बहुत से लोग अति आदर्शवाद या उत्साह में कहते हैं कि लड़का और लड़की जन्म लेते समय मानसिक स्तर पर एक जैसे ही होते हैं, हम पालन-पोषण के दौरान उन्हें दिए जाने वाले परिवेश और व्यवहार से धीरे-धीरे उनके बीच अंतर उत्पन्न कर देते हैं और लड़कियाँ धीरे-धीरे अपने आप को लड़कों से अलग (भिन्न या शायद किसी रूप में कमतर) लड़की समझने लगती हैं।
इसलिए अतिआदर्शवाद के चक्कर में लोगों को यह भी कहते सुना जाता है कि-
मेरी लड़की 'लड़की नहीं है, लड़का है'
इसी प्रकार शायद यह स्त्रीवादी कथन भी सुनने या देखने को मिलता है-
लड़की पैदा नहीं होती है, बनाई जाती है
किंतु यह पूरी तरह सच नहीं है।
जिस प्रकार पुरुष और स्त्री की शारीरिक संरचना भिन्न है, उसी प्रकार उनकी मानसिक बनावट या न्यूरोसेंसिटिव बनावट भी भिन्न होती है। दोनों बाह्य संसार के उद्दीपन (stimulus) को अलग-अलग प्रकार से महसूस करते हैं। इसे समझने का सही उदाहरण ट्रांसजेंडर ही हैं, जिनमें लड़के के शरीर में लड़की वाली मानसिक बनावट या लड़की के शरीर में लड़के वाली मानसिक बनावट आ जाती है।
इसे दैनिक भास्कर द्वारा दी गई दो केस स्टडी से समझ सकते हैं-
Story-1
लड़का थी, सर्जरी के बाद बनी लड़की:बचपन में हुआ यौन शोषण, यूपी के स्कूल में बनी टीचर; पहचान जाहिर होने पर किया बर्खास्त
नई दिल्ली
मैं जेन कौशिक, दिल्ली से हूं। मैं टीचर हूं जो एक ट्रांसजेंडर महिला है। लेकिन जिस स्कूल में मैं पढ़ा रही थी, उन्हें मेरी पहचान मंजूर नहीं थी। नौकरी के पहले दिन ही उन्होंने मुझे साफ शब्दों में कह दिया था कि स्कूल में किसी को नहीं पता चलना चाहिए कि मैं ट्रांसजेंडर महिला हूं।
मैं भी राजी हो गई क्योंकि बहुत मुश्किल से मुझे ये नौकरी मिली थी। इससे पहले मुझे कई बार मेरी पहचान की वजह से रिजेक्ट किया गया।
एक ट्रांसजेंडर महिला को कोई जॉब नहीं देना चाहता। हालांकि जिस स्कूल में मैं काम कर रही थी, वहां से भी मुझे टर्मिनेट कर दिया गया। उनका कहना था कि किसी बच्चे को मेरी पहचान पता चल गई।
इसके बाद मैंने दिल्ली महिला आयोग को शिकायत की। हाल ही में राष्ट्रीय महिला आयोग ने इस केस को संज्ञान में लेते हुए उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को पत्र लिखकर मामले की स्वतंत्र जांच कराने और स्कूल प्रशासन के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने को कहा है।
मैंने लड़के के रूप में जन्म लिया लेकिन मेरे शरीर में एक लड़की छिपी थी। ये बात परिवार से कहना बेहद मुश्किल था। मैं अक्सर मम्मी के कॉस्मेटिक्स से मेकअप करती थी।
जब मैं 5-6 साल की थी तब एक दिन मम्मी घर पर नहीं थी। मैंने उनके मेकअप बॉक्स में रखी लिपस्टिक और बिंदी लगाई और उनका मंगलसूत्र पहन लिया।
अचानक पापा ने दरवाजा खटखटाया और मुझे आवाज लगाई। उस समय मैं भूल ही गई थी कि मैंने मेकअप किया हुआ है। मैं तुरंत दरवाजा खोलने चली गई। पापा ने मुझे देखते ही थप्पड़ मारा। उनके हिसाब से लड़के को ये सब नहीं करना चाहिए।
10वीं में पता चला जेंडर बदलवाने के लिए होती है सर्जरी
10वीं के बोर्ड देने के बाद मैं घर पर खाली बैठी थी। उस समय हर रोज अखबार पढ़ती थी। उसमें जब नाक या होंठ बदलने के लिए प्लास्टिक सर्जरी के विज्ञापनों को देख मैं बहुत आकर्षित होती। क्योंकि बड़े होकर मैं भी लड़की की तरह दिखना चाहती थी।
एक दिन मैंने एक खबर पढ़ी। उसमें एक ट्रांसजेंडर महिला का जिक्र था जिन्होंने बैंकॉक से जेंडर बदलने के लिए रीअसाइनमेंट सर्जरी कराई थी।
दैनिक भास्कर से साभार
पूरा पढ़ने के लिए इस लिंक पर जाएं
......................
