https://www.ldcil.org/Corpora/text/Hindi/HIN1.doc से साभार-
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Hindi Corpora, Monolingual Written Text </projectDesc>
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page 58-60,119-120,178-180,
238-239, 298-300, 359, 418-420, 478-479, 538-540, 594 </samplingDesc>
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<title> kathA satIsara </title>
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<author> caMdrakAMta </author>
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<pubPlace> India-New Delhi </pubPlace>
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<pubDate> 1992 </pubDate>
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<date> 6-May-2005 </date>
<inputter> Nagamani </inputter>
<proof> Sumedha Shukla, Jitendra </proof>
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<p>लल्ली ऊपर का दूध उलट देती है, पानी पीकर
कब तक जिएगी? ऊपरेवाले की यही
इच्छा होगी। उसे मना ले।”</p>
<p>ख़ुर्शीद बच्ची को गोद में लेते ही माँ बन गई। धर्म-दीन को लेकर कोई
बहस नहीं हुई। ‘दोदु मोज्य’ का चलन भी था। वक्ते जरूरत मुसलमान स्त्रियाँ हिन्दू
बच्चों को अपना स्तनपान करातीं और ‘दोदु मोज्य’ कहलातीं। इसमें कुछ गलत किसी को नज़र आता भी हो पर
ज़रूरतमन्द हर अनिवार्य स्थिति को ईश्वरेच्छा कहकर सिर झुकाते। एक वर्ग के अनुसार
सनातनधर्मी कृष्णजू कौल भी सोचते कि कभी सुबहान भट्ट और गुलाम मुहम्मद पंडित उनके
ही हमज़ात रहे होंगे। सिकन्दर बुताशिकन और अफगान तुर्कों के जुल्मोसितम से धर्म
बदलने पर मजबूर हो गए, पर थे तो उन्हीं के भाई-बन्द। यह दीगर बात है कि कट्टर
हिन्दुओं ने उनके चाहने पर भी उन्हें वापस अपने धर्म में लौटने की स्वीकृति नहीं
दी। रगों में खून तो एक ही दौड़ता था।</p>
<p>जो इस गुत्थी को सुलझा न पाता वह इसे शिव
की लीला कहकर हाथ जोड़ देता। शैवकर्मी ब्राह्मणों का आखिरी नाम और आखिरी विश्वास,
शिव शम्भो! जो भी हो, लल्ली
को ख़ुर्शीद ने जीवनदान दिया। मज़हब आड़े नहीं आया।</p>
<p>ख़ुर्शीद सभी सोचों-दलीलों से परे सिर्फ
एक माँ थी, गैरमज़हबी मुनहनी बच्ची के मुँह में दूध देती। हल्के-हल्के झकोले देती,
मीठी-मीठी लोरियाँ गाती—‘कूरी कूरी
तबाशीरी, पननि कूरी—लग्अयय...’1। जो मंज़र आज भी
आँखों के आगे ताज़ा है। जैसे कल की बात हो।</p>
<p>ख़ुर्शीद लय-ताल से ‘छप्प छुलक’ पानी में चप्पू चलाते
खाविन्द को नज़रभर देखती है। उम्रभर की सादगी और मेहनतकशी में कोई फर्क नहीं, हाँ,
मुँह पर झुर्रियों के महीन जालों में उम्र ने अपने निशान ज़रूर बुने हैं। वक्त की
कशीदाकारी।</p>
<p>‘हरमुख का गोसोन्य’। ख़ुर्शीद अपने
आपसे ही बतियाती है। सालों साल रोज़ सुबह चढ़ता था पहाड़ी वह गोसाईं, अगली सुबह
दोबारा खुद को पहाड़ी के दामन में पाता। वहीं जहाँ से शुरू की थी चढ़ाई। हरमुख के
गोसाईं को तो तिलकधारी बच्चा मिला जिसका तिलक चाटकर वह शिखर तक पहुँचा और
शिव-पार्वती के दर्शन कर सका पर सुबहान मल्लाह की जिन्दगी वहीं की वहीं ठहर गई है।
झेलम के एक किनारे से दूसरे किनारे तक, खरयार से काठलेश्वर तक लोगों को नदी पार
कराना। बिला नागा, सुबह से शाम तक चप्पू से नदी का पानी खँगालना, छुलक छप्प, छुलक
छप्प और ग्राहकों से ‘खैरय छा’? शुर्य छा सलामत?’ ‘फज़ल खोदाय सुंद’2 संवादों के बीच
वक्त गुज़ारना।</p>
<p>रोज़ का क्रम, रोज़ की दिनचर्या, सुबह
सत्तू डली शीरचाय और मगे नानवाई की तिलडली रोटी खाकर चप्पू पकड़ना। धूप, बारिश,
बर्फ। कोई भी मौसम उसे घर में रोकता नहीं।</p>
<p>“तुम्हारा जी नहीं
ऊबता रोज़ वही-वही काम करते बबा? वही खरयार से
काठलेश्वर तक लोगों को नदी पार कराते?”
