संस्कृत-कालीन भाषा चिंतन-4
(कात्यायन और पतंजलि)
1.
कात्यायन और वार्तिक
 पाणिनी द्वारा रचित अष्टाधायी में नियम इतने सूत्रवत हैं, कि एक सामान्य विद्वान या अध्येता द्वारा उन्हें पूर्णतः समझ
पाना संभव नहीं है। 
 इसी कारण उनकी व्यवस्थित व्याख्या हेतु कुछ सहायक ग्रंथ भी लिखे गए। इन
ग्रंथों को ही ‘वार्तिक’ नाम
दिया गया है। 
 संस्कृतकाल में कई आचार्यों, जैसे-व्याघ्रमूर्ति,
बाडव, क्रोष्टा, भारद्वाज
और कात्यायन द्वारा वार्तिकों की रचना की गई। 
 इन सभी वार्तिककारों में ‘कात्यायन’ का नाम सर्वोपरि है। 
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 भोलानाथ तिवारी (2009) : वर्तमान में उपलब्ध वार्तिकों की संख्या लगभग1500.
 इनमें से कितने कात्यायन के हैं यह जानने का अभी हमारे पास कोई ठोस साधन नहीं
है। 
 “कात्यायन ने पाणिनी के सूत्रों पर कुछ ऐसे व्यवस्थापरक वाक्य लिखे
हैं जिनमें सूत्रों में जो कुछ कहा गया है, जो कुछ नहीं कहा
जा सका, अथवा जो कुछ नहीं कहा जाना चाहिए – इन बातों पर व्यवस्थित चर्चा की गई है। ये वाक्य ही वार्तिक के रूप में
प्रसिद्ध हैं।” 
(रमानाथ
शर्मा ‘पाणिनी और उनकी अष्टाध्यायी’ भाषाशास्त्र के सूत्रधार, 2002) 
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 आचार्यों द्वारा वार्तिक की परिभाषा –
“उक्तानुक्तदुरुक्तानां चिंता यत्र प्रवर्तते। तं ग्रंथं वार्तिकं
प्राहुर्वार्तिकज्ञाः मनीषीणः।” 
 (अर्थात वार्तिक वह है जिसमें अष्टाध्यायी में उक्त (कहा गया), अनुक्त (नहीं कहा गया) और दुरुक्त (गलत कहा गया) पर विचार
किया गया हो)। 
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2.
पतंजलि और महाभाष्य
 समय : 150 ई.पू. के लगभग । 
 रचना : ‘महाभाष्य’ । 
 इसमें भी
पाणिनी के अष्टाध्यायी की तरह आठ अध्याय तथा प्रत्येक अध्याय में चार पाद । 
 पाणिनी के उन
सूत्रों की व्याख्या, जो समय के साथ अध्येताओं के लिए कठिन हो गए थे। 
 इस क्रम में
कात्यायन के वार्तिकों का भी परीक्षण करते हुए उपयोगी और अनुपयोगी वार्तिकों पर
प्रकाश । 
 इसके अलावा
भाषा के दार्शनिक पक्ष पर भी विचार ।
 
 
 
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