भर्तृहरि व्याकरण, साहित्य और शृंगार के अद्भुत संगम हैं।
तीनों भतृहरि एक हैं या तीन? इस पर विवाद है।
इनका समय 500 ई.पू. का माना
गया है।
वाक्यपदीय में तीन कांड-
·
शब्दब्रह्म
कांड
·
वाक्य कांड
·
अर्थ कांड
भर्तृहरि ने ‘अर्थ’ को केंद्र में रखकर
व्याकरण की रचना की। उनका बल दो बिंदुओं पर था-
वाक्यार्थ क्या है?
भाषा में अर्थ कहाँ रहता
है?
भर्तृहरि से पहले दो वाद
प्रचलित थे- अभिहितान्वयवाद और अन्विताभिधानवाद। भर्तृहरि ने वाक्य से निकलने वाले
विशेषार्थ को अर्थ कहा। जब एक वाक्य निस्सृत होता है तो पदों के योग के बजाए उनसे विशेष
कुछ निकलता है, वह अर्थ है। इसके बोध
को समझाने के लिए उन्होंने ‘प्रतिभा’ की
संकल्पना दी।
भर्तृहरि ने ‘स्फोट’ की भी अवधारणा दी
है।
वाक्यात्मक विश्लेषण के संदर्भ
में वे क्रियापद और प्रथमपद की बात करते हैं। आधुनिक भाषाविज्ञान में M.A.K. Halliday द्वारा ‘cohesion’ (संसक्ति) की अवधारणा दी गई है, जबकि भतृहरि ने यह अवधारणा
उस समय दी थी।
शब्द (ब्रह्म) की अवधारणा
देते हुए भतृहरि कहते हैं कि शब्द का कोई अंतिम अर्थ नहीं होता। आज देरिदा ने यही बात
कही है।
संकेतप्रयोगविज्ञानी कहते
हैं कि शब्दों का अर्थ बताने में भी हम शब्द का प्रयोग करते हैं।
कुंतक ने प्रोक्ति के दो
वर्ग किए, जबकि पश्चिम में केवल प्रोक्ति के अंगों- आदि, मध्य और अंत की बात की गई है।
भर्तृहरि वाक्य और अर्थ को
संघटना का विषय बताया और इस संबंध में ‘भावना’ तथा ‘प्रयोजन’ की संकल्पनाएँ दीं। उन्होंने कहा कि प्रयोजन से अर्थ की पुष्टि होती है।
भर्तृहरि वाक्यार्थ का विवेचन
करते हुए काव्यशास्त्र के आचार्यों के आचार्य बन जाते हैं। पश्चिम में ऐसा कोई व्याकरण
नहीं लिखा गया है।
पाश्चात्य अर्थविज्ञान के
प्ररूप
·
Traditional semantics
& General semantics
·
Formal semantics
·
Generative semantics
·
Interpretative semantics
·
Cognitive semantics
इनमें से केवल संज्ञानात्मक
अर्थविज्ञान भर्तृहरि के निकट पहुँचने का प्रयास करता है। भर्तृहरि वाक्यवादी हैं।
संज्ञानात्मक अर्थविज्ञान में लेकॉफ द्वारा mental
space की बात की गई है-
·
Space of image
·
Space of carrier
·
Space of narration
·
Space of path आदि।
इन सभी के माध्यम से लेकॉफ
ने अन्वयार्थ से आगे बढ़कर काव्यार्थ को पकड़ने का प्रयास किया है।
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