भाषा अर्जन के प्रमुख सिद्धांत (Major Theories of Language Acquisition)
मनोवैज्ञानिकों, शिक्षाशास्त्रियों, भाषा संबंधी दार्शनिक चिंतकों, तर्कशास्त्रियों और मनोभाषावैज्ञानिकों के लिए यह गहन चिंतन का विषय
रहा है कि मानव शिशु भाषा कैसे सीखता है। इस प्रश्न का उत्तर अलग-अलग प्रकार के
चिंतकों द्वारा अपनी-अपनी विश्लेषण पद्धतियों के अनुरूप दिया गया है।
अध्ययन-अध्यापन की दृष्टि से हम उन्हें भाषा अर्जन के विविध सिद्धांतों के रूप में
जानते हैं। इस प्रकार के प्रमुख सिद्धांत निम्नलिखित हैं-
(क) व्यवहारवादी
सिद्धांत- भाषा अर्जन का
व्यवहारवादी सिद्धांत यह मानता है कि मानव शिशु अपने परिवेश में होने वाले व्यवहार
से ही अपनी मातृभाषा का अर्जन करता है। मनोविज्ञान में व्यवहारवाद के जनक जॉन बी.
वॉटसन (John B. Watson) को माना जाता है।
उन्होंने कहा है कि ज्ञान प्राप्ति का एक मात्र उपकरण वास्तविक व्यवहार (स्थूल
संसार) है। उन्होंने मस्तिष्क और चेतना जैसी चीजों को एक धार्मिक अंधविश्वास मात्र
माना है।
वाटसन के अलावा अन्य
व्यवहारवादियों में बी.एफ. स्कीनर और ऑसगुड का नाम प्रमुख है। ये दोनों ही विद्वान
मस्तिष्क की सत्ता तो स्वीकार करते हैं, किंतु इसे शक्तिहीन मानते हैं। इनका भी यही मानना है कि मानव शिशु अपने
सामाजिक परिवेश में व्यवहार से ही भाषा सीखता है। बी.एफ. स्कीनर का व्यवहारवाद के
क्षेत्र में विशेष रूप से उल्लेख किया जाता है। उनका मानना है कि किसी भी अंग या
तंत्र (organism) के
व्यवहार को उस अंग या तंत्र तथा परिवेश की अंतरक्रिया का अध्ययन करते हुए
सैद्धांतिक रूप में प्रतिपादित करते हुए समझाया जा सकता है।
भाषावैज्ञानिकों में
सबसे बड़े संरचनावादी भाषावैज्ञानिक एल. ब्लूमफील्ड द्वारा व्यवहारवादी सिद्धांत का
समर्थन किया गया है। उन्होंने भी माना है कि मानव शिशु अपने व्यवहार से ही भाषा को
सीखता है। उन्होंने भाषा को उद्दीपन आधारित अनुक्रिया कहा है।
(ख) मनोवादी
सिद्धांत- व्यवहारवादी
सिद्धांत के विपरीत मनोवादी सिद्धांत मनुष्य के पास मन जैसी इकाई होती है। भाषावैज्ञानिकों
में नोएम चॉम्स्की को मनोवादी माना जाता है। उन्होंने न केवल मानव मन की संकल्पना
को स्वीकार किया है, बल्कि
यह भी माना है मानव शिशु अपने मन में भाषा सीखने की सहजात क्षमता लेकर पैदा होता
है। इस क्षमता को एक इकाई मानते हुए उन्होंने इसे ‘भाषा
अर्जन युक्ति’ (Language Acquisition Device-LAD) नाम दिया
है। उनका मानना है कि मानव शिशु के जन्म होने के बाद 04 वर्षों तक में यही युक्ति
सक्रिय हो जाती है और वह अपने हिसाब से विविध प्रकार के वाक्यों का निर्माण आरंभ
कर देता है।
इस क्रम में
चॉम्स्की द्वारा भाषा सार्वभौम (Language
Universals) की संकल्पना दी गई है, जिससे हम
सब परिचित हैं।
(ग) जैववादी
सिद्धांत (Biological
Nativist)- जैववादी
भाषावैज्ञानिक यह मानते हैं कि मानव शिशु में भाषा अर्जन की जैविक या स्वाभाविक
क्षमता होती है। यह सिद्धांत एक प्रकार से मनोवादी सिद्धांत का समर्थक या दूसरा
रूप है।
(घ) संज्ञानात्मक
अंतरक्रियावादी सिद्धांत (Cognitive
Interactionalist)- इसे भाषा अर्जन का संज्ञानात्मक सिद्धांत भी
कहते हैं। ऊपर हम लोगों ने मन और संज्ञान की चर्चा की और यह जाना कि संज्ञान मन की
ही एक विशेष इकाई है, जो भाषा से जड़ीभूत रूप से जुड़ी हुई है।
इस सिद्धांत के अनुसार मनुष्य के मस्तिष्क की प्रकृति स्थूल जगत से भिन्न होती है।
मानव मस्तिष्क के अंदर समझ और चेतना (understanding and consciousness) का एक स्तर होता है जो मनुष्य की बुद्धिमत्ता (intellectuality) और भाषा को समझने के लिए आवश्यक है। इसे ही संज्ञान के रूप में बताया गया
है।
अधिकतर आधुनिक
मनोवैज्ञानिक और भाषावैज्ञानिक संज्ञानात्मकतावाद का समर्थन करते हुए देखे जा सकते
हैं। वे मानव मस्तिष्क की कार्यप्रणाली और बच्चों में भाषा विकास को समझने के लिए
शरीर और मस्तिष्क की अंतःक्रिया के अध्ययन पर बल देते हैं। उदाहरण के लिए विडोसन
की अंतःक्रियात्मक विधि (Interactional
method) संप्रेषण में प्रयुक्त अंतःवैयक्तिक संबंधों को केंद्र में
रखकर संरचना और प्रकार्य के अंतःसंबंधों की दक्षता उत्पन्न करने के पक्ष में है।
Interactionalism- इसके अनुसार मनुष्य में शरीर और मस्तिष्क एक-दूसरे के साथ अंतःक्रिया
(interaction) करते हैं। अतः दोनों एक दूसरे को नियंत्रित
(control) भी करते हैं। इनके बीच कुछ मुक्त इच्छाएँ (free
will) भी होती हैं।
भाषा अर्जन के प्रमुख
सिद्धांतों के अंतर्गत वर्णित प्रमुख बातों को इन टेबलों में देख सकते हैं-
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