संस्कृत-कालीन भाषा चिंतन-3
पाणिनी और अष्टाध्यायी
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अध्यायों की सामग्री
पाणिनी और अष्टाध्यायी
पाणिनी : संस्कृत-काल के सबसे बड़े व्याकरणाचार्य।
समय 350 ई.पू. के आस-पास।
‘अष्टाध्यायी’ पाणिनी की कालजयी रचना।
कुल आठ अध्याय।
सूत्रवत रूप में संस्कृत भाषा के नियमों की प्रस्तुति।
पाणिनी का व्याकरण
अनुशीलन इतना उच्च कोटि का रहा कि समकालीन सभी संप्रदायों में उनकी परंपरा या
संप्रदाय को सर्वोच्च स्थान दिया गया।
अष्टाध्यायी
अष्टाध्यायी में कुल आठ अध्याय हैं।
प्रत्येक अध्याय में चार पाद हैं। अतः कुल 32 पाद हैं।
इन अध्यायों और पादों में लगभग चार हजार सूत्र हैं|
सभी अध्यायों या पादों में सूत्रों की संख्या समान नहीं है।
इसमें वर्णित सामग्री को ‘अधिकार’ नाम -
संज्ञाधिकार : इसका संबंध मुख्य
संज्ञाओं और परिभाषाओं से है, जिन्हें
प्रथम अध्याय में देखा सकता है।
प्रत्ययाधिकार : इसमें भिन्न-भिन्न
प्रकार की प्रकृतियों (मूल शब्दों) में लगने वाले प्रत्ययों संबंधी नियम हैं।
इन्हें तृतीय अध्याय पंचम अध्याय तक देखा जा सकता है।
अंगाधिकार : इनका विस्तार षष्ठम अध्याय से
सप्तम अध्याय तक है।
पदाधिकार : यह अष्टम अध्याय में है।
अध्याय 1 : संज्ञा, परिभाषा, अतिदेश, आत्मनेपद,
परस्मैपद और कारक के प्रकरण।
अध्याय 2 : समास, विभक्ति, धात्वादेश और लुक् के प्रकरण ।
अध्याय 3 से 5 : प्रत्ययों का
विधान । इनमें सन् , णिच् , कृत् ,
ल् , तिङ् , सुप् ,
स्त्री और तद्धित संबंधी प्रकरण प्रमुख हैं।
अध्याय 6-7 : द्वित्व, संप्रसारण,
संहिता, स्वर एवं अंग संबंधी कार्य।
अध्याय 8
: पदकार्य सूत्र।
(रमानाथ शर्मा, ‘पाणिनी और उनकी
अष्टाध्यायी’ भाषाशास्त्र के सूत्रधार, 2002)
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एल. ब्लूमफील्ड : Language
(1933)-
“This grammar which dates from somewhere round 350
to 250 B.C. is one of the greatest monuments of human intelligence.”
(यह व्याकरण, जिसका
रचनाकाल 350 से 250 ई.पू. के आस-पास है, मानव मेधा के महानतम
स्मारकों में से एक है।)
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