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Sunday, July 4, 2021

प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान (Functionals Linguistics)

 प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान

(Functionals Linguistics)

भाषा के प्रकार्य को केंद्र में रखकर मूल कार्य ‘प्राग संप्रदाय’ के विद्वानों द्वारा किया गया है।

‘रोमन याकोब्सन’ प्राग संप्रदाय के प्रमुख विद्वानों में से एक हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान ये अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय में आ गए और वहीं पर इन्होंने अपने सिद्धांत का विकास किया। अतः उनके द्वारा यहाँ पर विकसित सिद्धांत व पद्धतियाँ प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान की आरंभिक स्वतंत्र उपलब्धियाँ हैं। इस क्रम में उनके द्वारा बताए गए भाषा के 06 प्रकार्य उल्लेखनीय हैं। याकोब्सन के अनुसार संप्रेषण के 06 घटक हैं– वक्ता, श्रोता, संदर्भ, संदेश, कोड और सरणि। इन्हें एक रेखाचित्र के माध्यम से देख सकते हैं–

 


इनके केंद्र में आने की स्थिति में भाषा के प्रकार्य बदल जाते हैं, अतः इनके अलग-अलग केंद्र में आने की स्थिति में भाषा के बदलने वाले प्रकार्यों को इस प्रकार से देखा जा सकता है–

(क)         अभिव्यक्तिपरक (Expressive) : इसे संवेगात्‍मक (Emotive) प्रकार्य भी कहा गया है। इसमें ‘वक्ता या प्रेषक’ (sender) स्वयं उक्ति के केंद्र में होता है। ऐसी उक्तियों द्वारा वक्ता अपने भावों या विचारों को अभिव्यक्त करता है, जैसे-

·            वाह, कितना अच्छा मौसम है!

·            आज मेरा दिमाग खराब है।

(ख)         निदेशात्‍मक (Conative) : इसमें ‘श्रोता या ग्रहणकर्ता’ (receiver) उक्ति के केंद्र में होता है। ऐसी उक्तियों द्वारा वक्ता का उद्देश्य श्रोता को निर्देशित करना या किसी कार्य के लिए प्रेरित करना होता है, जैसे-

·            पानी लाओ।

·            चुपचाप रहो।

(ग)           काव्‍यात्‍मक (Poetic) : इसमें उक्ति के केंद्र में ‘संदेश’ (message) होता है। इसमें उक्ति का स्वरूप और संदेश दोनों महत्वपूर्ण होते हैं। कविता और स्लोगन आदि इसके उदाहरण हैं।

(घ)          अधिभाषिक (metalingual) : जब स्वयं ‘भाषा या कोड’ (code) ही उक्ति के केंद्र में हो, तो वहाँ अधिभाषिक प्रकार्य होता है। इसमें वक्ता और श्रोता कोड के माध्यम से एक-दूसरे के साथ उक्ति पर जुड़ते हैं, या एक समान समझ विकसित करते हैं। उदाहरण- परिभाषा आदि।

(ङ)          संदर्भपरक (Referential) : इसमें ‘संदर्भ’ (context) उक्ति के केंद्र में होता है। उदाहरण-

·            भारत की आजादी में महात्मा गांधी की महत्वपूर्ण भूमिका थी।

·            हनुमान जी उड़कर श्रीलंका गए।

(च)          संबंधात्‍मक (Phatic) : इसमें वक्ता और श्रोता के बीच बनी ‘सरणि’ (channel) उक्ति के केंद्र में रहती है। ऐसी उक्तियों द्वारा वक्ता श्रोता से संबंध बनाने का प्रयास करता है या यह देखता है कि संबंध जारी है या नहीं। उदाहरण के लिए फोन पर ‘हेलो’ बोलना, या बातचीत में ‘हाँ/हूँ’ करते रहना, जिससे व्यक्त हो सके कि सरणि जारी है।

याकोब्सन ने स्वनविज्ञान एवं स्वनिमविज्ञान के क्षेत्र में विशेष योगदान दिया है। इसे उनके विभिन्न आलेखों और पुस्तकों में देखा जा सकता है।

उनके द्वारा दी गई व्यावर्तक लक्षणों (distinctive features) की संकल्पना एक बड़ा योगदान है। उन्होंने एक स्वनिम को दूसरे स्वनिम से अलग करने के लिए व्यावर्तक लक्षणों को ही कारण बताया और इन्हें युग्मों, जैसे- सघोष-अघोष, अल्पप्राण-महाप्राण आदि के रूप में व्याख्यायित किया। उनके अनुसार इन लक्षणों के होने और नहीं होने के आधार पर ही दो स्वनिमों में भेद किया जा सकता है, जैसे- प्राणत्व के नहीं होने और होने से ‘क’ तथा ‘ख’ दो अलग-अलग स्वनिम हैं।

