चीजों का समुच्चय है-
भाषा
में अर्थ (कथ्य) को अभिव्यक्त करने के लिए ‘रूप’ (ध्वनि) का प्रयोग किया जाता है, जैसा कि ऊपर ‘गाय’ और ‘कुर्सी’ के उदाहरण में दिखाया गया है। इसमें चित्र
में दी गई चीजें कथ्य (अर्थ) हैं, जबकि ‘गाय’ और ‘कुर्सी’ रूप (ध्वनि प्रतीक) हैं। अतः यहाँ दो कोड हैं-
‘गाय’ और ‘कुर्सी’
हिंदी
भाषा इसी प्रकार के कोडों और उनकी व्यवस्था का समुच्चय है। अंग्रेजी एक दूसरा कोड
है, उसमें भी कथ्य (अर्थ)
वही रहेगा, किंतु रूप (ध्वनि प्रतीक) बदल जाएँगे, अर्थात कोड बदल जाएँगे। इन्हीं अर्थों के लिए अंग्रेजी के कोड इस प्रकार
होंगे-
‘cow’ &
‘chair’
यही
बात सभी भाषाओं पर लागू होती है। इसी कारण समाजभाषाविज्ञान कहते हैं-
“प्रत्येक भाषा रूप एक कोड है।”
अतः
मान लिया- हिंदी एक कोड है। उस भाषा रूप (कोड) के भी व्यवहार संबंधी कई विभेद पाए
जाते हैं, जिनका वर्गीकरण
भिन्न-भिन्न प्रकार से किया जाता है, जैसे- ‘औपचारिक, अनौपचारिक, आत्मीय,
कार्यालयी’ अथवा ‘भाषा,
विभाषा, बोली’ आदि।
‘कोड’ समाजभाषावैज्ञानिकों द्वारा मानव भाषाओं के लिए
दिया गया एक शब्द है। मानव भाषाओं के लिए भाषाविज्ञान में अनेक शब्द, जैसे- भाषा, बोली, उपभाषा आदि
शब्द प्रचलित हैं। इनके बीच बनाए गए अंतर भाषिक दृष्टि से न होकर सामाजिक और
राजनीतिक दृष्टि से होते हैं। भाषा ध्वनि प्रतीकों की एक व्यवस्था है जिसके माध्यम
से संप्रेषण किया जाता है। हम बोलते और सुनते तो हैं ध्वनि प्रतीकों को, किंतु संप्रेषण 'अर्थ' का होता
है। अर्थ का संप्रेषण कराने वाले यही ध्वनि प्रतीक 'कोड'
कहलाते हैं। चूंकि स्थूल रूप में भाषा द्वारा ही यह कार्य किया जाता
है, इसलिए भाषा को ही कोड कहते हैं। कोड एक व्यापक अवधारणा
है। इसके अंतर्गत संप्रेषण को संभव बनाने वाली प्रत्येक प्रतीक व्यवस्थाआ जाती है।
प्रत्येक
कोड का अपना प्रकार्य (function) होता है। कोड
पर शोध करते हुए यह देखना आवश्यक है कि कोड परिवर्तन क्यों किया जा रहा है। उसका
कारण क्या है, जैसे-
Clear
करने के लिए, अश्लील रूपों को छुपाने के लिए,
prestige के लिए, बार बार सुनने से आदत पड़ गई
हो।
एक
शोध-
उच्च
वर्ग के लोगों की तुलना में मध्य वर्ग के लोगों द्वारा हिंदी में अंग्रेजी का
प्रयोग अधिक किया जाता है।
प्रोफेसर, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा
Professor, Kendriya Hindi Sansthan, Agra
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कोड मिश्रण और कोड परिवर्तन (Code mixing and Code switching)
प्रत्येक
मानव भाषा एक कोड है। देखें-
http://lgandlt.blogspot.com/2017/08/language-and-code.html?m=1
मानव
भाषाओं के ध्वनि प्रतीकों के माध्यम से संप्रेषण किया जाता है। आदर्श रूप में यही