एक दिन वली ने पूछ ही लिया। लो, सवाल पूछा भी फरज़ंद ने तो कैसा उल्टा? </p>
<p>1.मेरी बेटी! मिसरी की डली, मैं तेरे कुरबान जाऊँ। 2.ठीक हो? बाल-बच्चे खुश
हैं? ईश्वर की कृपा
है।</p>
<p>नरक का दृश्य बेहद भयानक था, पर वह
मृत्यु लोक की बात थी। इस लोक में भी प्रभकाक को सज़ा मिली। ताता ज्यादा कुछ कर
नहीं पाए क्योंकि मुट्ठीभर हडिडयों पर झुर्रियल खाल मढ़ी प्रभकाक की पत्नी तारावती
ने रो-रोकर सिर से ‘तरंगा’1 उतार ताता के
पैरों में डाल दिया। कहा कि, “उन्हें नौकरी से
निकालने से पहले मुझे और मेरे चार बच्चों को पत्थर बाँधकर वितस्ता में डुबो दीजिए।”</p>
<p>ताता को अपना गुस्सा थूकना पड़ा। क्योंकि
वे तारावती और बच्चों को वितस्ता में डुबो नहीं सकते थे। मन में दया भरी पड़ी थी न? </p>
<p>कात्या वसन्ता स्कूल जाने पर भी
तुलसी को भूल नहीं पाई, बल्कि दोस्ती की गाँठ उम्र के साथ और भी पक्की हो गई।
तुलसी दो गलियाँ छोड़ तीसरी गली में ही तो रहती थी। उन गलियों की भूल-भुलैया से
गुज़रकर बहुत पुराने, हिलती चूलोंवाले दरवाज़ों-खिड़कियों और झुकी कमरवाले
दोमंजिले घर के गलियारे में घुसना पड़ता था। वहाँ घुप्प अँधेरा सीढ़ियों पर बैठा
रहता था। कात्या भयनाशक मन्त्र, ‘सर्वस्वरूपे
सर्वेश सर्वशक्ति समन्विते, भयेम्यस्त्राहि नो देवि!
दुर्गे देवि नमोस्तुते।’ रटते,
चौकन्नी हो कोने-अन्तरे देख जल्दी से सीढ़ियाँ फलाँग लेती। मन में फिर भी डर
धुकधुकाता रहता कि कदम धीमे रहे तो अगली सीढ़ी पर ताक में बैठा भूत-प्रेत कहीं गला
न दबोच ले। दो-दो सीढ़ियाँ लपककर लाँघ हाँफते-हाँफते कमरे में कदम रखती तो तुलसी
की काकनी प्यार से झिड़क देती, “अंह,
अंह, इत्ता उतावलापन क्यों?
लड़कियों के कदमों की आहट नहीं सुनाई पड़नी चाहिए। आदत हो जाती है।” </p>
<p>तुलसी की माँ के बाल भक्क सफेद थे। पता
नहीं असमय छिजी उम्र के कारण या हर सप्ताह में दो-तीन व्रतों की वजह से वह हड्डियों
का हिलता पिंजर नज़र आती थी। वे अष्टमी, एकादशी, संक्रान्ति, अमावस्या, पूनम आदि
के अलावा चतुर्मास के भी व्रत रखा करतीं। यों ये व्रत कात्या की दादी जी भी रखा
करतीं, पर व्रत वे शुद्ध घी, दूध, दही और फलों से तोड़ती थीं, तुलसी की माँ कहवा
और आलू के सिवा भी कुछ लेती होंगी, इसकी तो सम्भावना उस ‘ऊपर से पत्थर फेंको, नीचे से आवाज़ सुनो’–नुमा खाली घर में दिखाई नहीं पड़ती थी।</p>
<p>रंग-बिरंगी टाकियाँ लगे, बिना ‘नरीवार’2 का फिरन पहने,
तुलसी की माँ, घिसी चटाई पर तेल सने गूदड़ तकिए की टेक लिए, पाजामों-कुरतों और फ्रॉकों
की उधड़ी सीवनें जोड़ती रहती या चिल्लयकलान के लिए शलजम-बैंगन, लौकी, मिर्ची की
मालाएँ बना धूप में उलटती-पलटती रहतीं। कात्या को कभी-कभार वह जीरे-नमक की सोंधी
खुशबुओंवाली, टोपियों जैसी चावल के आटे की ‘याजि’ खिलातीं जो कात्या
बड़े स्वाद से खा लेती।</p>
<p>तुलसी के गोल-मटोल गन्दुमी चेहरे पर जड़ी
उदास आँखों में जाने क्या कशिश थी कि कात्या कभी उससे दूर हो ही नहीं पाई।</p>
<p>1. फिरन के साथ सिर
पर पहना जानेवाला शिरोवस्त्र जो शादी शुदा स्त्रियाँ पहनती थीं।</p>
<p>2. फिरन पहननेवाली
सुहागिनें फिरन के बाजुओं में ज़री या छींट की चार-छह अंगुल की पट्टी लगाती हैं।
(यह केवल सधवा ही लगा सकती हैं) ।</p>
<p>कोई ज़रा-सी तारीफ कर दे किसी कालीन की,
कि बाछें खिल जाती हैं, “जनाब। बड़ा पुराना
