संवेदना, स्मृति और कल्पना तथा इनकी भाषा अर्जन में भूमिका
इंद्रीय अनुभूतियाँ, स्मृति और कल्पना मानव मानव मस्तिष्क की
आधारभूत क्षमताएँ हैं। भाषा इन क्षमताओं को पूर्णता प्रदान करती है तथा ये क्षमताएँ
मानव शिशु के भाषा अर्जन में आधारभूत भूमिका निभाती हैं। मानव शिशु जिन चीजों को
बार-बार अपने परिवेश में देखता या महसूस करता है, उनकी एक
संकल्पना उसके मन या मस्तिष्क में बन जाती है और वह संकल्पना उसकी स्मृति में
संचित हो जाती है। इससे किसी वस्तु या घटना की पुनरावृत्ति होने पर वह अपनी स्मृति
से पुनः उसका आभास करता है और निर्णय लेता है। उदाहरण के लिए यदि गर्म प्लेट से
बच्चे का हाथ जल जाए तो यह संवेदना या अनुभूति उसकी स्मृति में संचित हो जाती है
तथा अगली दूसरी गर्म प्लेट दिखाई देने पर वह उसे हाथ नहीं लगाता।
इस प्रक्रिया का
अगला चरण कल्पना है। कल्पना मानव मस्तिष्क की एक असाधारण क्षमता है जिसके माध्यम
से वह ऐसी वस्तुओं, घटनाओं
आदि के बारे में सोच लेता है, जिनका उसे कभी अनुभव नहीं हुआ
हो, या यहाँ तक कि संपूर्ण मानव जाति में किसी को कभी अनुभव
न हुआ हो। कल्पना के कई स्तर हैं, जैसे-
सामान्यीकरण स्तर- गर्म प्लेट से हाथ जलने के बाद उस घटना का सामान्यीकरण
करना और यह कल्पना करना (मान लेना) कि किसी भी गर्म वस्तु को छूने पर उससे हाथ
जलेगा। यह एक अनुभव का उस प्रकार की सभी स्थितियों के लिए किया गया सामान्यीकरण
है। इसके लिए उसे गर्म वस्तु की कल्पना करनी पड़ती है तथा उसके साथ वास्तविक
अनुभूति को जोड़ना पड़ता है।
ज्ञात से अज्ञात का
अनुमान- कल्पना का एक
महत्वपूर्ण पक्ष अनुमान है। मानव मस्तिष्क अपने अनुभूत या ज्ञात विचारों से अज्ञात
वस्तुओं या घटनाओं आदि की अवस्था के बारे में अनुमान करते हैं। उदाहरण के लिए यदि
एक व्यक्ति ने भारत के महाराष्ट्र में रहते हुए भारी बारिश देखी और वह समाचार में
सुन रहा है कि आष्ट्रेलिया में भारी बारिश हुई तो वह उस भारी बारिश की स्थिति का
अनुमान अपने स्वयं द्वारा देखी गई भारी बारिश से करेगा और वहाँ निर्मित स्थितियों
की कल्पना अपने यहाँ निर्मित स्थितियों के आधार पर करेगा।
सर्जनात्मक/रचनात्मक
कल्पना- मानव सभ्यता के
विकास में मानव मस्तिष्क की कल्पना शक्ति की सबसे बड़ी भूमिका है। मानव मस्तिष्क की
प्रकृति सर्जनात्मक है कुछ लोगों में यह क्षमता कम होती है तो कुछ लोगों में अधिक।
मानव सभ्यता के संपूर्ण ज्ञान, वाङ्मय और साहित्य आदि का विकास उसकी कल्पना शक्ति पर ही टिका है। नित नई चीजों
का विकास या लेखन हो रहा है। यदि हमारे मस्तिष्क में कल्पना शक्ति नहीं होती तो हम
केवल पुरानी चीजों (या अनुभूत चीजों) को दुहरा पाते, लेकिन
हम नित नई चीजों की बारे में सोचते और उन्हें अभिव्यक्त करते रहते हैं। अतः इस
स्तर पर कल्पना की भूमिका सर्वाधिक होती है।
संवेदना, स्मृति और कल्पना तीनों ही शक्तियाँ या
क्षमताएँ मनुष्य के संपूर्ण विकास में आधारभूत भूमिका निभाती हैं। भाषा अर्जन में
भी इनकी भूमिका महत्वपूर्ण होती है। परिवेश से प्राप्त होने वाले इनपुट और उसके
लिए प्राप्त भाषायी प्रतीकों को मानव शिशु स्मृति में सुरक्षित रखता है। बाह्य
परिवेश से प्राप्त सीमित इनपुट के आधार पर संपूर्ण भाषायी क्षमता के ग्रहण और
अनुप्रयोग में कल्पना शक्ति की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
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