संप्रत्यय निर्माण और संप्रत्यय अधिगम की प्रक्रियाएँ
संप्रत्यय को हम
मानसिक संकल्पना (mental concept) भी कहते हैं। मानव शिशु जब धीरे-धीरे बड़ा हो रहा होता है तो उस समय वह
अपने परिवेश से निरंतर नई चीजें देख और सीख रहा होता है। ऐसी स्थिति में प्रत्येक
वस्तु के लिए उसके मस्तिष्क में एक नया संप्रत्यय निर्मित होता है। संप्रत्यय
निर्माण में किसी इकाई का अर्थ पक्ष और ध्वनि पक्ष दोनों सम्मिलित रहते हैं।
उदाहरण के लिए यदि कोई बच्चा गाय देखता है तो उसके मस्तिष्क में ‘गाय’ का चित्र उभरता है, इसके
बाद उस चित्र को अभिव्यक्त करने के लिए उसे अपने भाषायी परिवेश से ध्वन्यात्मक
प्रतीक मिलता है। यदि वह बच्चा ‘हिंदी’ भाषी समाज से है तो उसे ‘ग+आ+य’ ध्वनियों का समुच्चय मिलेगा और यदि ‘अंग्रजी’
भाषी समाज से है तो ‘c+o+w’ ध्वनियों का
समुच्चय। इसे चित्र रूप में इस प्रकार से देख सकते हैं-
इसी प्रकार से मानव मस्तिष्क
में संप्रत्ययों का निर्माण होता रहा है। संप्रत्यय निर्माण में आर्थी पक्ष और
ध्वनि पक्ष की स्थिति को एफ.डी. सस्यूर द्वारा बताई गई संकेत, संकेतित, संकेतक
की अवधारणा से और अधिक अच्छे ढंग से समझ सकते हैं।
संप्रत्यय अर्जन इस
प्रक्रिया में सामान्यीकरण और विशेषीकरण (Generalization
and Specialization) की प्रक्रियाएँ भी काम करती हैं। किसी एक नियम या मानसिक संकल्पना को उसी प्रकार
की दूसरी चीजों के लिए भी मान लेना सामान्यीकरण है। इसके विपरीत समान दी दिखने
वाली चीजों में भिन्नता विशेष के आधार पर उन्हें अलग-अलग पहचानना विशेषीकरण है।
मानव शिशु भाषा अर्जन के दौरान इन दोनों ही प्रक्रियाओं का उपयोग करते हैं। उदाहरण
के लिए ‘बच्चा’ पहली बार छोटा सा
कुत्ता देखता है, उसकी आर्थी संकल्पना बच्चे के मन में बन
जाती है, फिर उसे परिवेश से प्राप्त होता है कि इसे ‘कुत्ता’ कहते हैं। इसके बाद वह उसी आकार की ‘बिल्ली या बकरी’ देखता है तो उसे देखकर भी वह ‘कुत्ता’ ही कहेगा। इसे ही सामान्यीकरण कहते हैं। ‘गाय’ देखकर मन में उसकी संकल्पना बनाना, तथा उसके लिए ‘गाय’ ध्वनि
प्रतीक का प्रयोग करना एक नियम हुआ। फिर भैंस देखने के बाद उसे भी ‘गाय’ कहना सामान्यीकरण है। फिर इन चीजों की अलग-अलग
पहचान कर लेना और उनके लिए अलग-अलग शब्दों का प्रयोग करने लगना विशेषीकरण है।
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