नमूना है, आजकल कौन इतनी मेहनत करता है! महाराजा रणजीत सिंह जब पंजाब का राजा था तो, कश्मीर का एक बेहतरीन कालीन
उन्हें तोहफे में दिया गया। सुना है, उसे देख राजा इतना खुश हुआ कि उस पर लोट ही
गया। उसी नमूने से मिलता-जुलता नमूना है बिरादर।”</p>
<p>कौन-सी जानकारी नहीं है सुलतान जू को। “अखुन्दरहनुमा को जन्नत नसीब हो, उसी की देन है कालीन का
हुनर।”</p>
<p>आप पूछिए, कौन अखुन्दरहनुमा? तो नाराज़ हो जाएँगे।</p>
<p>“आप कालीनों का शौक रखते हैं और उन्हें नहीं जानते?” सुलतान जू बड़शाह के ज़माने से शुरुआत करेंगे। जहाँगीर के
समय 1620 में कैसे एक
अखुन्दरहनुमा नाम का कश्मीरी, अल्लाहताला की मेहर से, मध्य एशिया से होता हुआ हज
को गया। कैसे वहाँ से लौटते, कुछ वक्त ‘अन्दिजन’ में गुज़ारा।
वहाँ के कालीन बुनकरों से कालीन बुनना सीखा। वापस घर लौटा तो साथ में कालीन बुनाई
के औज़ार भी लेता आया और कश्मीरियों को यह ईरानी हुनर सिखाया। “गोजवारा मुहल्ले में उनकी कब्र है जिस पर सिजदा करने कालीन
बुनकर जाते हैं।” जोड़ना भूलते
नहीं।</p>
<p>सुलतान जू यह भी बताते हैं कि असली ईरानी
कालीन 1526 ई. में ‘कशान’ में बना, ‘अरदाबिल मस्जिद कालीन।’ अब वह कालीन विक्टोरिया अलबर्ट म्यूजियम लन्दन में है जिसे दो हज़ार पौंड में
अंग्रेज़ों ने खरीद लिया। इस ईरानी कालीन की हू-ब-हू नकल कश्मीरी कालीनसाज़ों ने की जिसे लॉर्ड करज़न ने एक सौ पौंड में
खरीदा।</p>
<p>अब कोई पूछे सुलतान जू से कि अरदाबिल की
मस्जिदवाला कालीन जब दो हज़ार पौंड में बिका तो उसकी हू-ब-हू नकलवाला कश्मीरी
कालीन सिर्फ एक सौ पौंड में ही क्यों? तो सुलतान जू
अंग्रेज़ों की हिन्दुस्तानियों से, कम पैसों में ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की
नीयत के बारे में कुछ न कहकर इतना ही कहेंगे, “जनाब! असल असल है और
नकल नकल। यों कश्मीरी कालीनों की नुमाइश 1890 ई. में शिकागो के ‘वर्ल्ड फेयर’ में हुई थी। हमारे हुनर का भी मुकाबला नहीं है। सूफियाना
रंगों की बुनावट कोई हमसे सीखे।”</p>
<p>बढ़िया से बढ़िया शाल तो सुलताना द
वर्स्ट की दुकान पर ही मिलते हैं । हथकरघे पर बुने गए ‘कानी शाल’ महीन से महीन
कशीदाकारी के लाजवाब कढ़ाईवाले सूजनी, अमली, चिकनदोज़ी जालिकदोज़ी के शाल, जिन पर
कुदरत की सभी कारीगरी रंगों-बेलबूटों और परिन्दों-पेड़ों समेत उतारी जाती है। उनकी
तारीफ तो देखनेवाली नज़र आप ही कर लेती है।</p>
<p>सुलतान जू के पास बीसेक हुनरमन्द शालसाज़
हैं जिन्हें वे बेटों की तरह प्यार भी देते हैं और गलतियों के लिए डाँट-फटकार भी
सुनाते हैं। बेलबूटों के रंगों के मिलान में ज़रा भी गलती हो तो सुलतान जू को
तकलीफ होती है। कारीगरों को वे समझाते हैं कि अपनी सदियों पुरानी शाल इंडस्ट्री
अपनी बेजोड़ खूबियों की वजह से ही दुनियाभर में मशहूर है। कौरव-पांडवों के ज़माने
से कश्मीरी शालों की खास जगह रही है। कहते हैं जूलियस सीज़र कश्मीरी शाल पहनता था।</p>
<p>कश्मीरी शालों पर सुलतान जू को बेहद
गुमान है। वे गाहे-बगाहे वह 1796 ई. वाला किस्सा
भी सुनाते हैं जब अफगान गवर्नर अब्दुल्ला खान के समय एक अन्धा आदमी सईद याहया खान,
बगदाद से कश्मीर आया और अब्दुल्ला खान ने जाते समय उसे एक सन्तरी रंग का शाल तोहफे
में दे दिया।</p>
<p>हत्या, तोड़-फोड़, आगज़नी! राजा सहदेव किश्तवाड़ भाग गया। ढुलचू ने श्रीनगर में आग