संभावना की जाती है कि किसी व्यक्ति द्वारा एक प्रकार के संप्रेषण के लिए एक ही
भाषा (कोड) का प्रयोग किया जाएगा। किंतु सदैव ऐसा नहीं होता। वर्तमान बहुभाषी
परिदृश्य में तो ऐसा करना धीरे-धीरे असंभव हो गया है। सामन्यतः लोग कोई बात कहते
हुए एक भाषा के वाक्य में दूसरी भाषा के शब्दों का प्रयोग कर ही देते हैं, जैसे-
§ मैं संडे को मार्केट जाऊँगा।
इसमें
हिंदी वाक्य में अंग्रेजी शब्दों का कोड मिश्रण है।
जब
एक वाक्य के अंदर ही दूसरी भाषा के शब्दों का प्रयोग होता है तो उसे कोड मिश्रण और
जब एक भाषा कोई वाक्य बोलने या लिखने के अगला पूरा वाक्य दूसरी भाषा का होता है तो
इसे कोड परिवर्तन कहते हैं। जैसे-
§ आपका काम हो गया, यू कैन गो नाउ.
में
कोड परिवर्तन है।
कोड
मिश्रण और आगत शब्द (code mixing
and borrowed words)
कोड
मिश्रण के संदर्भ में ध्यान देने वाली बात है कि दूसरी भाषा के शब्द के लिए प्रथम
(मूल) भाषा में शब्द होने के बावजूद दूसरी भाषा के शब्द का प्रयोग कोड मिश्रण है, जैसे-
§ टेबल पर से मेरी पेन गिर गई।
इसमें
टेबल और पेन का प्रयोग कोड मिश्रण है,
किंतु दूसरी भाषा के शब्द के लिए प्रथम (मूल) भाषा में शब्द नहीं
होने पर दूसरी भाषा के शब्द का प्रयोग कोड मिश्रण नहीं है, जैसे-
§ मैंने स्टेशन से टिकट खरीदा।
इसमें
स्टेशन और टिकट का प्रयोग कोड मिश्रण नहीं है,
बल्कि ये हिंदी में प्रयुक्त होने वाले अंग्रेजी के आगत शब्द हैं।
कोड
मिश्रण के विश्लेषण में वक्ता का अभिमत,
intention, वक्ता श्रोता संबंध, विषय की
गंभीरता, समाज-सांस्कृतिक परिवेश आदि सबका ध्यान रखा जाता
है। केवल पाठ में दूसरी भाषा के शब्दों को गिना देना पर्याप्त नहीं है।
पुराना लेख पढ़ें- https://lgandlt.blogspot.com/2017/08/code-mixing-and-code-switching.html
प्रोफेसर, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा
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पिजिन और क्रियोल (Pidgin and Creole)
पिजिन
(Pidgin)
जब
दो या दो से अधिक भिन्न भाषाओं के लोग व्यापार आदि उद्देश्य के लिए किसी स्थान पर
मिलते हैं और उनके मिलने से उनकी भाषाओं के संयोग (combination) से एक मिश्रित भाषा विकास होता है, तो उस भाषा को ‘पिजिन’ कहते हैं। जब एक से अधिक भाषाओं के लोग
व्यापार आदि सामान्य उद्देश्यों के लिए मिलते हैं तो सीमित मात्रा में शब्दावली (vocabulary)
तथा व्याकरणिक प्रयोगों का सम्मिश्रण करते हुए परस्पर संप्रेषण करते
हैं। इस प्रकार धीरे-धीरे एक नई मिश्रित भाषा का विकास हो जाता है। उस नई भाषा को
ही पिजिन कहते हैं।
अतः
पिजिन संप्रेषण की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए भाषाओं के मिश्रण से विकसित
