Total Pageviews

Sunday, July 4, 2021

कोपेनहैगेन संप्रदाय (Copenhagen School)

 

कोपेनहैगेन संप्रदाय (Copenhagen School)

इस संप्रदाय को डैनिश संप्रदाय (Danish School) या ग्लासेमैटिक संप्रदाय (Glossematic School) भी कहा गया है।

इस संप्रदाय में भाषिक चिंतन का आरंभ रैस्मस रास्क (Rasmus Rask) से माना जाता है। रैस्क के बाद इस क्षेत्र में एल. येमस्लेव (L. Hjelmslev), जे. एन. मैडविग (J.N. Madvig), ए. नोरीन (A. Noreen) तथा एच.जी. विवेल (H.G. Wiwel) द्वारा कार्य किया गया।

इस क्रम में सर्वाधिक ख्यातिलब्ध नाम येस्पर्सन (O. Jesperson) का है जिनकी भाषा विश्लेषण संबंधी कई सुप्रसिद्ध रचनाएँ 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में प्रकाशित हुईं । चूँकि येस्पर्सन अंग्रेजी के प्रोफेसर थे इसलिए उनकी कुछ रचनाएँ अंग्रेजी भाषा और व्याकरण से ही संबद्ध रही हैं, जैसे- Growth and Structure of English Language, A Modern English Grammar on Historical Principles आदि। इसके अलावा उनकी कुछ रचनाएँ भाषा और व्याकरण से भी संबद्ध हैं, जैसे- Language : its Nature, Development and Origin, Philosophy of Grammar आदि।

इस संप्रदाय के चिंतन में दर्शन, गणित और तर्क का पर्याप्त प्रभाव देखा जा सकता है। अधिभाषा (Metalanguage) की संकल्पना और ग्लासेमैटिक्स (Glossematics) नामक व्याकरण या भाषा-विश्लेषण सिद्धांत इस संप्रदाय के दो प्रमुख योगदान हैं।

इस संप्रदाय की मुख्य मान्यता यह है कि भाषा अभिव्यक्ति (expression) और कथ्य (content) के योग से बनी है जो प्रतिनिधान (commutation) द्वारा एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।

वी. ब्रांडल (Viggo Brondal : 1887-1942)

ये कोपेनहैगन संप्रदाय के प्रमुख भाषाशास्त्री हैं। ये भाषाशास्त्री के साथ-साथ दार्शनिक भी हैं। इन्होंने विचार (thought) और भाषा (language) के बीच संबंधों की बात की। ब्रांडल ने मूलभूत संकल्पनाओं को दो श्रेणियों में बाँटा- संबंधपरक (relational) तथा सामान्य (generique)

एल. येमस्लेव (Louis Hjelmslev : 1899-1965)

1928 ई. में इनकी पहली पुस्तक ‘Principes de grammaire general’ प्रकाशित हुई जिसमें व्याकरण के सामान्य सिद्धांतों की चर्चा की गई है।

1935 ई. में येमस्लेव का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ ‘La categorie des cas wtude de grammaire’ प्रकाशित हुआ। यह उनके द्वारा भाषा के क्षेत्र में किए जा रहे स्वतंत्र चिंतन का पहला भाग था, जिसका दूसरा भाग 1937 ई. में प्रकाशित हुआ।

1931 ई. में जब कोपेनहैगन मंडल द्वारा ध्वनि और व्याकरण के लिए अलग-अलग समूह बनाए गए तो येमस्लेव को इनमें से ध्वनि संबंधी कार्य दिया गया।

इन विद्वानों द्वारा ‘Phonematics’ नामक ध्वनि-विश्लेषण का नया सिद्धांत विकसित किया गया।

एच.जे. उल्डाल (H.J. Uldall : 1907-1957)

इन्होंने कहा कि विश्व के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण इसकी वस्तुओं या घटनाओं से नहीं बनता बल्कि उनके बीच प्राप्त संबंधों से बनता है। वस्तुएँ तो वे बिंदु हैं, जिनके बीच संबंध होता है।

इस सिद्धांत की भाषा के सापेक्ष चर्चा करते हुए उन्होंने कथ्य-रूप और अभिव्यक्ति-रूप जैसी संकल्पनाएँ दीं तथा इनके बीच संबंधों का विवेचन किया। उल्डाल ने ऑटो जेस्पर्सन (Otto Jespersen) के साथ भी कार्य किया है।

ग्लासेमैटिक्स (Glossematics/भाषिमविज्ञान)

 ग्लासेमैटिक्स नामक भाषा विश्लेषण सिद्धांत इस संप्रदाय की प्रमुख देन है। इस सिद्धांत में येमस्लेव ने कहा कि अभिव्यक्ति (expression) और कथ्य (content) के संबंध को संकेत (sign) नाम दिया। आगे उन्होंने कहा कि भाषा ऐसे संकेतों की ही व्यवस्था है। संकेत को व्याख्यायित करते हुए येमस्लेव सस्यूर से भी आगे बढ़ जाते हैं, जहाँ वे अभिव्यक्ति और कथ्य के भी दो-दो उपभेद करते हैं, जिन्हें इस प्रकार से समझ सकते हैं

कथ्य (contenct) : कथ्य-रूप (content-form), कथ्य-पदार्थ (content-substance)

अभिव्यक्ति (expression) : अभिव्यक्ति-रूप (expression-form), अभिव्यक्ति पदार्थ (expression-substance)

 

No comments:

Post a Comment