लगा दी और हज़ारों हिन्दुओं को दास बनाकर अपने साथ ले गया। लेकिन वापस लौटते समय
वह पहाड़ों के बीच बर्फानी तूफान में फँस गया और सभी बन्दी भट्टों के समेत बर्फ
में, उसकी भी कब्र बन गई। इसी से उस जगह को ‘भट्टगजिन’ यानी भटों का
तन्दूर कहा जाता है।”</p>
<p>विशालकाय पर्वत, अनेक कहानियाँ, दर्दनाक
दास्तानें अपनी सलवटों में छिपाए हज़ारों-लाखों वर्षों से अडिग खड़े हैं। बर्फ से
आच्छादित शिखरों को मुग्ध होकर देखने सराहनेवाले सैलानी कितने ऐतिहासिक सच जानते
हैं? और उस इतिहास के
गर्भ में छिपी मानवीय यातनाओं की व्यथा-कथाएँ तो यहाँ की धरती में दफन हो गई हैं
जो ज़रा-सा खुरचने पर चश्मों और स्रोतों की तरह फूटकर हमें भिगो देती हैं।</p>
<p>तभी शायद कात्या को गहरी खाइयों से करूण
चीत्कार सुनाई दी। चन्द्रभागा की हरहराहट में एकतान हुई जाने कितनी करुण पुकारें
कानों में कीलों-सी ठुकने लगीं।</p>
<p>केशवनाथ ने
जगह-जगह पहाड़ों से फूट आए प्रपातों की ओर ध्यान खींचा—“ये झरने और प्रपात तुम्हें आगरे में तो नहीं मिलेंगे।”</p>
<p>“जर्रा जर्रा है मेरे कश्मीर का मेहमान
नवाज। राह में पत्थर के टुकड़ों ने दिया पानी मुझे।” बाबू जी गुनगुनाने लगे, पहाड़ों से फूट आए पानी की धारों को देख। यह शेर
कश्मीरी कवि ब्रजनारायण चकबस्त, ने कहा है, अच्छा बताओ—“गर फिरदौस बर रुए जमीन अस्त, हमीं अस्तो हमीं अस्तो हमीं
अस्त1,” यह शेर किसने
कहा।</p>
<p> “हु ऽऽ म, मुझे मालूम है, जहाँगीर
ने।” </p>
<p>आगे कुद बटोत की सुहावनी चढ़ाई। चीढ़
बाँज, बुरुंश और देवदार के घने जंगल। पंक्तिबद्ध सिपाहियों की मुद्रा में खड़े
पेड़ जैसे कात्या का स्वागत कर रहे हों। हवा में चीढ़ की भीनी गन्ध थी। वनस्पतियों,
पहाड़ी फूलों की महक यात्रियों को बौराने लगी थी। घूँट भर-भर हवा साँसों के भीतर
भरने की ललक! सीने से सरसब्ज़
हरियाली को लिपटाए आर्द्र होते परुष पहाड़। हिमालय की महान आत्मा रहस्य और
आतंकभरे सुख से अभिभूत किए जा रही थी।</p>
<p>पहली बार इन ऊँचे रास्तों पर निकल आई है
कात्या, उत्सुक और रोमांचित! केशवनाथ तो लाहौर
तक हो आए हैं!</p>
<p>पहाड़ियों से उतर बस समतल रास्तों पर
दौड़ने लगी तो ऊधमपुर जम्मू के छोटे-छोटे गाँव स्वागत करने लपक आए। ‘कटरा’ की पहाड़ियाँ
दिखीं, त्रिकुटा देवी की पर्वत मालाएँ। यात्रियों ने हाथ जोड़कर शीष झुकाए। ‘जय माता शेराँवाली’ का नारा लगाया। केशवनाथ ने कात्या से वादा किया कि छुट्टियों में जब कात्या
घर लौटेगी तो जम्मू में अपने मित्र हरिकृष्ण वखलू के पास दो-एक दिन रुकेंगे।</p>
<p>1.
यदि पृथ्वी पर कहीं स्वर्ग है तो वह यहीं
है, यहीं हैं, यहीं है।</p>
<p>कौव्वा मुँडेर पर बोलता, तो लपककर दरवाज़ा खोलती, कहीं वह आए और दस्तक दिए
बिना न लौट जाए...।”</p>
<p>कात्या ने तारा को गले लगाया। प्यार क्या
सचमुच भीतर की गिठानें खोल प्रेमी को बहना सिखाता है? इतनी निश्छल, इतनी सच्ची तो तारा पहले कभी न लगी थी। </p>
<p>कात्या पहले पुष्कर और बाद में डॉ. वली
से मिली। डॉ. वली खुले विचारोंवाले व्यक्ति थे, डॉक्टर बिरादरी का भी कुछ असर हुआ।
गो कि जल्दबाज़ी के विवाह का कारण उन्हें कुछ समझ नहीं आया। मन में अच्छे-खासे
दहेज की सम्भावना की समाप्ति का दुख भी अटका रहा, पर चलो, बेटे के लिए पिता का
