Total Pageviews

Wednesday, November 7, 2018

संस्कृत-कालीन भाषा चिंतन-5 (वाक् (भाषा) के रूप)

वाक् (भाषा) के रूप

चत्वारि वाक् परिमिता पदानि, तानि विदुर्ब्राह्मणा मे मनीषिण:।
  गुहा त्रिणी निहिता नेङ् गयंति, तुरीयं वाचो मनुष्याः वदंति॥
(वाक् के चार रूप होते हैं, इनमें से तीन गुफा में निहित रहते हैं। चौथे रूप का प्रयोग मनुष्य द्वारा बोलने में किया जाता है। )
परा : यह वाक् का अमूर्त मानसिक रूप है। इसका संबंध आत्मा से है। इसका कार्य हमें सर्वशक्तिमान सत्ता (ब्रह्म) से जोड़ना है।

पश्यंती : इसे भाषा का सूक्ष्म रूप कहा गया है। इसका संबंध मनुष्य के हृदय से है, जहाँ भाषिक अभिव्यक्तियों का निर्माण और बोध तो नहीं होता किंतु भाषायी अनुभूति रहती है।
मध्यमा : यह भाषा की चिंतनावस्था है। हम चिंतन करते हुए मन-ही-मन भाषा के जिस रूप का प्रयोग करते हैं, वह मध्यमा है। भाषा के इस रूप का प्रयोग करने के लिए बोलने या सुनने की आवश्यकता नहीं होती।
वैखरी : वैखरी भाषा का व्यक्त रूप है। हम अपने दैनिक व्यवहार में बोलने और सुनने के क्रम में भाषा के जिस रूप का प्रयोग करते हैं, उसे वैखरी नाम दिया गया है।

No comments:

Post a Comment