याकोब्सन द्वारा भाषा में कई प्रकार के लक्षणों के होने की बात की गई है–

·           बलात्मक लक्षण (Emphatic feature)

·           संविन्यास लक्षण (Configrative feature)

·           व्यावर्तक लक्षण (Distinctive feature)

ए. मार्तिने (André Martinet : 1908-1999)

मार्तिने का मुख्य काम फ्रांसिसी भाषा में रहा है, किंतु उन्होंने बाद में अमेरिका में काम किया और अंग्रेजी में भी लेखन किया। उन्होंने भाषा के प्रकार्य, तुलनात्मक अध्ययन पर कार्य करने के अलावा मुख्य रूप से स्वनविज्ञान और स्वनिमविज्ञान के क्षेत्र में कार्य किया। इसे उनकी पुस्तकों- Phonology as Functional Phonetics (1949), Elements of General Linguistics (1960) एवं A Functional view of Language (1962) में देखा जा सकता है।

 


 

व्यवस्थापरक प्रकार्यात्मक व्याकरण

(Systemic Functional Grammar)

व्यवस्थापरक प्रकार्यात्मक व्याकरण (Systematic Functional Grammar) का प्रतिपादन सुप्रसिद्ध ब्रिटिश भाषावैज्ञानिक एम. ए. के. हैलिडे (M. A. K. Halliday: 1925-2018) द्वारा किया गया।

हैलिडे के व्याकरण सिद्धांत पर जे. आर. फर्थ (J. R. Firth : 1890-1960) का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है।

फर्थ ने भाषा को अनेक स्तरों पर भिन्न-भिन्न आयामों वाली व्यवस्था के रूप में देखते हुए ‘Multidimentional theory’ (बहुआयामपरक सिद्धांत) का प्रतिपादन किया।

हैलिडे को फर्थ का शिष्य का माना जाता है।

इन्होंने अपने व्याकरण का नाम पहले ‘Scale and Category Grammar’ (माप और कोटि व्याकरण) दिया। बाद में ‘व्यवस्था’ की प्रमुखता को देखते हुए उन्होंने इसे ‘Systematic Grammar’ (व्यवस्थापरक व्याकरण) नाम से अभिहीत किया।

हैलिडे ने व्यवस्थापरक प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान (systemic functional linguistics -SFL) का विकास किया, जो भाषाविज्ञान के क्षेत्र में उनका एक महत्वपूर्ण योगदान है। इस क्षेत्र में ‘Introduction to Functional Grammar’ उनकी सुप्रसिद्ध रचना है जो क्रमशः 1985, 1994 और 2004 में प्रकाशित हुई है।

उन्होंने इस बात पर बल दिया कि भाषा में चुनने की सुविधा (Choice) संरचना के बजाए अर्थ में होती हैं।

हैलिडे के व्यवस्थापरक प्रकार्यात्मक व्याकरण में अर्थ को केंद्र में रखते हुए भाषा के तीन मुख्य प्रकार्यों की बात की गई है, जिनमें से प्रत्येक की अपनी व्यवस्था होती है–

·           अनुभवात्मक अर्थ (Experiential meaning)- व्यक्ति अपने अनुभवों को भाषायी घटकों, जैसे- इकाइयों, प्रक्रियाओं और परिस्थितियों के माध्यम से प्रस्तुत करता है। यहाँ भाषा का प्रकार्य अनुभव की प्रस्तुति होता है।

·           अंतरवैयक्तिक अर्थ (Interpersonal meaning)- वक्ता भाषा का प्रयोग विभिन्न प्रकार के कार्यों, जैसे- सूचना देना, प्रश्न पूछना, आदेश देना, उत्तर देना आदि के लिए करता है। इसी प्रकार वह भाषा के माध्यम से अपने व्यक्तिगत मत और विचार भी व्यक्त करता है। यहाँ भाषा सामाजिक अंतर्क्रिया करना होता है।

·           पाठात्मक अर्थ (Textual meaning)- जब वक्ता की अभिव्यक्ति किसी विषय पर होती है और उसके लिए संदर्भ का ज्ञान आवश्यक होता है तब भाषा इस प्रकार का अर्थ व्यक्त करने का प्रकार्य करती है।

 हैलिडे की महत्वपूर्ण अवधारणाएँ-

हैलिडे ने अपने व्याकरण में ‘कोटि’ (category) तथा ‘आयाम’ (dimension) नामक दो वर्गों में नई स्थापनाएँ दीं। कोटियों की बात उन्होंने 1961 ई. में ‘Word’ जर्नल में प्रकाशित "Categories of the theory of grammar” में की है। 


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