दायित्व निभाया, कुछ बलिदान देना पड़ा, पर बेटा तो हाथ में रहा। आखिरी आस तो वही
है। पिंडकर्ता ।</p>
<p>डॉ. वली ने पत्नी को स्थिति समझाने के
बहाने अपने आपको भी तसल्ली दी—‘ईश्वरेच्छा! कर्मलेखा! शादियाँ तो
स्वर्ग में ही तय हुआ करती हैं!’</p>
<p>जल्दी में विवाह सम्पन्न हुआ। दीनकाक ने
अँधेरे कोने से उठकर उजाले में, लगन मंडप पर कन्यादान किया। हाथ-पैर तो फूले थे,
कैसे क्या होगा? पर मंगला, ईश्वर
के आगे हाथ जोड़े प्रसन्न चित्त खड़ी रही। “तू जो करता है, हमारे भले के लिए ही करता है शम्भो! हम मूरख जीव तेरी लीला क्या जानें!”</p>
<p>आखिर लड़की के जन्म से ही थोड़ा-थोड़ा
जमा करने, बटारेनेवाली मा बन्द आँखों ही कात्या ने छतनार चिनार को ढूँढा। चीड़ सरो
और देवदारों को माँएँ तो बेटियों के ब्याह की तैयारियाँ उस दिन से बहुत पहले कर
चुकी होती हैं, जिस दिन पिता को बेटी बड़ी दिखने लगती है।</p>
<p>कात्या शादी होने तक साथ-साथ रही, और
आश्चर्य से मंगला को दौड़-भाग करते देखती रही। नए-नकोर कपड़ों में दिपदिपाता
प्रौढ़ चेहरा, बेटी का माथा चूमती, गंगा नहाई माँ की आर्द्र भंगिमा, दामाद पर
पुष्प-वर्षा करती, इंजीनियर दामाद की गर्वभरी सास का ऊँचा माथा, और मना-मनाकर
मेहमानों को पकवान खिलाती गृहणी मंगला।</p>
<p>मंगला मौसी की एक्स-रे नज़र और
दूरदर्शिता की, कात्या तब सचमुच कायल हो गई, जब उसने कात्या के कान में कहा—</p>
<p> “शादी के सात मास के बाद ही होगा न बच्चा? मेरा अजय भी तो सतमासा ही है...” </p>
<p>मुहल्लेवाले दंग हैं। मंगला इतनी गुणी
होगी, कौन जानता था? गिरती दीवारों को
कन्धों पर थामे रही। बेटे का इलाज, बेटी की रचे-बसे घर में शादी! अब तो दीनकाक भी छाती तानकर चलने लगा है, क्या अस्थमा भी
ठीक हो गया? </p>
<p>जिन्हें देर-सवेर सुदर्शन डॉक्टर के घर
आने से एतराज़ था, वे भी मान गए कि मंगला में हौसला है। बुद्धिमान जनों ने राजा
तुंजिन की कथा का हवाला देकर कहा, कि स्त्री बुद्धिमती हो, तो घर क्या पूरी प्रजा
को बचा सकती है। देश जब अकालग्रस्त हुआ था, सदियों पहले की बात कह रहे हैं, तो
राजा तुंजिन सभी प्रयास कर हार गया और निराश होकर आत्महत्या करने के लिए तैयार हो
गया। तब उसे किसने हिम्मत दी? उसकी पत्नी ने ही
न? बोली, कोशिश जारी
रखो।</p>
<p>अँधेरी भयावह रात! सुँते सन्नाटे के बीच वितस्ता की गाभिन शूंकार ताता को
सोने नहीं देती। पक्की उम्र में यों भी नींद दुश्मन हो जाती है, ऊपर से कूल-किनारे
ढहाती वितस्ता का रौद्र रूप आशंकाओं में घसीट ले जाता है। खिड़कियों-दरवाज़ों की
सन्धों-फाँकों से घरों के भीतर घुस आता मटियाले पानी का यह सैलाब क्या पता, किसी
घड़ी-पहर बस्तियों को लील ले! निक्के, मुन्ने,
बीमार, बुजुर्ग कैसे पहुँचाए जाएँ सुरक्षित स्थानों पर!</p>
<p>कालिख पुते आसमान के नीचे मरोड़ खाते
भँवरों और गज़भर उछलती लहरों की मार सहती घरों की कतारें, कमर तक पानी में डूब गई हैं। किस घड़ी अर्श कर ढह जाएँ,
कोई नहीं जानता। चौतरफा फिक्रमन्द सन्नाटा गहरी साँसें थामे स्तब्ध खड़ा है। ना
खुद सोए न दूसरों को सोने दे।</p>
<p>अँधेरे को घूरते पुतलियाँ दुखने लगीं, तो
ताता ने आँखें बन्द कर लीं। अचानक लगा, किसी अदृश्य हाथ ने झकझोरकर पलंग हिला
दिया। खिड़कियों के पल्ले बजने लगे। साँकलें खड़कने लगीं। कोई हवाई जहाज़ घर की छत
को छूता हुआ गुज़र गया क्या?
