अनुस्वार ( ं) एवं अनुनासिकता ( ँ )
अनुस्वार और अनुनासिकता दोनों ही नासिक्य ध्वनियाँ हैं। परंतु दोनों ध्वनियों में अंतर है। जहाँ अनुस्वार पंचमाक्षर है अर्थात् वर्गीय ध्वनियों का पंचम वर्ण ङ्, ञ, ण, न, म है, वहीं अनुनासिक ध्वनि स्वतंत्र ध्वनि नहीं है बल्कि वह किसी न किसी स्वर के साथ ही प्रयुक्त होती है। अनुनासिक ध्वनियों के उच्चारण के समय मुखविवर में कोई अवरोध नहीं होता केवल इसके उच्चारण के समय वायु नासिका व मुखविवर दोनों मार्गों से निकलती है। अतः अनुनासिक में स्वनिमिक गुण होता है। जबकि अनुस्वार स्वतंत्र व्यंजन ध्वनि है। अनुस्वार का चिह्न ( ं ) है तथा अनुनासिक का ( ँ ) है। इनके भेद से अर्थ भेद संभव है। जैसे- हंस - हँस, अंगना - अँगना आदि में जहाँ ‘हंस’ पक्षी है, वहीं हॅंस का अर्थ हॅंसना धातु से है, अंगना का अर्थ जहाँ सुंदर स्त्री है, वहीं 'अँगना' का अर्थ आँगन है।
5. हल्
हिंदी में हल् चिन्हों का प्रयोग अब धीरे-धीरे कम हो रहा है। क्योंकि हल् चिन्हों का प्रयोग कहाँ करें और कहाँ न करें ? क्या केवल तत्सम शब्दों में ही हल् चिन्हों का प्रयोग किया जाना चाहिए? यदि हाँ तो हिंदी में जितने भी अकारांत शब्द होते हैं , वे सभी व्यंजनांत होते हैं फिर उनमें भी हल् लगाया जाना चाहिए? हल् को लेकर ऐसे प्रश्न उठने स्वाभाविक हैं। इस तरह से हल् चिन्हों का प्रयोग प्रत्येक शब्दों में प्रायः करना पड़ेगा। भाषा को सरल और सुस्पष्ट होना चाहिए न कि दुरूह और अस्पष्ट। ‘काम’ शब्द हिंदी में व्यंजनांत है, लिखा जाना चाहिए ‘काम्’ परंतु लिखा जाता है ‘काम’। इसी प्रकार कलम, मार, चाक, काल, दिन, रात, हाथ, न्यास आदि सभी शब्द व्यंजनांत हैं।
अतः हिंदी में अब हल् चिन्हों का प्रयोग न के बराबर किया जा रहा है। हाँ, जहाँ शब्द अर्थ भेदक होंगे वहाँ संदर्भ से अर्थ लिया जा सकता है।
संदर्भ-
हिंदी की ध्वनि संरचना
डॉ. अनिल कुमार पाण्डेय
प्रो. एवं अध्यक्ष, भाषाविज्ञान एवं भाषा प्रौद्योगिकी
महात्मा गांंधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय
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