Story-2
लड़का थी, लड़कों की तरफ होती थी आकर्षित:खुद को पहचानने में लगे 20 साल, आज हूं असिस्टेंट प्रोफेसर
नई दिल्ली
आज की कहानी है ट्रांस वुमन डॉक्टर अक्सा शेख की, जो जामिया हमदर्द यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। इसके अलावा कोविड वैक्सीन ट्रायल में रिसर्चर के तौर पर काम कर रही अक्सा भारत की पहली ट्रांंसजेंडर व्यक्ति हैं, जो एक कोविड वैक्सिनेशन सेंटर की इंचार्ज हैं। अक्सा 'ह्यूमन सॉलिडेरिटी फाउंडेशन' के नाम से एक एनजीओ भी चलाती हैं।
अक्सा का कहना है कि आज भी समाज में लोग ट्रांसजेंडर शब्द को लेकर कंफ्यूज हैं। ये शब्द सुनते ही लोग बधाई देने वाले, नाचने-गाने वाले और सड़क पर भीख मांगने वाले कुछ लोगों को इमैजिन करने लगते हैं। समाज में आज भी ट्रांस पर्सन को अपनी पहचान की लड़ाई लड़नी पड़ती है। सोसाइटी से तो इंसान फिर भी लड़ ले, लेकिन जब अपनों से ही लड़ना पड़े तो इंसान कमजोर पड़ जाता और जीवन एक अभिशाप सा लगने लगता है।
3-4 साल की उम्र से ही समझने लगी कि मैं दूसरों से अलग हूं
मैं अपने माता-पिता की तीसरी संतान थी। मेरे दो बड़े भाई हैं। मेरी परवरिश एक लड़के के तौर पर हुई। 3- 4 साल की उम्र से ही मुझे अपनी पहचान को लेकर कंफ्यूजन थी। मेरे अंदर कुछ तो था, जो दूसरो से अलग था। मेरे माता-पिता चाहते थे कि मैं अपने भाइयों के साथ खेलूं पर मैं अपनी सहेलियों के साथ ही खेलती थी।
लड़कों की तरह बर्ताव करते-करते फ्रस्ट्रेट हो गई
ये सोचकर कि लड़कों के बीच रहकर मैं ठीक हो जाऊंगी। मेरे मम्मी-पापा ने मेरा एडमिशन बॉयज स्कूल में करवा दिया। जब मैं 11-12 साल की हुई तो मैं अपने ही क्लास के लड़के से अट्रैक्शन होने लगा। मुझे लगा कि ये मुझे कौन सी बीमारी हो गई है। उस दौर में मैं बहुत परेशान रहने लगी।
मैं अक्सर कोशिश करती था कि मैं लड़कों की तरह बर्ताव करूं, लेकिन ऐसा करने में हमेशा नाकामयाब होती थी। इन सब कोशिशों के कारण मैं फ्रस्ट्रेट रहने लगी और इसलिए मैंने अपना सारा ध्यान पढ़ाई में लगाया।
12 वीं तक मेरा कोई दोस्त नहीं बन पाया, ऐसे निकाला मेडिकल एंट्रेंस एग्जाम
बचपन में रिश्तेदार और घरवाले मुझे डॉक्टर जाकिर हुसैन के नाम से बुलाते थे। मुझे भी अपने नाम के आगे लगा डॉक्टर शब्द इतना पसंद आया कि मैंने ठान लिया कि मुझे डॉक्टर बनना है। मुझे याद है स्कूल में 12वीं तक मेरा कोई दोस्त नहीं बन पाया। मैं सबसे अलग रहने की कोशिश करने लगी।
12वीं के बाद जब मैंने मेडिकल एंट्रेंस एग्जाम दिया तो मैं टॉप 100 में थी। इस कारण मुझे महाराष्ट्र का बेस्ट मेडिकल कॉलेज के.एम हॉस्पिटल एंड सेठ जीएस मेडिकल कॉलेज में मेरा एडमिशन हुआ। लोगों ने मेरे मन में डाल दिया था कि मैं बस एक गे हूं और ये सब मेरे मन का वहम, अगर मैं चाहूं तो उसे बदल सकती हूं। मैं हमेशा इसी कोशिश में रहती थी कि मैं खुद को बदल सकूं।
थर्ड ईयर में डिप्रेशन में चली गई, पहली बार किसी ने फीलिंग्स के बारे में पूछा
इस तरह मेडिकल कोर्स के दो साल निकल गए और थर्ड ईयर में आते ही मैं डिप्रेशन में चली गई। मेरा बीपी इतना बढ़ गया कि वो 160/100 तक पहुंच गया। मैंने डिसाइड किया मुझे अब ट्रीटमेंट करवाना चाहिए। मैं काउंसलर से मिली और जीवन में यह पहली बार था जब किसी ने मेरी फीलिंग्स के बारे में मुझसे बात की, मुझसे पूछा कि मेरे मन में क्या चल रहा और मैं अपनी पहचान को लेकर के क्या सोचती हूं।
तब जाकर उन्होंने मुझे समझाया कि यह कोई बीमारी नहीं है तुम नार्मल हो। उन्होंने मुझे बताया कि जो कुछ भी है, उसके लिए तुम या और कोई रिस्पॉन्सिबल नहीं हो।
20 साल की उम्र में अपनी ट्रांसजेंडर आइडेंटिटी को पहचाना
दैनिक भास्कर से साभार
पूरा पढ़ने के लिए इस लिंक पर जाएं
No comments:
Post a Comment