</p>
<p>भूकम्प का झटका था। ‘\ नमः शिवाय’! संकट की स्थिति में शिव को पुकारना अभ्यास से संस्कार बन
गया है। ताता ने पलंग से उठने की कोशिश की। दूसरा झटका आ जाए, तो पानी में खड़े
सीजे घर, ताश के पत्तों से ढह जाएँगे।</p>
<p>सुन्न होती दाईं टाँग धीमे-धीमे झटकारते खड़े हुए कि शिव
केशव दोनों दरवाज़ा खोल पास आए, “आप ठीक तो हैं न
ताता?” </p>
<p>केशव ने बाँह का सहारा दिया।</p>
<p>“हल्का-सा झटका था भूकम्प का। आप घबराए तो नहीं?” ताता ज्यों नन्हें बच्चे हों। दादी थीं तो ताता बुजुर्ग
थे।</p>
<p>कमला-लल्ली देहरी पर उतरने की ज़िद करने लगीं, “सैलाब ने घरों की नींवें सिजा दी हैं, एकाध झटका और आए तो
प्रलय ही हो जाए....।” कमला बदहवास हो
जाती है। ज़रा-सा हिचकोला आया कि चीखती हुई आँगन में आ खड़ी हो जाती है, लल्ली
जेठानी को कन्धे से घेरती है, “हम सब साथ हैं न?” यानी इसमें डर कैसा? अकेली नहीं हो तुम? लेकिन अकेला कौन नहीं है? </p>
<p>बदलाव के दावों के बावजूद हम कितना बदल गए थे? </p>
<p>माँ ने निरंजन को हवाई कबूतर बना, लम्बा-चौड़ा पत्र देकर
भेज दिया, फलों की टोकरी के साथ! ‘ड्येक बअड, डेम्ब बअड’1 के आशीषों के साथ, वही सनातन सीख-सिखौवल! साथ में ललद्यदी, रूपदेदी की सहनशीलता के किस्से! सास ने भात के नीचे पत्थर परोसा, लल्ली ने मुट्ठीभर भात
खाया, पत्थर धोकर चौके में रख लिया। पति ने देर से घर लौटने पर लांछन लगाए, पानी
का मटका फोड़ दिया, पर लल्ली ने मुँह खोला? तभी न उसके बारीक कते सूत से ताल में कमल और कमल ककड़ियाँ उग आईं। ईश्वर ने
सुन ली उसकी एक दिन और लल्ली सन्त योगेश्वरी बनी। और रूपभवानी ने? उसने कम सहा? मायके से खीर की देगची आई। सास ने हाथ-पैर नचाए, ‘इत्ती-सी खीर? किसे दूँ, किसे न
दूँ?’ रूपदेदी ने सिर
झुकाकर कहा, ‘सिर झुका कर’, माँ ने लिखा, ‘आप बाँटना शुरू करें।’ बस और कुछ नहीं।
सास गुस्से और खुंदक में भर-भर कलछियाँ खीर की बाँटती रहीं। बाँहें दुख गईं, पर
खीर खत्म ही न हुई। तब सास भी बहू को मान गई और अपने किए पर पछताई। यानी कि मेरे ससुराल
वाले भी अपनी लगाई तोहमतों पर एक दिन शर्मिंदा हो जाएँगे। मुझे सब्र से काम लेना
है। ये तो समय की परीक्षाएँ हैं।</p>
<p>वही, हर युग में ऐसा हुआ है, आगे भी होता रहेगा।</p>
<p>लेकिन मेरे पास न लल्ली, रूपदेदी का धैर्य था, न उनकी यौगिक
शक्तियाँ। बीसवीं सदी में, चौदहवीं-सोलहवीं शती के उदाहरण मेरे काम नहीं आएँगे, यह
बात माँ को समझाना असम्भव था। मैं फिर चुप रही।</p>
<p>विमल इंजीनियर हो गया। लगा, अब कुछ बदलेगा। मैं विमल के साथ
आगरा गई, जयपुर गई, विमल ने माँ से कहा, “उधर खाने की तकलीफ है।” माँ ने बेटे की
सेहत पर ध्यान रखते, बाबर्चिन भेज दी। पतिदेव के बुलाने, और सास जी के पति के पास
भेजने का यह पारम्परिक शालीन ढंग मुझे कड़ुवे घूँट की तरह पीना पड़ा।</p>
<p>मैं दो बार माँ बनते-बनते रह गई, तो कात्या दीदी खुद मुझे
लेने आ गई, “राज्ञा को तीन
महीने का बेड रेस्ट चाहिए। इसे मेरे साथ भेज दें।”</p>
<p>विमल को कात्या की दखलअंदाज़ी पसन्द नहीं आई। उसने कन्धे उचकाए,
“मेरी माँ ने धान
कूटते बच्चे जने हैं। दुनिया की हर औरत माँ बनती है। इसकी क्या प्राब्लम है, यही
जाने।”</p>
<p>लेकिन कात्या ने मुझे अपनी देखभाल में रखा। जब छह पाउंड की
बादामी आँखों वाली नन्ही जान ने अधमुँदी आँखें खोल मुझे देखा, मेरी छातियों से दूध
की धार फूट आई। मैंने देविका के रेशमी होंठों से अपना दूध छुलाया, और दीन-जहान को
मेरे साथ की गई ज्यादतियों के लिए माफ कर दिया।</p>
<p>आह! ये ऑटो के धचके,
अंजर-पंजर हिला रहे हैं। ऑटोवाला गाड़ी को माँ-बहन की दो-चार वज़नी गालियाँ देकर
गियर बदलता है और बहन से रिश्ता जोड़कर एक्सेलेटर दबाता है।</p>
<p>1. सुहागवती होओ! पुत्रवती होओ!</p>