नवीन भाषा रूप है। यह एकाधिक व्यक्तियों या समूहों के बीच किसी क्षेत्र विशेष में
प्रयोग में आता है। जिस भी व्यक्ति को उस क्षेत्र विशेष में व्यापार आदि करना होता
है उसे इस पिजिन का ज्ञान होना आवश्यक होता है। चूँकि पिजिन किसी की मातृभाषा नहीं
होती, इस कारण लोग उसे
द्वितीय भाषा के रूप में सीखते हैं।
पिजिन
के विकास की पृष्ठभूमि उपनिवेशवादी काल से जुड़ी हुई है, जब व्यापार के लिए पुर्तगाली, डच, फ्रेंच, अंग्रेज आदि लोग
विभिन्न देशों में गए तथा वहाँ इनके और स्थानीय लोगों/व्यापारियों के साथ मिलने से
नई-नई भाषाओं का विकास हुआ।
क्रिओल
(Creole)
पिजिन
ही जब किसी समूह या समुदाय की मातृभाषा बन जाती है तो वह क्रिओल कहलाने लगती है। जब
किसी स्थान पर लंबे समय तक व्यापार चलता है तो कुछ लोग वहाँ जीवन-यापन व्यापार आदि
में सुविधा की दृष्टि से बस जाते हैं। ऐसी स्थिति में उनके बच्चे उस पिजिन को ही
अपनी मातृभाषा के रूप में सीखते हैं। अतः इन लोगों की मातृभाषा होने के साथ ही वह
भाषा क्रिओल बन जाती है।
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भाषा द्वैत (Diglossia)
जब
किसी भाषा के एक से अधिक रूप उसी भाषायी समाज में प्रचलित हो जाते हैं तो इस
स्थिति को भाषा द्वैत कहते हैं। यह स्थिति किसी भाषा के दो बोली रूपों या भाषा
रूपों में हो सकती है। जब किसी भाषा के ऐसे दो रूप विकसित हो जाते हैं तो उन्हें
सामान्यतः ‘उच्च’ और ‘निम्न’ के रूप में
अलग-अलग दर्शाया जाता है। इन्हें इस प्रकार से दिखा सकते हैं-
§ उच्च ("H" or "high")
§ निम्न ("L" or "low")
इन
रूपों के प्रयोग क्षेत्रों में अंतर होता है-
§ उच्च ("H" or "high") रूप के प्रयोग
क्षेत्र – इस रूप
का प्रयोग विशिष्ट प्रयोजन, औपचारिक शिक्षा, साहित्य आदि क्षेत्रों में होता है। सामान्य बातचीत या व्यवहार में
सामान्यतः इस रूप का प्रयोग नहीं होता।
§ निम्न ("L" or "low") रूप के प्रयोग क्षेत्र – इस रूप का प्रयोग सामान्य
बातचीत या व्यवहार में प्रयोग होता है। विशिष्ट प्रयोजन, औपचारिक शिक्षा, साहित्य
आदि क्षेत्रों में इसका प्रयोग नहीं होता।
यूरोपीय
भाषाओं में ‘उच्च जर्मन’ और ‘निम्न जर्मन’ इसका उदाहरण
है। इसी प्रकार भारतीय भाषाओं में ‘बंगाली’ में ‘साधु बंगाली’ और ‘चालित बंगाली’ को भी देखा जा सकता है। कुछ विद्वान ‘संस्कृतनिष्ठ हिंदी’ और ‘हिंदुस्तानी’ को भी इसी प्रकार से देखते हैं। वर्तमान संदर्भ में ‘विशुद्ध हिंदी’ और ‘हिंग्लिश’ को इसी प्रकार से देखा जा सकता है, यद्यपि यह अन्य
भाषा के प्रभाव से विकसित रूप है।
प्रोफेसर, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा
Professor, Kendriya Hindi Sansthan, Agra
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