<p> “हमने भी पढ़ा है भई, तब अब्दुल कद्दूस गोजवारी ने उसकी बीबी और बहू को घर में
पनाह दी थी। मलिकों ने कश्मीर से बाहर निकलने में मदद की। यह हिन्दू-मुसलमान-सिक्ख
में फर्क करना अब हम भी सीख गए। कश्मीरी पंडित तो शिवरात्रि जैसे धार्मिक पर्व में
भी मुसलमान-सिक्ख को भूलता नहीं, तभी तो वह सुन्नीपुतल रखता है पूजा में, और वाहे
गुरु को, वागुरबाह में शामिल करता है। हमने तो यकजहती और भाईचारे की ही मिसालें
कायम की हैं।”</p>
<p>विकी ने अधूरी बात पूरी की, “यह कहो कि अपनी कौम में ही जयचन्द पैदा हुए हैं। बीरबल दर की प्रार्थना पर
महाराजा रणजीत सिंह ने सेना भेजकर प्रदेश को जालिम हाकिमों से मुक्ति दिला दी। अब्दुल
कद्दूस गोजवारी ने खतरा मोल लेकर बीरबल दर की पत्नी और बहू को आश्रय दिया, पर उसका
अपना दामाद तेलुक मुंशी दगाबाज़ निकला। उसने पठानों को खबर दी, सुराग पाकर अफगान
बहू को ले गए और पत्नी ने आत्महत्या कर ली।”</p>
<p>हमेशा चहकनेवाले ये चार यार, इस बार डरे हुए थे। डर की वजह
उनके अन्दर नहीं, उनसे बाहर थी, पर वह वहाँ मौजूद थी। क्योंकि अशरफ के घर पर
जेहादियों की नज़र थी। उसकी बहन नसीम को कुछ ही दिन पहले सेंटर जाते चार लड़कों ने
बुर्का पहनने की सलाह दी। जो सलाह से ज्यादा धमकी थी। यह कहा कि, “भाई से कहो हिन्दुस्तानी जासूसों से दूर ही रहें।”</p>
<p>“बुर्का पहनो, पर्दा करो, नमाज़ पढ़ो। साइकिल चलाना छोड़ दो।
गैर इस्लामी काम मत करो।”</p>
<p>अशरफ ने पीटर को अपना डर बता दिया।</p>
<p>“डर अपने लिए नहीं है यार, अपनों के लिए है, उसमें तुम सब
शामिल हो। मुझे गलत मत समझना।”</p>
<p>“अब क्या नसीम बहन बुर्का पहनेगी?” </p>
<p>पीटर ने नसीम से ही पूछ लिया।</p>
<p>नसीम डरपोक नहीं। भाई के दोस्तों को भाई जैसा ही मानती है, “बुर्का पहनकर, मैं सदियों पीछे नहीं लौटूँगी पीटर भाई! पर इन गरम दिमागों से थोड़ा डर ज़रूर लगने लगा है। आजकल
इन्होंने अपनी बात मनवाने के नए तरीके जो अपनाए हैं।”</p>
<p> “नए तरीके? कौन-से?” </p>
<p>“बेपर्दा लड़कियों के चेहरों पर हरा रंग डाल देते हैं। बड़ी
जलन होती है उससे। शायद तेज़ाब जैसी कोई चीज़ है।”</p>
<p>“माई गॉड! अब तुम क्या करोगी?” पीटर चिन्तित था।</p>
<p>“फिक्र मत करो। अब हम ढीली-ढाली पोशाकें सिलवा रहे हैं।
एड़ी-चोटी ढकती पोशाकें। माथा ढकती, चुन्नियाँ-चादरें ओढ़ेंगी। और क्या कर सकती
हैं?” </p>
<p>“अपना ख्याल रखना नसीम! हालात काफी खराब हो रहे हैं।”</p>
<p>“सब ठीक हो जाएगा, विकी! इस जेहाद का जोश ज्यादा टिकाऊ नहीं होगा। हमारी रगों में ऋषियों और सूफियों
का खून है। जल्दी ही उबाल ठंडा हो जाएगा।</p>
<p>संगेमरमरी शंकर-पार्वती और गणेश के ऊपर गेंदे के सूखे फूल-पत्ते चिपके रह गए
थे। पूजा की धूप दीपी बासी गन्ध के साथ दुलारी के कानों में ससुर जी की भाव-विभोर
करती देवी स्तुति गूँज उठी—</p>
<p>जगत की रक्षा करना जिस माँ की क्रीड़ा है, उसने क्या
क्रीड़ा करना छोड़ दिया? या वह भी घरवालों
के साथ विस्थापित हो गई? </p>
<p>दुलारी ने शिवभक्ति की युगल मूर्ति उठाकर फिरन की जेब में
डाल दी, तुम जो भी क्रीड़ा कर रही हो, तुम्हें इस निष्कासन में हमारे साथ रहना है।</p>
<p>लौटते में सड़कें ज्यादा धँस गई थीं, पहाड़ इतने कठोर और
निर्मम पहले तो कभी नहीं थे। हवाएँ हड्डियों में सूराख क्यों कर रही हैं? </p>
<p>लल्लेश्वरी के पांपोर गाँव में, दूर-दूर तक फैली केसर की
क्यारियाँ, नीललोहित फूलों की आँखों से लल्ली को ढूँढ़ रही थीं।</p>
<p>कोंगपोश1, उदास, तटस्थ और अकेले दिखे। उन्होंने
दुलारी, रिद्धि का रास्ता नहीं रोका, “यार गयोम पोंपुर
वते, कोंग पोशव रोट नालमत्ये।’ गले बाँह डाल
बेटियों की अगुवानी नहीं की।</p>
<p>कांजीगुंड में टैक्सी रोक, जब दुलारी ने बाँह भर-भर चिनार
के पत्ते टैक्सी में भर दिए, तो रिद्धि बौरायी माँ को असमंजस में देखती रही। काश! समय को किसी कैप्सूल में बन्द करके रखा जाता, तो महसूस
करने के साथ-साथ, उसे देखा-छुआ भी जा सकता। शायद खो जाने के दंश से तब, कुछ हद तक,
मुक्त भी हुआ जा सकता था। </p>
<p>बानिहाल टनल के पास खड़े उन्होंने, ग्रे आसमान तले
सहमी-सिकुड़ी सिर झुकाई हुई वादी को देखा। पहाड़ियों की गोद में पानी के ऊपर तैरती
हुई वादी! लगा, चौतरफ पानी
का वृहत फ़ैलाव है। सतीसर! जिसमें नए जलोद्भव
उत्पात मचा रहे हैं। कश्यप ऋषि इतिहास हो गए, ऋषियों-मुनियों का ज़माना लद गया।
नाग, आतंक से घबराकर वादी छोड़ गए। अब वहाँ राक्षसों का तांडव है। वादी को मुक्त
करने कौन आएगा? </p>
<p>जम्मू में लल्ली ने ‘रोट’ बनाकर महागणपति
को धन्यवाद दिया, “तुम लौट आई, यही
क्या कम है? आग लगे शाल-दुशालों में। जिएँगे, तो अनेक शाल-दुशाले
मिलेंगे......” </p>
<p>केशवनाथ को आश्चर्य हुआ, “राकेश के पास चाबियाँ थीं। उसे मालूम होना चाहिए, घर में मिलिटेंट बैठे हैं।
उसे बताना चाहिए था।”</p>
<p>प्रेम हमेशा की तरह मुँहफट।</p>
<p>“क्या बताता? कोई नई बात है
क्या? मिलिटेंट गर्दन
पर ए.के. सैंतालीस रखकर छिपने की जगह माँगेंगे, तो कोई भी उन्हें सात तहखानों में
छिपा देगा।</p>
<p> 1. केसर के फूल।</p>
<p>“अभी तो कोई अन्त नहीं दीखता।” राज्ञा, 24 दिसम्बर को हुई,
इंडियन एयरलाइंस के प्लेन हाइजैकिंग की तरफ ध्यान दिलाती है। नेपाल से छः
हाईजैकर्स विमान को उड़ाकर कन्धार ले गए, और शर्तें रखीं पाकिस्तानी मिलिटेंट
अज़हर मसूद को रिहा कर दो, नहीं तो एक सौ सत्तर यात्रियों को उड़ा देंगे।”</p>
<p>“केन्द्र यहाँ बेहद उदार है, केन्द्र वहाँ बेहद लाचार है।”</p>
<p>“क्या इस देश में कोई विवेकानन्द, कोई पटेल, कोई भगत सिंह,
कोई गाँधी फिर से पैदा नहीं हो सकता?”
</p>
<p>राज्ञा अजीब-सा सवाल पूछती है।</p>
<p> “हमें तो बड़शाह का इन्तज़ार है।”</p>
<p>यह हलधर की बुढ़िया माँ कहती है।</p>
<p>“अच्छा हुआ निकाले गए वहाँ से। हम तो सौ जूते खाकर भी घर की
मिट्टी जकड़े रहते। यहाँ खटेंगे भी, तो सिर उठाकर जी भी लेंगे।”</p>
<p>यह शिलपोरा का शिबन इतना उद्दंड क्यों है? </p>
<p> “इसका दोस्त था कन्हैया, जिसे एक शाम, रास्ता दिखाने के लिए
मिलिटेंट ले गए, और सुबह मारकर सड़क पर फेंक आए!” </p>
<p>“कहाँ लौटोगे अब? निज़ामे मुस्तफा
की ज़मीन तैयार हो गई है वहाँ। भट्टों की ज़मीन धँस चुकी है। मुट्ठीभर जो बचे हैं,
उनका हश्र भी जल्दी सामने आएगा।”</p>
<p>“दिमाग! खराब हो गया है।” रतन अफसोस से सिर हिला रहा है।</p>
<p>दोस्तों! अब हम विदा लेते
हैं। आपको ‘शिहुला विला’ में छोड़ आती हूँ।</p>
<p>इधर विला से सटे, चैरिटेबल अस्पताल में डॉक्टरों-नर्सों की
आवाजाही है। कार्तिक-कात्या अभी एक मेजर ऑपरेशन कर चुके हैं। चेंज रूप में
कात्या-कार्तिक मास्क एप्रन वगैरह उतार चुके हैं। थकान और टेंशन के बावजूद कात्या
का चेहरा दमक रहा है।</p>
<p> “यू हैव डन ए ग्रेड जॉब।” कार्तिकेय कात्या को कन्धों से घेर लेता है। “माँ-बच्ची दोनों बच गए, मुझे तो यह एक करिश्मा ही लग रहा है।”</p>
<p>घड़ी रात के बारह बजा रही है।</p>
<p> “नया साल मुबारक। इस नई सफलता के साथ।”</p>
<p> “नया मिलिनियम। तुम्हें भी।”</p>
<p>कॉरीडोर से नन्ही आवाजें आ रही हैं ।
इयाँ...इयाँ...याँ....ऊँची और ऊँची उठती आवाज़।</p>
<p>“ओ गॉड! पिद्दी-सी जान और
इत्ती जब्बर चीख?” </p>
<p>नीलम हँस रही है। “ये लिजिए, आ पहुँचीं नए साल की बधाइयाँ।”</p>
<p>कात्या सुनती है, मुस्कुराती है। सती भी कॉरीडोर में आ गई
है, नए साल की बधाई देने।</p>
<p>सभी सुनते हैं, तेज़ तीखी भयमुक्त आवाज़।</p>
</body></text>
</Doc>
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